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अमेरिकी चुनाव 2020 : क्या बिडेन अंतरराष्ट्रीय समझौतों में फिर शामिल होंगे ? - अशोक मुखर्जी

ह्वाइट हाउस की दौड़ के बीच दुनिया और अंतरराष्ट्रीय संगठनों के लिए क्या दांव पर लगा है ? बैटलग्राउंड यूएसए 2020 की इस कड़ी में वरिष्ठ पत्रकार स्मिता शर्मा पूछती हैं कि ट्रंप सत्ता में वापस आते हैं तो क्या संयुक्त राज्य अमेरिका अपने ही अंदर और अधिक देखने वाला हो जाएगा और अंतरराष्ट्रीय संगठनों में वैश्विक नेतृत्व की अपनी भूमिका के दायित्व से बचने लगेगा?

ह्वाइट हाउस
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Published : Aug 30, 2020, 3:23 PM IST

Updated : Aug 30, 2020, 4:37 PM IST

हैदराबाद : पद संभालने के कुछ ही दिनों बाद हमने वाशिंगटन की स्थापित व्यवस्था को आश्चर्च चकित कर दिया और पिछले प्रशासन के काम घातक 'ट्रांस पेसिफिक पार्टनरशिप' से खुद को अलग कर लिया. इसके बाद मैंने कीस्टोन एक्सएल और डकोटा एक्सेस पाइपलाइनों को मंजूरी दे दी. अनुचित और महंगी पेरिस जलवायु समझौते को समाप्त कर दिया और अमेरिका की ऊर्जा स्वतंत्रता को पहली बार सुरक्षित किया. रिपब्लिकन नेशनल कन्वेंशन की अंतिम रात डोनाल्ड ट्रंप ने यह बात कही और राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के रूप में आधिकारिक तौर पर अपना दोबारा नामांकन स्वीकार कर लिया.

ट्रंप ने अपने 71 मिनट चले लंबे भाषण में 'अमेरिका पहले नीति के उदाहरण के रूप में आगे कहा 'मैं ईरान के खौफनाक एकतरफा परमाणु करार से पीछे हट गया.'

ह्वाइट हाउस की दौड़ के बीच दुनिया और अंतरराष्ट्रीय संगठनों के लिए क्या दांव पर लगा है ? बैटलग्राउंड यूएसए 2020 की इस कड़ी में वरिष्ठ पत्रकार स्मिता शर्मा पूछती हैं कि ट्रंप सत्ता में वापस आते हैं तो क्या संयुक्त राज्य अमेरिका अपने ही अंदर और अधिक देखने वाला हो जाएगा और अंतरराष्ट्रीय संगठनों में वैश्विक नेतृत्व की अपनी भूमिका के दायित्व से बचने लगेगा?

अमेरिकी चुनाव पर विशेषज्ञों की राय.

नेतृत्वकर्ता की भूमिका दांव पर

न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र स्थित भारत के पूर्व स्थायी प्रतिनिधि अशोक मुखर्जी ने कहा कि अमेरिका जनवरी 1942 से नेतृत्वकर्ता की जो भूमिका निभाता रहा है वह दांव पर है. वाशिंगटन सम्मेलन से शुरू हुई संयुक्त राष्ट्र बनाने की प्रक्रिया एक बहुत लंबी यात्रा है. इन दशकों में अमेरिका ने नेतृत्वकर्ता की जो भूमिका निभाई है वह पिछले 5-6 वर्षों में कमजोर नहीं हुई तो कम से कम धूमिल जरूर हुई है. इस चुनाव के नतीजों का उस मुख्य मुद्दे पर व्यापक प्रभाव पड़ेगा.

सेवानिवृत्त राजनयिक ने आगे कहा कि यह समझने की जरूरत है कि संस्थानों से हटना एक नकारात्मक पहलू है. 2006 में संयुक्त राष्ट्र की महासभा ने मानवाधिकार परिषद यानी यूएनएचआरसी का गठन किया. जॉन बोल्टन अमेरिकी राजदूत थे और उन्होंने तीन अन्य देशों के साथ इस परिषद के गठन के खिलाफ मतदान किया था, लेकिन यह परिषद 170 देशों के बहुमत से गठित की गई. अब संयुक्त राज्य अमेरिका तीन साल से बाहर बैठा है और यूएनएचआरसी का चुनाव नहीं चाहता. इन तीन वर्षों में मानवाधिकार परिषद ने इजरायल से निपटने के लिए प्रक्रिया समेत अपनी प्रक्रियाएं तय कीं. इसलिए यदि आप इसे राजदूत निक्की हेली के समय से देखें तो उन्होंने इस प्रक्रिया की आलोचना की थी. लेकिन अगर आप प्रक्रियाओं का मसौदा तैयार करते समय कमरे के अंदर नहीं होते हैं तो आप बाहर बैठकर इस बारे में कुछ भी नहीं कर सकते हैं.

अमेरिका कई अंतरराष्ट्रीय समझौतों से हुआ बाहर

डोनाल्ड ट्रंप के शासन में अमेरिका पेरिस जलवायु अधिनियम से लेकर ईरान परमाणु समझौते तक कई अंतरराष्ट्रीय समझौतों से बाहर हो गया है और संयुक्त राष्ट्र की कई एजेंसियों और व्यापार और पर्यावरण से संबंधित बहुपक्षीय करारों के पैसे में कटौती की है या अपने विवादास्पद फैसलों के माध्यम से विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) जैसे अन्य वैश्विक निकायों को कमजोर किया है.

यदि नवंबर में होने जा रहे चुनाव में जो बाइडेन को जीत मिलती है तो क्या उनका प्रशासन इन फैसलों को उलटने में सक्षम होगा और वैश्विक बहुपक्षवाद को मजबूत करने के लिए तैयार होगा ? क्या तब ईरान परमाणु समझौता बिडेन प्रशासन के लिए काम की सूची में वापस आ जाएगा जब ईरान, चीन और रूस के बीच रणनीतिक सहयोग बढ़ गया हो ?

ओबामा प्रशासन तब भी समझौते को जारी रखा था जो ईरान के पक्ष में बहुत अधिक था. यह सबसे पसंदीदा दृश्य नहीं हो सकता लेकिन यह सच है कि ईरान खुद के लिए इस तरह का करार करने में कामयाब रहा है. संयुक्त राष्ट्र के पूर्व तकनीकी सलाहकार डॉ. राजेश्वरी पी. राजगोपालन कहती हैं, 'यदि आप ईरान की परमाणु कार्यक्रम को वापस लेने, निरीक्षण की शर्तों में से प्रत्येक को देखें तो वे प्रत्येक शर्तें ईरान के अनुसार हैं और ईरान को उसकी सौदेबाजी की रणनीति को दिखाती हैं. डॉ. राजगोपालन ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन (ओआरएप) में परमाणु और अंतरिक्ष पहल के प्रमुख और एक प्रतिष्ठित फेलो हैं. उनका मानना है कि अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों या बाधाओं के बावजूद ईरान अपने परमाणु कार्यक्रम को आगे बढ़ा रहा है, जो बिडेन प्रशासन के लिए विशेष रूप से तेहरान पर चीन की छाया के साथ समझौते के बारे में पुनर्विचार करना कठिन बना देगा.

चीन को लेकर बिडेन का रुख कड़ा

वह कहती हैं कि यह टीम बिडेन को बहुत मुश्किल में डालने जा रहा है, क्योंकि बिडेन टीम भी यह साबित करने में जुटी है कि उसका भी चीन को लेकर कठोर रुख है. आप चीन की समस्या और चुनौती से कैसे निपटेंगे. चीन की समस्या पिछले कुछ वर्षों में बढ़ गई है. चीन ने संयुक्त राष्ट्र के कई संगठनों में नेतृत्वकर्ता की भूमिका हथिया ली है या अभी हथिया रहा है. अमेरिका ने चीन से बहुत सारे रणनीतिक स्थानों पर हार मान ली है. बिडेन को अब तय करना होगा कि ईरान-चीन दोनों की मिली हुई शक्तियों का कैसे इंतजाम करेंगे. यहां तक कि ईरान-चीन-रूस सभी एक तरह से एक साथ आ रहे हैं. तीनों ने पिछले साल के अंत में एक नौसैनिक अभ्यास किया था.

न्यूयॉर्क में प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया (पीटीआई) की वरिष्ठ पत्रकार योशिता सिंह से यह पूछने पर कि क्या पेरिस जलवायु अधिनियम से पीछे हटना एक चुनावी मुद्दा है, उन्होंने कहा कि पूरे एशिया में जंगल की आग, बाढ़ की विभीषिका, तूफान सभी का प्रभाव है. यह अब हम सभी के देखने के लिए है. असली जीवन में इसका खामियाजा हम सभी भुगत रहे हैं. अमेरिका जो ऐतिहासिक रूप से सबसे ज्यादा प्रदूषण फैलाने वालों में से एक रहा है और उसका ट्रंप प्रशासन जब छोड़ता है तो फिर इसका हम सभी पर विशेष रूप से समाज के कमजोर तबके, छोटे द्वीपों, विकासशील राष्ट्रों पर अप्रत्य़क्ष प्रभाव पड़ा है.

पेरिस समझौते का एक सप्ताह या एक महीने में फैसला नहीं लिया गया था, बल्कि कई सालों और बहुत सारे प्रयासों के बाद हितधारकों के साथ लेन-देन के बाद यह समझौता हुआ था.

महामारी ने अमेरिका को घुटनों पर ला दिया

उन्होंने आगे कहा कि वोट देते समय लोग जलवायु परिवर्तन को एक बड़े मुद्दे के रूप में नहीं सोचेंगे. इस प्रकार यह समय अर्थव्यवस्था, नौकरियों, विशेष रूप से महामारी में स्वास्थ्य सेवा के बारे में है. अमेरिका दुनिया का सबसे शक्तिशाली देश और दुनिया में आर्थिक रूप से सबसे ज्यादा मजबूत देश हो सकता है. लेकिन महामारी ने वास्तव में इसे अपने घुटनों पर ला दिया है. स्वास्थ्य का बुनियादी ढांचा टुकड़े-टुकड़े होकर कमजोर पड़ गया है. इसलिए वे मुद्दे होंगे.

इस बीच ट्रंप के राष्ट्रपति पद के प्रतिद्वंद्वी जो बाइडेन ने यह स्पष्ट कर दिया है कि यदि वे नवंबर में होने जा रहा चुनाव जीतते हैं तो अमेरिका विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) में फिर से शामिल होगा. डेमोक्रेटिक पार्टी ने अपने राष्ट्रीय अधिवेशन में पहले यह संकल्प लिया था कि अमेरिका डब्ल्यूएचओ को पैसा देने में अग्रणी और तकनीकी भागीदार बना रहेगा. ट्रंप की ओर से शुरू की गई एक वर्ष पहले की प्रक्रिया को इस वर्ष दिसंबर की शुरुआत में सत्ता में संभालने के बाद जो बाइडेन प्रशासन उलट देगा.

इस मुद्दे पर डॉ. राजगोपालन ने कहा कि डब्ल्यूएचओ से खुद को बाहर निकालने वाले अमेरिका के इस कदम का चीन और अन्य देशों के लिए जगह खाली करने जैसा बड़ा अप्रत्यक्ष प्रभाव पड़ा है, लेकिन यह कुछ बहुपक्षीय संगठनों की तत्काल समीक्षा और सुधार की जरूरत को भी दर्शाता है. ऐसा करने की आवश्यकता इस वजह से है ताकि ये संगठन किसी एक शक्ति के हाथ में नहीं आ जाएं. इन संगठनों का कोई एक ही शक्ति अपहरण नहीं कर ले. इन बहुपक्षीय संगठनों का नेतृत्व कोई एक देश हथियाए नहीं ले. भारत के पास इस समय नेतृत्व क्षमता है और अपनी तरह की सोचवाले देशों में से कुछ के साथ साझेदारी करके अपने सहयोगियों के साथ मिलकर काम करने की जिम्मेदारी भी है ताकि तटस्थता, पारदर्शिता, जवाबदेही को बढ़ावा दिया जा सके जिससे ये संस्थान पेशेवर तरीके से काम करें.

फिर से हासिल करनी होगी विश्वसनीयता

अशोक मुखर्जी ने आगे तर्क दिया कि इसका समाधान डब्ल्यूएचओ के भीतर से ही सुधारों और साख को बचाए रखने के दावे के रूप में आना है. कोरोना वायरस का प्रकोप होने पर संगठन पर बीजिंग के प्रति पूर्वाग्रह के गंभीर आरोपों को स्वीकार करते हुए उसे अपनी विश्वसनीयता को फिर से हासिल करनी है. उन्होंने यह भी कहा कि बहुपक्षवाद और अमेरिका के नेतृत्व पर बहस के बीच भारत 2021 में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में निर्वाचित सदस्य के रूप में अपनी सीट लेना चाहता है तो इसे निश्चित तौर महत्वपूर्ण मुद्दों के लिए एक मुखर भूमिका निभाने की तैयारी करनी चाहिए.

मुखर्जी ने कहा कि राजनीतिक रूप से संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के अंदर भारत को एशिया के अंदर के और आस-पास के मुद्दों पर विशेष तौर पर सक्रियता दिखानी होगी. यमन और सीरिया जैसे मुद्दे जहां हमारे पास दक्षिण सूडान जैसे आर्थिक निवेश हैं, हम उन्हें हमेशा स्थायी सदस्यों के स्तर से निपटने के लिए नहीं छोड़ सकते.

यह पूछने पर बाइडेन-हैरिस की टीम क्या बहुपक्षीय संगठनों पर अमेरिका का नेतृत्व फिर से पाने के बारे में बात कर पाएगी और ट्रंप के सत्ता में लौटने पर कौन सी चुनौतियां होंगी, योशिता सिंह ने जवाब दिया कि इस बात की संभावना है कि डेमोक्रेट सीनेट और सदन में बहुमत रखेंगे. इसलिए शायद उनके पास संख्या होगी और बिडेन और ह्वाइट हाउस इनमें से बहुत सारे संगठनों और समझौतों में अमेरिका को वापस लाने में सक्षम होगा. वह इस पर ध्यान देंगे.

उन्होंने आगे टिप्पणी करते हुए कहा कि लेकिन अगले दो सालों में संयुक्त राष्ट्र के प्रमुख संगठनों और एजेंसियों में उनके प्रधानों के लिए लगभग 15 चुनाव होने हैं. राष्ट्रपति ट्रंप संयुक्त राष्ट्र संघ के भी बड़े आलोचक रहे हैं, न सिर्फ एजेंसियों के बल्कि पूरे संयुक्त राष्ट्र के भी. इसलिए यदि ट्रंप वापस सत्ता में आते हैं और यदि इन सीटों के लिए अमेरिकी उम्मीदवार नहीं उतारते हैं तो हम चीन जैसे देशों और अन्य को देखेंगे जो संयुक्त राष्ट्र में अपना प्रभाव बढ़ाना चाहते हैं. वे अपने उम्मीदवारों को आगे बढ़ाएंगे जो इन संगठनों के प्रमुख के रूप में पदों पर बैठेंगे. वे ही मामलों की सुनवाई करेंगे और निर्णय लेते हैं. इसलिए अमेरिका को यह समझना होगा कि वह बहुपक्षवाद से बाहर नहीं हो सकता है.

हैदराबाद : पद संभालने के कुछ ही दिनों बाद हमने वाशिंगटन की स्थापित व्यवस्था को आश्चर्च चकित कर दिया और पिछले प्रशासन के काम घातक 'ट्रांस पेसिफिक पार्टनरशिप' से खुद को अलग कर लिया. इसके बाद मैंने कीस्टोन एक्सएल और डकोटा एक्सेस पाइपलाइनों को मंजूरी दे दी. अनुचित और महंगी पेरिस जलवायु समझौते को समाप्त कर दिया और अमेरिका की ऊर्जा स्वतंत्रता को पहली बार सुरक्षित किया. रिपब्लिकन नेशनल कन्वेंशन की अंतिम रात डोनाल्ड ट्रंप ने यह बात कही और राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के रूप में आधिकारिक तौर पर अपना दोबारा नामांकन स्वीकार कर लिया.

ट्रंप ने अपने 71 मिनट चले लंबे भाषण में 'अमेरिका पहले नीति के उदाहरण के रूप में आगे कहा 'मैं ईरान के खौफनाक एकतरफा परमाणु करार से पीछे हट गया.'

ह्वाइट हाउस की दौड़ के बीच दुनिया और अंतरराष्ट्रीय संगठनों के लिए क्या दांव पर लगा है ? बैटलग्राउंड यूएसए 2020 की इस कड़ी में वरिष्ठ पत्रकार स्मिता शर्मा पूछती हैं कि ट्रंप सत्ता में वापस आते हैं तो क्या संयुक्त राज्य अमेरिका अपने ही अंदर और अधिक देखने वाला हो जाएगा और अंतरराष्ट्रीय संगठनों में वैश्विक नेतृत्व की अपनी भूमिका के दायित्व से बचने लगेगा?

अमेरिकी चुनाव पर विशेषज्ञों की राय.

नेतृत्वकर्ता की भूमिका दांव पर

न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र स्थित भारत के पूर्व स्थायी प्रतिनिधि अशोक मुखर्जी ने कहा कि अमेरिका जनवरी 1942 से नेतृत्वकर्ता की जो भूमिका निभाता रहा है वह दांव पर है. वाशिंगटन सम्मेलन से शुरू हुई संयुक्त राष्ट्र बनाने की प्रक्रिया एक बहुत लंबी यात्रा है. इन दशकों में अमेरिका ने नेतृत्वकर्ता की जो भूमिका निभाई है वह पिछले 5-6 वर्षों में कमजोर नहीं हुई तो कम से कम धूमिल जरूर हुई है. इस चुनाव के नतीजों का उस मुख्य मुद्दे पर व्यापक प्रभाव पड़ेगा.

सेवानिवृत्त राजनयिक ने आगे कहा कि यह समझने की जरूरत है कि संस्थानों से हटना एक नकारात्मक पहलू है. 2006 में संयुक्त राष्ट्र की महासभा ने मानवाधिकार परिषद यानी यूएनएचआरसी का गठन किया. जॉन बोल्टन अमेरिकी राजदूत थे और उन्होंने तीन अन्य देशों के साथ इस परिषद के गठन के खिलाफ मतदान किया था, लेकिन यह परिषद 170 देशों के बहुमत से गठित की गई. अब संयुक्त राज्य अमेरिका तीन साल से बाहर बैठा है और यूएनएचआरसी का चुनाव नहीं चाहता. इन तीन वर्षों में मानवाधिकार परिषद ने इजरायल से निपटने के लिए प्रक्रिया समेत अपनी प्रक्रियाएं तय कीं. इसलिए यदि आप इसे राजदूत निक्की हेली के समय से देखें तो उन्होंने इस प्रक्रिया की आलोचना की थी. लेकिन अगर आप प्रक्रियाओं का मसौदा तैयार करते समय कमरे के अंदर नहीं होते हैं तो आप बाहर बैठकर इस बारे में कुछ भी नहीं कर सकते हैं.

अमेरिका कई अंतरराष्ट्रीय समझौतों से हुआ बाहर

डोनाल्ड ट्रंप के शासन में अमेरिका पेरिस जलवायु अधिनियम से लेकर ईरान परमाणु समझौते तक कई अंतरराष्ट्रीय समझौतों से बाहर हो गया है और संयुक्त राष्ट्र की कई एजेंसियों और व्यापार और पर्यावरण से संबंधित बहुपक्षीय करारों के पैसे में कटौती की है या अपने विवादास्पद फैसलों के माध्यम से विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) जैसे अन्य वैश्विक निकायों को कमजोर किया है.

यदि नवंबर में होने जा रहे चुनाव में जो बाइडेन को जीत मिलती है तो क्या उनका प्रशासन इन फैसलों को उलटने में सक्षम होगा और वैश्विक बहुपक्षवाद को मजबूत करने के लिए तैयार होगा ? क्या तब ईरान परमाणु समझौता बिडेन प्रशासन के लिए काम की सूची में वापस आ जाएगा जब ईरान, चीन और रूस के बीच रणनीतिक सहयोग बढ़ गया हो ?

ओबामा प्रशासन तब भी समझौते को जारी रखा था जो ईरान के पक्ष में बहुत अधिक था. यह सबसे पसंदीदा दृश्य नहीं हो सकता लेकिन यह सच है कि ईरान खुद के लिए इस तरह का करार करने में कामयाब रहा है. संयुक्त राष्ट्र के पूर्व तकनीकी सलाहकार डॉ. राजेश्वरी पी. राजगोपालन कहती हैं, 'यदि आप ईरान की परमाणु कार्यक्रम को वापस लेने, निरीक्षण की शर्तों में से प्रत्येक को देखें तो वे प्रत्येक शर्तें ईरान के अनुसार हैं और ईरान को उसकी सौदेबाजी की रणनीति को दिखाती हैं. डॉ. राजगोपालन ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन (ओआरएप) में परमाणु और अंतरिक्ष पहल के प्रमुख और एक प्रतिष्ठित फेलो हैं. उनका मानना है कि अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों या बाधाओं के बावजूद ईरान अपने परमाणु कार्यक्रम को आगे बढ़ा रहा है, जो बिडेन प्रशासन के लिए विशेष रूप से तेहरान पर चीन की छाया के साथ समझौते के बारे में पुनर्विचार करना कठिन बना देगा.

चीन को लेकर बिडेन का रुख कड़ा

वह कहती हैं कि यह टीम बिडेन को बहुत मुश्किल में डालने जा रहा है, क्योंकि बिडेन टीम भी यह साबित करने में जुटी है कि उसका भी चीन को लेकर कठोर रुख है. आप चीन की समस्या और चुनौती से कैसे निपटेंगे. चीन की समस्या पिछले कुछ वर्षों में बढ़ गई है. चीन ने संयुक्त राष्ट्र के कई संगठनों में नेतृत्वकर्ता की भूमिका हथिया ली है या अभी हथिया रहा है. अमेरिका ने चीन से बहुत सारे रणनीतिक स्थानों पर हार मान ली है. बिडेन को अब तय करना होगा कि ईरान-चीन दोनों की मिली हुई शक्तियों का कैसे इंतजाम करेंगे. यहां तक कि ईरान-चीन-रूस सभी एक तरह से एक साथ आ रहे हैं. तीनों ने पिछले साल के अंत में एक नौसैनिक अभ्यास किया था.

न्यूयॉर्क में प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया (पीटीआई) की वरिष्ठ पत्रकार योशिता सिंह से यह पूछने पर कि क्या पेरिस जलवायु अधिनियम से पीछे हटना एक चुनावी मुद्दा है, उन्होंने कहा कि पूरे एशिया में जंगल की आग, बाढ़ की विभीषिका, तूफान सभी का प्रभाव है. यह अब हम सभी के देखने के लिए है. असली जीवन में इसका खामियाजा हम सभी भुगत रहे हैं. अमेरिका जो ऐतिहासिक रूप से सबसे ज्यादा प्रदूषण फैलाने वालों में से एक रहा है और उसका ट्रंप प्रशासन जब छोड़ता है तो फिर इसका हम सभी पर विशेष रूप से समाज के कमजोर तबके, छोटे द्वीपों, विकासशील राष्ट्रों पर अप्रत्य़क्ष प्रभाव पड़ा है.

पेरिस समझौते का एक सप्ताह या एक महीने में फैसला नहीं लिया गया था, बल्कि कई सालों और बहुत सारे प्रयासों के बाद हितधारकों के साथ लेन-देन के बाद यह समझौता हुआ था.

महामारी ने अमेरिका को घुटनों पर ला दिया

उन्होंने आगे कहा कि वोट देते समय लोग जलवायु परिवर्तन को एक बड़े मुद्दे के रूप में नहीं सोचेंगे. इस प्रकार यह समय अर्थव्यवस्था, नौकरियों, विशेष रूप से महामारी में स्वास्थ्य सेवा के बारे में है. अमेरिका दुनिया का सबसे शक्तिशाली देश और दुनिया में आर्थिक रूप से सबसे ज्यादा मजबूत देश हो सकता है. लेकिन महामारी ने वास्तव में इसे अपने घुटनों पर ला दिया है. स्वास्थ्य का बुनियादी ढांचा टुकड़े-टुकड़े होकर कमजोर पड़ गया है. इसलिए वे मुद्दे होंगे.

इस बीच ट्रंप के राष्ट्रपति पद के प्रतिद्वंद्वी जो बाइडेन ने यह स्पष्ट कर दिया है कि यदि वे नवंबर में होने जा रहा चुनाव जीतते हैं तो अमेरिका विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) में फिर से शामिल होगा. डेमोक्रेटिक पार्टी ने अपने राष्ट्रीय अधिवेशन में पहले यह संकल्प लिया था कि अमेरिका डब्ल्यूएचओ को पैसा देने में अग्रणी और तकनीकी भागीदार बना रहेगा. ट्रंप की ओर से शुरू की गई एक वर्ष पहले की प्रक्रिया को इस वर्ष दिसंबर की शुरुआत में सत्ता में संभालने के बाद जो बाइडेन प्रशासन उलट देगा.

इस मुद्दे पर डॉ. राजगोपालन ने कहा कि डब्ल्यूएचओ से खुद को बाहर निकालने वाले अमेरिका के इस कदम का चीन और अन्य देशों के लिए जगह खाली करने जैसा बड़ा अप्रत्यक्ष प्रभाव पड़ा है, लेकिन यह कुछ बहुपक्षीय संगठनों की तत्काल समीक्षा और सुधार की जरूरत को भी दर्शाता है. ऐसा करने की आवश्यकता इस वजह से है ताकि ये संगठन किसी एक शक्ति के हाथ में नहीं आ जाएं. इन संगठनों का कोई एक ही शक्ति अपहरण नहीं कर ले. इन बहुपक्षीय संगठनों का नेतृत्व कोई एक देश हथियाए नहीं ले. भारत के पास इस समय नेतृत्व क्षमता है और अपनी तरह की सोचवाले देशों में से कुछ के साथ साझेदारी करके अपने सहयोगियों के साथ मिलकर काम करने की जिम्मेदारी भी है ताकि तटस्थता, पारदर्शिता, जवाबदेही को बढ़ावा दिया जा सके जिससे ये संस्थान पेशेवर तरीके से काम करें.

फिर से हासिल करनी होगी विश्वसनीयता

अशोक मुखर्जी ने आगे तर्क दिया कि इसका समाधान डब्ल्यूएचओ के भीतर से ही सुधारों और साख को बचाए रखने के दावे के रूप में आना है. कोरोना वायरस का प्रकोप होने पर संगठन पर बीजिंग के प्रति पूर्वाग्रह के गंभीर आरोपों को स्वीकार करते हुए उसे अपनी विश्वसनीयता को फिर से हासिल करनी है. उन्होंने यह भी कहा कि बहुपक्षवाद और अमेरिका के नेतृत्व पर बहस के बीच भारत 2021 में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में निर्वाचित सदस्य के रूप में अपनी सीट लेना चाहता है तो इसे निश्चित तौर महत्वपूर्ण मुद्दों के लिए एक मुखर भूमिका निभाने की तैयारी करनी चाहिए.

मुखर्जी ने कहा कि राजनीतिक रूप से संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के अंदर भारत को एशिया के अंदर के और आस-पास के मुद्दों पर विशेष तौर पर सक्रियता दिखानी होगी. यमन और सीरिया जैसे मुद्दे जहां हमारे पास दक्षिण सूडान जैसे आर्थिक निवेश हैं, हम उन्हें हमेशा स्थायी सदस्यों के स्तर से निपटने के लिए नहीं छोड़ सकते.

यह पूछने पर बाइडेन-हैरिस की टीम क्या बहुपक्षीय संगठनों पर अमेरिका का नेतृत्व फिर से पाने के बारे में बात कर पाएगी और ट्रंप के सत्ता में लौटने पर कौन सी चुनौतियां होंगी, योशिता सिंह ने जवाब दिया कि इस बात की संभावना है कि डेमोक्रेट सीनेट और सदन में बहुमत रखेंगे. इसलिए शायद उनके पास संख्या होगी और बिडेन और ह्वाइट हाउस इनमें से बहुत सारे संगठनों और समझौतों में अमेरिका को वापस लाने में सक्षम होगा. वह इस पर ध्यान देंगे.

उन्होंने आगे टिप्पणी करते हुए कहा कि लेकिन अगले दो सालों में संयुक्त राष्ट्र के प्रमुख संगठनों और एजेंसियों में उनके प्रधानों के लिए लगभग 15 चुनाव होने हैं. राष्ट्रपति ट्रंप संयुक्त राष्ट्र संघ के भी बड़े आलोचक रहे हैं, न सिर्फ एजेंसियों के बल्कि पूरे संयुक्त राष्ट्र के भी. इसलिए यदि ट्रंप वापस सत्ता में आते हैं और यदि इन सीटों के लिए अमेरिकी उम्मीदवार नहीं उतारते हैं तो हम चीन जैसे देशों और अन्य को देखेंगे जो संयुक्त राष्ट्र में अपना प्रभाव बढ़ाना चाहते हैं. वे अपने उम्मीदवारों को आगे बढ़ाएंगे जो इन संगठनों के प्रमुख के रूप में पदों पर बैठेंगे. वे ही मामलों की सुनवाई करेंगे और निर्णय लेते हैं. इसलिए अमेरिका को यह समझना होगा कि वह बहुपक्षवाद से बाहर नहीं हो सकता है.

Last Updated : Aug 30, 2020, 4:37 PM IST
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