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पाकिस्तान से आए शरणार्थियों का बुरा हाल! 7 साल बाद भी अच्छी जिंदगी की दरकार - Majnu Ka tila

कश्मीरी गेट के पास मजनू का टीला में करीब 500 पाकिस्तानी शरणार्थी रहते हैं लेकिन जीने के लिए इनके पास जरूरतों का अभाव पड़ा हुआ है. बीते 7 साल से रह रहे हैं ये शरणार्थी.

शरणार्थी दिवस
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Published : Jun 20, 2019, 7:35 PM IST

Updated : Jun 20, 2019, 11:23 PM IST

नई दिल्ली: 20 जून को विश्व भर में शरणार्थी दिवस के रूप में मनाया जाता है. दिल्ली में कश्मीरी गेट के पास मजनू का टीला में करीब 500 पाकिस्तानी रहते हैं. इनमें से ज्यादातर बीते 6-7 सालों में पाकिस्तान से आकर यहां बसे हैं.
ईटीवी भारत ने यहां के कई लोगों से बातचीत की और समझने की कोशिश की कि क्या कारण रहे कि इन्हें पाकिस्तान से हिंदुस्तान आकर में बसना पड़ा और हिंदुस्तान में बसने के बाद जिंदगी कैसी है.

7 साल बाद भी अच्छी जिंदगी की दरकार

'हिंदू होने के कारण छोड़ना पड़ा पाकिस्तान'
7 साल पहले पाकिस्तान से आकर यहां बसे 67 वर्षीय गोविंदा ने बताया कि अच्छी जिंदगी की उम्मीद लेकर हिंदुस्तान आए थे. जिंदगी तो मिल गई, लेकिन जीने के लिए जरूरतों का अभाव पड़ गया है. गोविंदा का कहना हैं कि इसी हाल में बीते 7 साल से रह रहे हैं. पानी की व्यवस्था नहीं है साथ ही बिजली भी नहीं मिलती है.

ताराचंद की व्यथा भी कुछ ऐसी ही है. उन्होंने बताया कि बंटवारे के बाद पाकिस्तान में हिंदुओं की दशा ज्यादा खराब हो गई थी. हमें कहा जाने लगा कि आप हिंदू हो, आपका मुल्क हिंदुस्तान है, आप हिंदुस्तान जाओ और इसी के चलते एक दिन हम अपना सबकुछ छोड़कर यहां आ गए.

'नागरिकता की दरकार है'
2001 में पाकिस्तानी हिंदुओं का जो पहला जत्था आया था, उसमें सोना दास भी आए थे. उस समय दिल्ली के अलग-अलग इलाकों में ये लोग रहने लगे. लेकिन फिर बाद में सरकार की तरफ से कहा गया कि आप सभी एक जगह पर इकट्ठे बस जाएं. फिर इन्हें मजनू का टीला के पास जगह दी गई. सोना दास यहां रहने वाले सभी लोगों के प्रधान हैं. वे हर जरूरत और काम में इनका नेतृत्व करते हैं. सोना दास ने बताया कि ये लोग यहां पर इज्जत से रहे तो रहे हैं, लेकिन सुविधाओं का पूरा अभाव है. उन्होंने कहा कि बस हमें नागरिकता की दरकार है कि हिंदुस्तान हमें अपना ले.
कुलवंती कहना है कि यह हमारा देश था इसलिए हम यहां पर चले आए. उन्होंने कहा कि हम वहां पर गीता भी पढ़ते थे, रामायण भी पढ़ते थे और यहां भी पढ़ते है. कुलवंती ने बताया कि वहां पर मंगलसूत्र पहनने पर पाबंदी थी, सिंदूर लगाने पर पाबंदी थी, लेकिन यहां पर ऐसा कुछ नहीं है और यहां हम अच्छे से जिंदगी जी रहे हैं.

'उम्मीदों के साथ आए थे भारत'
करीब 6 साल पहले पाकिस्तान से अपने घर वालों के साथ हिंदुस्तान आई दो बहनों वैजयंती माला और ललिता का कहना है कि यहां पर उन्हें स्कूल में एडमिशन नहीं मिल पा रहा है. दोनों बहने पढ़कर कुछ बेहतर करना चाहती हैं, लेकिन नागरिकता की वजह से वह पढ़ाई नहीं कर पा रही हैं. वैजयंती माला कहती है कि वे तो उम्मीदों के साथ भारत आई थीं, लेकिन यहां पर उम्मीदें दम तोड़ती दिख रही हैं.

भविष्य की है चिंता
करीब 120 परिवारों की इस बस्ती में सभी पाकिस्तान से अच्छी जिंदगी के सपने लेकर हिंदुस्तान आए थे कि हिंदुस्तान उन्हें अपना लेगा. जिस हिंदू पहचान ने उन्हें अपने घर, अपनी जमीन और अपनी संपत्ति से बेदखल कर दिया, वहीं हिंदू पहचान शायद भारत में उनकी ताकत बन जाए. लेकिन बीते कुछ सालों में जिस तरह वे एक ही जिंदगी जी रहे हैं जिससे उन्हें डर सता रहा है कि क्या बड़े होते उनके बच्चे भी इसी जिंदगी को जिएंगे.

नई दिल्ली: 20 जून को विश्व भर में शरणार्थी दिवस के रूप में मनाया जाता है. दिल्ली में कश्मीरी गेट के पास मजनू का टीला में करीब 500 पाकिस्तानी रहते हैं. इनमें से ज्यादातर बीते 6-7 सालों में पाकिस्तान से आकर यहां बसे हैं.
ईटीवी भारत ने यहां के कई लोगों से बातचीत की और समझने की कोशिश की कि क्या कारण रहे कि इन्हें पाकिस्तान से हिंदुस्तान आकर में बसना पड़ा और हिंदुस्तान में बसने के बाद जिंदगी कैसी है.

7 साल बाद भी अच्छी जिंदगी की दरकार

'हिंदू होने के कारण छोड़ना पड़ा पाकिस्तान'
7 साल पहले पाकिस्तान से आकर यहां बसे 67 वर्षीय गोविंदा ने बताया कि अच्छी जिंदगी की उम्मीद लेकर हिंदुस्तान आए थे. जिंदगी तो मिल गई, लेकिन जीने के लिए जरूरतों का अभाव पड़ गया है. गोविंदा का कहना हैं कि इसी हाल में बीते 7 साल से रह रहे हैं. पानी की व्यवस्था नहीं है साथ ही बिजली भी नहीं मिलती है.

ताराचंद की व्यथा भी कुछ ऐसी ही है. उन्होंने बताया कि बंटवारे के बाद पाकिस्तान में हिंदुओं की दशा ज्यादा खराब हो गई थी. हमें कहा जाने लगा कि आप हिंदू हो, आपका मुल्क हिंदुस्तान है, आप हिंदुस्तान जाओ और इसी के चलते एक दिन हम अपना सबकुछ छोड़कर यहां आ गए.

'नागरिकता की दरकार है'
2001 में पाकिस्तानी हिंदुओं का जो पहला जत्था आया था, उसमें सोना दास भी आए थे. उस समय दिल्ली के अलग-अलग इलाकों में ये लोग रहने लगे. लेकिन फिर बाद में सरकार की तरफ से कहा गया कि आप सभी एक जगह पर इकट्ठे बस जाएं. फिर इन्हें मजनू का टीला के पास जगह दी गई. सोना दास यहां रहने वाले सभी लोगों के प्रधान हैं. वे हर जरूरत और काम में इनका नेतृत्व करते हैं. सोना दास ने बताया कि ये लोग यहां पर इज्जत से रहे तो रहे हैं, लेकिन सुविधाओं का पूरा अभाव है. उन्होंने कहा कि बस हमें नागरिकता की दरकार है कि हिंदुस्तान हमें अपना ले.
कुलवंती कहना है कि यह हमारा देश था इसलिए हम यहां पर चले आए. उन्होंने कहा कि हम वहां पर गीता भी पढ़ते थे, रामायण भी पढ़ते थे और यहां भी पढ़ते है. कुलवंती ने बताया कि वहां पर मंगलसूत्र पहनने पर पाबंदी थी, सिंदूर लगाने पर पाबंदी थी, लेकिन यहां पर ऐसा कुछ नहीं है और यहां हम अच्छे से जिंदगी जी रहे हैं.

'उम्मीदों के साथ आए थे भारत'
करीब 6 साल पहले पाकिस्तान से अपने घर वालों के साथ हिंदुस्तान आई दो बहनों वैजयंती माला और ललिता का कहना है कि यहां पर उन्हें स्कूल में एडमिशन नहीं मिल पा रहा है. दोनों बहने पढ़कर कुछ बेहतर करना चाहती हैं, लेकिन नागरिकता की वजह से वह पढ़ाई नहीं कर पा रही हैं. वैजयंती माला कहती है कि वे तो उम्मीदों के साथ भारत आई थीं, लेकिन यहां पर उम्मीदें दम तोड़ती दिख रही हैं.

भविष्य की है चिंता
करीब 120 परिवारों की इस बस्ती में सभी पाकिस्तान से अच्छी जिंदगी के सपने लेकर हिंदुस्तान आए थे कि हिंदुस्तान उन्हें अपना लेगा. जिस हिंदू पहचान ने उन्हें अपने घर, अपनी जमीन और अपनी संपत्ति से बेदखल कर दिया, वहीं हिंदू पहचान शायद भारत में उनकी ताकत बन जाए. लेकिन बीते कुछ सालों में जिस तरह वे एक ही जिंदगी जी रहे हैं जिससे उन्हें डर सता रहा है कि क्या बड़े होते उनके बच्चे भी इसी जिंदगी को जिएंगे.

Intro:20 जून को विश्व भर में शरणार्थी दिवस के दिन रूप में मनाया जाता है. इस अवसर पर ईटीवी भारत ने दिल्ली में आकर बसे पाकिस्तानी हिंदू शरणार्थियों की जिंदगी को नजदीक से जानने समझने की कोशिश की.


Body:नई दिल्ली: दिल्ली में कश्मीरी गेट के पास मजनू टीला के बगल में करीब 500 पाकिस्तानी रहते हैं, इनमें से ज्यादातर बीते 6-7 सालों में पाकिस्तान से आकर यहां बसे हैं. टूटी हुई झुग्गियों में रोजमर्रा की जरूरतों के सामानों के अभाव से समझा जा सकता है कि ये यहां कैसी जिंदगी जीने को मजबूर हैं. ईटीवी भारत ने यहां के कई लोगों से बातचीत की और समझने की कोशिश की कि क्या कारण रहे कि इन्हें पाकिस्तान से हिंदुस्तान आकर बसना पड़ा और हिंदुस्तान में बसने के बाद जिंदगी कैसी है.

7 साल पहले पाकिस्तान से आकर यहां बसे 67 वर्षीय गोविंदा बताते हैं कि अच्छी जिंदगी की उम्मीद लेकर हिंदुस्तान आए थे. जिंदगी तो मिल गई, लेकिन जीने की जरूरत अब तक सता रही है. टूटी छप्पर से झांकते आसमान की तरफ इशारा करते हुए वे कहते हैं कि इसी हाल में बीते 7 साल से जी रहे हैं. पानी की व्यवस्था है नहीं, बिजली भी नहीं है. ताराचंद की व्यथा भी कुछ ऐसी ही है. उन्होंने बताया कि बंटवारे के बाद पाकिस्तान में हिंदुओं की दशा को ज्यादा खराब हो गई. हमें कहा जाने लगा कि आप हिंदू हो, आपका मुल्क हिंदुस्तान है, आप हिंदुस्तान जाओ और इसी में एक दिन हम अपना सबकुछ छोड़कर यहां आ गए.

2001 में पाकिस्तानी हिंदुओं का जो पहला जत्था आया था, उसमें सोना दास भी आए थे. उस समय दिल्ली के अलग-अलग इलाकों में ये लोग रहने लगे. लेकिन फिर बाद में सरकार की तरफ से कहा गया कि आप सभी एक जगह पर इकट्ठे बस जाएं. फिर इन्हें मजनूं का टीला के पास जगह दी गई. सोना दास यहां रहने वाले सभी लोगों के प्रधान हैं. वे हर जरूरत या काम में इनका नेतृत्व करते हैं. सोना दास ने बताया कि ये लोग यहां पर इज्जत से रहे तो रहे हैं, लेकिन सुविधाओं का अभी भी पूरा अभाव है. उन्होंने कहा कि बस हमें नागरिकता की दरकार है कि हिंदुस्तान हमें अपना ले.

मिट्टी के चूल्हे पर लकड़ी की आग जला कर रोटी बनाती कुलवंती बुलंद आवाज में कहती हैं कि यह हमारा देश था इसलिए हम यहां पर चले आए. यह पूछने पर कि आप तो पाकिस्तान में जन्मी, हिंदुस्तान को आप इतने हक से अपना देश कैसे मानती हैं, तो उन्होंने कहा कि हम वहां पर गीता भी पढ़ते थे, रामायण भी पढ़ते थे. यह पूछने पर कि हिन्दुस्तान और पाकिस्तान में क्या अंतर दिखा, तो कुलवंती ने बताया कि वहां पर मंगलसूत्र पहनने पर पाबंदी थी, सिंदूर लगाने पर पाबंदी थी, लेकिन यहां पर ऐसा कुछ नहीं है और यहां हम अच्छे से जिंदगी जी रहे हैं.

करीब 6 साल पहले पाकिस्तान से अपने घर वालों के साथ हिंदुस्तान आई दो बहनों वैजयंती माला और ललिता का दर्द यह है यहां पर उन्हें स्कूल में एडमिशन नहीं मिल पा रहा. दोनों बहने पढ़कर कुछ बेहतर करना चाहती हैं, लेकिन नागरिकता उनके सपनों की आड़े आ जाती है. वैजयंती माला कहती है कि वे तो उम्मीदों के साथ भारत आई थीं, लेकिन यहां पर उम्मीदें दम तोड़ती दिख रही हैं.




Conclusion:करीब 120 परिवारों की इस बस्ती में सभी पाकिस्तान से अच्छी जिंदगी के सपने लेकर हिंदुस्तान आए थे कि हिंदुस्तान उन्हें अपना लेगा. जिस हिंदू पहचान ने उन्हें अपने घर, अपनी जमीन और अपनी संपत्ति से बेदखल कर दिया, वहीं हिंदू पहचान शायद भारत में उनकी ताकत बन जाए, लेकिन बीते कुछ सालों में जिस तरह वे एक ही जिंदगी जी रहे हैं, वह आगे भी उन्हें डराता है कि क्या बड़े होते उनके बच्चे भी इसी जिंदगी को प्राप्त होंगे. वर्तमान तो अभावों में गुजर रहा है, लेकिन भविष्य की अभी भी उम्मीदें हैं.
Last Updated : Jun 20, 2019, 11:23 PM IST
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