प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Narendra Modi) और जम्मू-कश्मीर (Jammu and Kashmir) के नेताओं के बीच 24 जून को बैठक होने वाली है. इस बाबत केंद्रीय गृह मंत्रालय (home ministry) द्वारा निमंत्रण भेजा जा चुका है. राज्य में चुनावी प्रक्रिया की शुरुआत होने का अनुमान लगाया जा रहा है. अगस्त 2019 में अनुच्छेद 370 के हटाए जाने के बाद से निश्चित तौर पर यह बहुत बड़ा कदम है.
जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा समाप्त होने के बाद राज्य की प्रमुख राजनीतिक पार्टियों ने पीपुल्स अलांयस फॉर गुपकार डिक्लरेशन (पीएजीडी - PAGD) के जरिए अनुच्छेद 370 (Article 370) को वापस लाने का संकल्प पारित किया है. इन संकल्पों के बावजूद उम्मीद की जा रही है कि इस बैठक में चुनावी प्रक्रिया को लेकर कोई समझौता हो जाए.
केंद्र ने सभी प्रमुख दलों (नेशनल कॉंफ्रेंस, पीपुल्स कॉंफ्रेंस, पीपुल डेमोक्रेटिक पार्टी, सीपीआई (एम), अपनी पार्टी) को बातचीत के लिए बुलाया है. पीएजीडी से हट चुके सज्जाद लोन अपनी पार्टी 'पीसी' का प्रतिनिधित्व करेंगे. 'अपनी पार्टी' का प्रतिनिधित्व अल्ताफ बुखारी करेंगे. वह पीडीपी-भाजपा के गठबंधन वाली सरकार में मंत्री भी थे. स्थानीय स्तर पर उन्हें भाजपा का 'प्रॉक्सी' समझा जाता है.
इस औपचारिक बातचीत की शुरुआत करने से पहले महीनों तक अनौपचारिक बातचीत चलती रही. सरकार के मध्यस्थों ने अलग-अलग स्टेक होल्डरों से बातचीत की. इस बीच जमीनी स्थिति में भी बदलाव आया. बहुत सारे नजरबंद किए गए नेताओं को रिहा कर दिया गया. उम्मीद की जा रही है कि रिहा किए गए नेता उन नेताओं को मनाने में सफल होंगे, जिन्होंने अनुच्छेद 370 को समाप्त करने के बाद कड़ा रूख अपनाया था.
ऐसे ही नेताओं में सरताज मंडी भी हैं. वह महबूबा मुफ्ती के चाचा हैं. पूर्व मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद के समय से ही उनसे बातचीत होती रही है. सज्जाद लोन भी ऐसे ही नेताओं में शामिल हैं. लोन भाजपा के करीबी नेताओं में माने जाते रहे हैं. महबूबा मुफ्ती की सरकार के समय में भी वह काफी करीब थे. दिल्ली के नेता उन्हें काफी पसंद भी करते हैं. वह हुर्रियत के एक गुट का विरोध करते रहे हैं. दिल्ली के लिए गुपकार गठबंधन से अधिक महत्व सज्जाद लोन का है.
अनुच्छेद 370 के समाप्त होने पर एनसी नेता (NC) उमर अब्दुल्ला ने तीखा विरोध किया था. उन्होंने इसे असामान्य बताया था. नजरबंदी से रिहा होने के बाद वह भी पहले की तरह उग्र नहीं लग रहे हैं. रिहा होने के बाद उन्होंने राज्य के विशेष स्थिति की बहाली से ज्यादा 4जी को पुनर्स्थापित करने के लिए लॉबी किया है. वह ऐसे नेता के रूप में जाने जाते हैं जो जमीन से ज्यादा ट्विटर पर नजर आते हैं. 2010 में जब वह मुख्यमंत्री थे, विरोध प्रदर्शन के दौरान कई लोग मारे गए थे, तब भी उनके उदासीन रवैए की खूब आलोचना हुई थी.
हालांकि, उनके ठीक उलट उनके पिता डॉ फारूक अब्दुल्ला (Farooq Abdullah) को साधना दिल्ली के लिए थोड़ा मुश्किल होगा.
बैटक का एजेंडा तय नहीं है. लेकिन सरकार चाहती है कि राजनीतिक गतिविधियां फिर से बहाल हो जाए. इसलिए इस पर चर्चा होगी. जनसांख्यिकी संबंधी, आबादी और राजनीतिक विकल्पों पर अध्ययन करने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है. सभी डिप्टी कमिश्नर से डिलीमिटेशन कमिशन पर रिपोर्ट मांगी गई है. इसके आधार पर ही विधानसभा क्षेत्रों की सीमा निर्धारित की जाएगी.
कमीशन की बैठक फरवरी में हुई थी. फारुक अब्दुल्ला समेत घाटी के सभी सांसदों ने इस बैठक का बहिष्कार किया था. जब तक दिल्ली को यह एहसास नहीं हो गया होगा कि बैठक में जम्मू कश्मीर का राजनीतिक प्रतिनिधित्व भाग लेगा, तब तक बैठक बुलाई ही नहीं जाती. यही कारण है कि महबूबा मुफ्ती ने भी सकारात्मक रुझान दिखाए हैं. हालांकि, उन्होंने बैठक का एजेंडा सार्वजनिक करने की मांग की है.
अलगाववादियों की ओर से भी सबकुछ सामान्य दिखाने की तैयारी की जा रही है ताकि इस बैठक को लेकर विश्वास बढ़े. कुछ नरम अलगाववादियों को रिहा किया जा सकता है. जो कड़ा रूख अपनाते रहे हैं, उन्हें हिरासत में ही रखा जाएगा.
अशरफ शेहरायी और मसरत आलम, ये दो ऐसे नेता थे, जिनसे दिक्कत हो सकती थी. शेहरायी की जेल में ही मौत हो चुकी है. मसरत जेल में बंद है.
गुपकार गठबंधन में भाग लेने वाले दलों ने भी पिछले दो सालों में अपने लिए राजनीतिक जमीन तलाशनी शुरू कर दी है. वे भी अलगाववादियों को पीछे छोड़ देना चाह रहे हैं. कश्मीर पर पाकिस्तान का दृष्टिकोण भी विरोधी जैसा नहीं है. दुबई के एक राजनयिक ने दोनों देशों के बीच सीमा पर सीजफायर के लिए कड़ा प्रयास किया. इसका असर निश्चित तौर पर कश्मीर से जुड़ी गतिविधि पर पड़ेगा.
इसलिए कहा जा सकता है कि पूरी परिस्थिति भारत के पक्ष में है. अब दिल्ली के समझौताकारों को समझौता करने की जरूरत है. लेकिन पूरी प्रक्रिया में कश्मीरी नेतृत्व सबसे अधिक मुश्किल में है. बाहरी तौर पर भले ही यह दिखे कि वे एक हैं, लेकिन अंततः जीत उनके अपने हितों और पार्टी की ही होगी. जिला विकास परिषद के चुनाव के समय भी यही विरोधाभास देखने को मिला. उस समय भी सीट समझौतों को लेकर सहमति नहीं बनी थी.
पूरी कवायद भारत को अंतरराष्ट्रीय प्लेटफॉर्म पर एक बेहतर छवि प्रदान करेगा. खासकर पांच अगस्त 2019 के निर्णय के बाद से जिस तरीके से छवि को धक्का पहुंचा था. कश्मीर को बिना विशेष दर्जा दिए ही बातचीत के जरिए सबकुछ सामान्य बताया जाएगा. यह उस संकल्प को और अधिक मजबूत करेगा कि कश्मीर भारत का अभिन्न हिस्सा है. अगले साल होने वाले यूपी के चुनाव और 2022 के विधानसभा चुनाव में ही भाजपा को फायदा पहुंच सकता है.