हैदराबाद : विशाखापट्टनम स्टील प्लांट सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों के बीच नवरत्न कंपनियों में से एक है. 2002 और 2015 के बीच संयंत्र ने राज्य और केंद्र सरकार दोनों को अलग-अलग तरीकों से 42,000 करोड़ रुपये की आय अर्जित करने में मदद की है. पिछले तीन वर्षों से संयंत्र को हुए नुकसान के पीछे के कारणों को समझना मुश्किल नहीं है. इस बहाने प्लांट का निजीकरण करने का फैसला लोगों के लिए झटका बनकर आया है.
सार्वजनिक हित के नाम पर स्टील प्लांट निर्माण के लिए भूमि अधिग्रहण अधिनियम के तहत सरकार द्वारा लोगों की 22,000 एकड़ से अधिक भूमि का अधिग्रहण किया गया था. किसानों से बहुत सस्ते दाम पर जमीन खरीदी गई. अधिग्रहण के समय किसानों को दी जाने वाली उच्चतम कीमत 20,000 रुपये प्रति एकड़ थी. आज उसी जमीन की कीमत प्रति एकड़ 5 करोड़ रुपये से अधिक हो गई है. इस पृष्ठभूमि में स्टील प्लांट की कीमत दो लाख करोड़ रुपये से अधिक आंकी गई है.
एक लाख लोगों को मिल रहा रोजगार
विशाखापट्टनम स्टील प्लांट (वीएसपी) एक लाख से अधिक लोगों को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार प्रदान कर रहा है. विडंबना यह है कि संयंत्र निर्माण के समय भूमि खाली करने के लिए किए गए कई वादों को पूरा किया जाना अब भी बाकी है. आत्मनिर्भर होने के लिए एक स्टील प्लांट को पर्याप्त रूप से कैप्टिव लोहे के खेतों में तब्दील होना चाहिए.
इस्पात मंत्रालय ने 2013 में घोषणा की थी कि वह खम्मम जिले के बेयाराम लौह अयस्क खदानों को विशाखापट्टनम इस्पात संयंत्र में लगाने के लिए तैयार है. हालांकि घोषणा पर अब तक कोई कार्रवाई नहीं हुई. स्टील प्लांट से होने वाले नुकसान के लिए केंद्र सरकार जिम्मेदार है, क्योंकि प्लांट हर साल 5200 रुपये प्रति टन के खुले बाजार मूल्य पर लौह अयस्क खरीद रहा है. कैप्टिव और रियायती लोहे के बिना, स्टील प्लांट मुनाफा नहीं कमा सकता. भले ही वह निजी ऑपरेटरों द्वारा लिया गया हो.
निजीकरण हर समस्या का हल नहीं
यदि वर्ष 2017 में घोषित राष्ट्रीय इस्पात नीति के उद्देश्यों को प्राप्त किया जाना था तो इस्पात संयंत्र के निजीकरण के प्रस्ताव को अलग रखा जाना चाहिए और संयंत्र की मजबूती के लिए कदम उठाए जाने चाहिए. राष्ट्रीय इस्पात नीति में भारत को पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था में विकसित करने की दिशा में अंतरराष्ट्रीय गुणवत्ता और सुरक्षा मानकों के साथ 30 करोड़ टन स्टील की विनिर्माण क्षमता प्राप्त करने की परिकल्पना की गई है.
भारत माला, सागर माला, जल जीवन मिशन और प्रधानमंत्री आवास योजना जैसी प्रतिष्ठित परियोजनाओं के लिए आपूर्ति का उपयोग करके सार्वजनिक क्षेत्र के स्टील में नई जान फूंकी जा सकती है. लेकिन क्या निजीकरण इस क्षेत्र की सभी समस्याओं का एकमात्र जवाब है?
सरकार के निर्णय से लगा झटका
केंद्र कह रहा है कि उसने नीती अयोग की सिफारिश के आधार पर निजीकरण का सहारा लिया. क्या इस संबंध में पद्मभूषण सारस्वत द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट को माध्यम नहीं बनाया गया है? रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि भारत में स्टील का एक टन उत्पादन करने की वास्तविक लागत 320 से 340 डॉलर है. जबकि कर, उपकर, अतिरिक्त रॉयल्टी दर (जो कि दुनिया में सबसे अधिक है), परिवहन लागत, ब्याज दर, जैसे विभिन्न खर्च हैं. जिससे इसका मूल्य प्रति टन 420 अमेरिकी डॉलर तक पहुंचता है.
मोदी सरकार ने किया था वादा
मोदी सरकार ने मई 2017 में फैसला किया था कि बुनियादी ढांचा विकास के लिए आवश्यक सभी स्टील सार्वजनिक क्षेत्र के इस्पात संयंत्रों से खरीदे जाएंगे. इस तरह का निर्णय लेने के बाद वे इस नवरत्न स्टील प्लांट का निजीकरण कैसे कर सकते हैं? यह आरोप लगाया जाता है कि कैप्टिव लौह अयस्क क्षेत्रों के साथ निजी स्टील प्लांटों ने स्टील की कीमतों में भारी वृद्धि की है. प्रतिस्पर्धा आयोग इन आरोपों की जांच कर रहा है.
जनता को यह फैसला मंजूर नहीं
विशाखापट्टनम स्टील प्लांट एक कामधेनु गाय की तरह है, जिसमें विश्वास का निवेश किया जाना चाहिए. इसकी रक्षा करने के बजाय इसे बेचना राष्ट्रीय हितों के लिए एक बहुत बड़ा झटका होगा. पहले से ही हिंदुस्तान जिंक लिमिटेड के निजीकरण के परिणामों को देखने के बाद तेलुगु लोग विशाखापत्तनम स्टील प्लांट के निजीकरण को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं.