हैदराबाद : यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारत जैसे देश में किसानों को हर कदम पर कड़वे अनुभवों का सामना करना पड़ता है. ऋण हासिल करने से लेकर फसल के उचित दाम मिलने तक, हर स्तर पर उन्हें संघर्ष करना पड़ता है.
हर जिले में प्रशासन द्वारा अनुरोध करने के बावजूद बैंक किसानों को फसल ऋण की सीमा बढ़ाने से हिचकते हैं.
उदाहरण के रूप में तेलंगाना को ही लीजिए. जिले के प्रशासनिक अधिकारियों ने फसल ऋण के लिए प्रति एकड़ 57 हजार रुपये लोन देने की अनुशंसा कर रखी है. इसके बावजूद राज्य स्तर पर बैंक अधिकारियों ने इसकी सीमा 38 हजार तय कर दी है. आंध्र प्रदेश में धान की फसल के लिए यह सीमा महज 23 हजार रुपये ही है.
इसके ठीक उलट बैंक वाले दावा करते हैं कि हर साल फसल ऋण की सीमा वे बढ़ा रहे हैं. समर्थन में वे आंकड़े भी जारी करते हैं. लेकिन ये आंकड़े सिर्फ दिखावे के लिए होते हैं. यह एक छलावा भर है. उन्हें रिजर्व बैंक द्वारा जारी किए गए दिशा-निर्देश की कोई परवाह नहीं है. फसल ऋण को वे बैंक एडजस्टमेंट की तरह दिखाते हैं. अध्ययन रिपोर्ट बताते हैं कि न तो खरीफ और न ही रबी के मौसम में फसल ऋण का लक्ष्य पूरा किया जाता है.
अधिकांश किसान लोन के लिए निजी ऋण प्रदाता पर निर्भर होते हैं. आधिकारिक आंकड़े बताते हैं कि ग्रामीण परिवारों में को-ऑपरेटिव संस्थाओं से ऋण हासिल करने वालों की संख्या घटकर 17 फीसदी तक हो गई है.
सबसे ज्यादा दयनीय स्थिति जमीन जोतने वालों (टिनेंट) की होती है. उन्हें हर कदम पर दिक्कतों का सामना करना पड़ता है. उन्हें सरकारी योजनाओं का भी फायदा नहीं मिलता है. तेलंगाना के मचिरयाल के एक जोतदार ने 30 एकड़ जमीन लीज पर ली थी. लेकिन वह लोन को वापस नहीं चुका सका. बेटी की शादी करनी थी, वह भी नहीं कर सका. उसने आत्महत्या कर ली.
समय पर ऋण देने से किसान अपनी कृषि गतिविधि को आगे बढ़ा सकता है. बैंक वालों की उदासीनता की वजह से किसान निजी धन उधारदाताओं पर निर्भर होते हैं. इस पर रोक लगाने की जरूरत है. किसानों की ऋण योग्यता तभी बढ़ेगी, जब बैंकों का प्रदर्शन और फसल-ऋण संवितरण की नीति पूरी तरह से बदली जाएगी.