हैदराबाद : बीजेपी से कांग्रेस में आए नवजोत सिंह सिद्धू ने साढ़े चार साल में अमरिंदर सिंह का तख्ता पलट दिया. वह खुद भले ही सीएम नहीं बने मगर कांग्रेस जॉइन के 5 साल के भीतर जो साख बनाई, वह कैप्टन पर भारी पड़ी. इससे उलट राजस्थान में पारंपरिक तौर से दबदबा बनाने वाले सचिन पायलट ने मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को चुनौती तो दी मगर उनकी कुर्सी हिला नहीं पाए. जबकि पायलट 17 साल से कांग्रेस के नेता हैं. 2004 में वह 26 साल की उम्र में सांसद बन गए थे. यूपीए-2 के दौरान वह केंद्रीय राज्य मंत्री भी रहे. उनके पिता राजेश पायलट भी गुर्जरों के बड़े नेता शुमार थे. आज भी राजस्थान की गुर्जर बिरादरी सचिन को नेता मानती है.
सवाल यह है कि पार्टी के युवा चेहरे में क्या राजनीतिक कमियां रहीं, जिसने उनका रास्ता रोका. कांग्रेस हाईकमान ने अनुभवी अशोक गहलोत के सामने जोशीले पायलट को तरजीत क्यों नहीं दी ? सचिन पायलट के पुराने साथी ज्योतिरादित्य सिंधिया ने जब मध्यप्रदेश में बगावत की कमान संभाली तब कमलनाथ की सरकार चली गई. ज्योतिरादित्य बीजेपी में गए तो समर्थकों को राज्य सरकार में मंत्री बनवाया और खुद पहले राज्यसभा सदस्य व केंद्रीय कैबिनेट मंत्री बने. राजनीति के इस रेस में सचिन पायलट पीछे छूटते हुए नजर आने लगे.
नवजोत सिंह सिद्धू ने पहले साख बनाई, फिर कुर्सी खिसकाई : दरअसल, नवजोत सिंह सिद्धू, ज्योतिरादित्य सिंधिया और सचिन पायलट के राजनीतिक घटनाक्रम में बड़ा अंतर है. सिद्धू बीजेपी से कांग्रेस में आने के बाद कभी अमरिंदर सिंह से समझौता नहीं किया. वह सरकार के भीतर और बाहर खुले तौर पर कैप्टन का विरोध करते रहे. इससे पहले उन्होंने पार्टी में स्टार प्रचारक से ऊंची हैसियत बनाई. कांग्रेस के आंतरिक सर्वे में यह सामने आया कि नवजोत सिंह सिद्धू की लोकप्रियता बढ़ी है. वह भले ही कांग्रेस को सीट नहीं दिला पाए मगर पार्टी का नुकसान कर सकते हैं. फिर प्रदेश अध्यक्ष के पद आते ही सिद्धू ने अपने समर्थन में 40 विधायक खड़े कर लिए. नतीजतन हाई कमान को नवजोत सिंह सिद्धू की बात माननी पड़ी.
सिंधिया ने कभी शर्तों से समझौता नहीं किया : अब बात ज्योतिरादित्य सिंधिया की. सिंधिया ने भी शुरू से ही मुख्यमंत्री पद के लिए कांग्रेस में अपनी दावेदारी प्रबल रखी. वह उपमुख्यमंत्री जैसे शर्तों से सहमत नहीं हुए. सबसे अधिक कामयाब यह रहा कि उनके समर्थन में 22 विधायक हमेशा लामबंद रहे, जिन्होंने ताकत दिखाने के लिए अपने पद से इस्तीफा दे दिया. इसके अलावा जब बीजेपी की सरकार बनी तो वहां भी उन्होंने अपने समर्थकों के लिए जमकर मोलभाव किया. उन्होंने कमलनाथ सरकार को गिराने का लक्ष्य रखा, बजाय खुद मुख्यमंत्री बनने के. हालांकि कांग्रेस ने उनकी शर्ते नहीं मानी थीं, इसलिए कमलनाथ सरकार की विदाई हो गई.
आधी-अधूरी तैयारी के भंवर में फंसे पायलट : 11 जून 2020 को राजेश पायलट की पुण्यतिथि के मौके पर सचिन पायलट ने बगावत का बिगुल फूंका था. इसके बाद उनके समर्थक विधायक मानेसर ( हरियाणा) के होटल में जमा हो गए थे. एक्सपर्ट मानते हैं कि सचिन पायलट आधे-अधूरी तैयारियों के साथ बगावत का झंडा बुलंद किया, इस कारण वह भंवर में फंस गए. पायलट अपने समर्थन में 24 विधायक जमा नहीं कर सके यानी शक्ति प्रदर्शन में वह अशोक गहलोत के सामने फीके पड़ गए. चुनाव के तुरंत बाद उन्होंने डिप्टी सीएम की गद्दी कबूल कर ली थी, इससे उनके समर्थकों का जोश भी पहले ही ठंडा हो गया था. सूत्रों के अनुसार, उन्होंने बीजेपी की नेता वसुंधरा राजे के साथ तालमेल किया था, मगर शक्ति प्रदर्शन में कमजोर साबित होने पर बीजेपी ने संवाद बंद कर लिया. बयानों से उनका साथ देने वाले भंवर जितेंद्र सिंह भी खामोश हो गए. बाद में कई समर्थक विधायकों जैसे भंवरलाल शर्मा ने पाला बदल लिया.
बगावत के बाद कांग्रेस ने अकेला छोड़ दिया : अपने 10 दिनों की बगावत के बाद जब सचिन की हाईकमान से सुलह हुई तो शीर्ष नेतृत्व ने तीन सदस्यीय कमिटी की सौगात दी. प्रियंका गांधी, लिए केसी वेणुगोपाल और अहमद पटेल वाली समिति ऐसा बॉक्स था, जिसमें सिर्फ सांत्वना वाला गिफ्ट था. केंद्रीय नेतृत्व ने उन्हें बीजेपी के साथ मिलकर राजस्थान की गहलोत सरकार गिराने की साजिश रचने का जिम्मेदार ठहरा दिया. तब रणदीप सुरजेवाला ने कहा कि सचिन 26 की उम्र में सांसद, 32 की उम्र में केंद्रीय मंत्री, 34 की उम्र में प्रदेश अध्यक्ष और 40 की उम्र में उपमुख्यमंत्री बनाए गए. इसके बाद भी उन्होंने अपनी महत्वकांक्षा के लिए सरकार को दांव पर लगा दिया. इसके बाद से वह सोनिया गांधी और राहुल की गुड बुक से भी निकाल दिए गए. डिप्टी सीएम और प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी भी गंवानी पड़ी.
अशोक गहलोत के अनुभव के सामने फीका पड़ गया दांव : राजस्थान में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत गांधी परिवार के करीबियों में से है. गहलोत वहीं नेता है , जिन्होंने पने राजनीतिक जीवन के 40 साल के तजुर्बे के सहारे पार्टी को कई बार सियासी संकट से बाहर निकाला. वह राहुल गांधी की राजनीतिक पारी की शुरुआत के दौरान मेंटर भी बने. उनकी सलाह पर ही प्रियंका गांधी ने सक्रिय राजनीति में एंट्री ली. उनकी राजनीति का लोहा विरोधी भी मानते हैं. जब वह पंजाब प्रभारी बने तो वहां कांग्रेस ने सरकार बनाई. गुजरात का प्रभारी महासचिव बनने पर गहलोत ने कुछ ही समय में गुजरात में कांग्रेस को मुकाबले में ला दिया था. राज्यसभा चुनाव में अहमद पटेल की लगभग हारी हुई बाजी को गहलोत की रणनीति ने जीत में बदली. कुल मिलाकर गहलोत के कद के सामने सचिन का दांव नहीं चला.