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कहां है अध्यक्ष के पद की गरिमा? - संसदीय लोकतंत्र में अध्यक्ष पद की गरिमा

आज के समय में लोकतंत्र को बढ़ावा देने में अध्यक्षों का महत्वपूर्ण योगदान है. इसी सिलसिले में लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने कहा कि ऐसा पहली बार हुआ है जब शून्यकाल में पहली बार सभी प्रश्नों के उत्तर दिए गए.

solemnity of the speakers
लोकतंत्र को बढ़ावा देने में अध्यक्ष की महत्वपूर्ण भूमिका
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Published : Dec 2, 2020, 8:27 AM IST

हैदराबाद: संसदीय लोकतंत्र में विधानसभा या संसद के स्पीकर यानी अध्यक्ष का पद वह होता है जो मूल्यों की रक्षा करते और परंपराओं को कायम रखते हुए असहमति की बहस के मंच को वैधता प्रदान करता है. यह लोकतंत्र को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले अध्यक्षों के सम्मेलन का शताब्दी का मौका है.

पहली बार दिए गए शून्यकाल के सभी प्रश्नों के उत्तर

कोविड के कारण रोक के बावजूद देश का एकीकरण करने वाले सरदार वल्लभभाई पटेल की प्रतिमा ‘स्टैच्यू ऑफ यूनिटी’ की भावना से प्रेरित संविधान दिवस समारोह से जुड़ा 80वां सम्मेलन संपन्न हुआ. हालांकि, विधानमंडलों में बहस जनता की आकांक्षाओं को दर्शाती है लेकिन दशकों से सदनों की कार्यवाही के सुचारू ढंग से संचालन को लेकर एक बड़ा सवालिया निशान लगा हुआ है. लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने देहरादून में एक बैठक में उल्लेख किया कि 1972 के बाद ऐसा पहली बार हुआ कि संसद के शीतकालीन सत्र (27 नवंबर ) के दौरान शून्यकाल में सभी 20 सवालों के जवाब दिए गए.

बनाए रखना चाहिए संवैधानिक मूल्य

दल-बदल कानून को प्रतिष्ठापित करने वाली संविधान की दसवीं अनुसूची के साथ अध्यक्षों की शक्ति को लेकर पिछले साल नियुक्त समिति की रिपोर्ट में कहा गया है कि विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच 'सौहार्दपूर्ण सहयोग' इस वर्ष की चर्चा का मुख्य विषय होगा. किसी को इस बात से इनकार नहीं है कि अध्यक्षों को संकल्प लेना चाहिए कि वे संवैधानिक मूल्यों को बनाए रखने के लिए विधानसभाओं को मजबूत और सशक्त बनाते हुए उन्हें अधिक जवाबदेह बनाने का प्रयास करेंगे.

देश की स्वतंत्रता और मर्यादा का प्रतीक है अध्यक्ष पद

केवाईसी की नई व्याख्या 'अपने संविधान को जानें' के रूप में करते हुए प्रधानमंत्री ने सभी से आग्रह किया है कि संविधान पवित्र पुस्तक है जिसे लोगों के करीब लाएं. इसमें कोई संदेह नहीं है कि यदि विधायिका के सदस्य और अध्यक्ष संवैधानिक नियमों के प्रति वचनबद्ध हैं तो अधिकांश समस्याएं खुद ब खुद गायब हो जाएंगी. मौजूदा चुनौती अध्यक्ष के पद को संवैधानिक प्रेरणा का प्रतीक बनाने की है! ‘अध्यक्ष सदन की स्वतंत्रता और उसके उच्च आदर्शों का प्रतिनिधित्व करता है. चूँकि सदन देश का प्रतिनिधित्व करता है. इस लिहाज से अध्यक्ष देश की स्वतंत्रता और मर्यादा का प्रतीक है. इसलिए, उस पद को हर हाल में गरिमापूर्ण बनाया जाना चाहिए.’

नहीं करनी चाहिए प्रतिस्पर्धा

ये टिप्पणी 1948 में विट्ठल भाई पटेल के चित्र का अनावरण करते हुए देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने की थी. 1925 में लेजिस्लेटिव असेंबली के अध्यक्ष पद के लिए चुने गए विट्ठल भाई ने ब्रिटिश हाउस ऑफ कॉमन्स परंपरा के तहत स्वराज पार्टी से इस्तीफा दे दिया था. बाद में चुने गए अध्यक्षों में से भी कई ने उसी परंपरा का पालन करते हुए मानकों को ऊंचा उठाया. पहले अध्यक्ष मावलंकर आनंदे ने स्पष्ट किया कि एक बार किसी व्यक्ति को अध्यक्ष चुने जाने के बाद यह तथ्य ध्यान में रखना चाहिए कि निष्पक्षता बनाए रखने के लिए किसी भी पार्टी को उसे समर्थन देने के लिए तब तक प्रतिस्पर्धा नहीं करनी चाहिए जब तक कि वह पद पर बने रहना चाहता है.

राजनीतिक गतिविधियों से रहना चाहिए दूर

ब्रिटेन में पारंपरिक रूप से ऐसा ही होता है. हालांकि, 1951 और '53 के अध्यक्ष सम्मेलनों ने ब्रिटिश परंपरा का पालन करने की सिफारिश की, लेकिन 1954 की कांग्रेस कार्यसमिति ने उन प्रस्तावों को अस्वीकार कर दिया. 1967 में अध्यक्षों के सम्मेलन में गठित वीएस पेज समिति ने सिफारिश की कि अध्यक्ष जिस पार्टी का प्रतिनिधित्व करते हैं उससे उन्हें सभी संबंध तोड़ लेना चाहिए. 2001 के सम्मेलन ने सिफारिश की कि वक्ताओं को अपनी ‘तटस्थता’ बनाए रखनी चाहिए और राजनीतिक गतिविधि से दूर रहना चाहिए.

पढ़ें: 17वीं लोकसभा अभी से इतिहास में दर्ज : प्रधानमंत्री मोदी

संविधान के आदर्शों को रखना चाहिए बरकरार

झारखंड के अध्यक्ष के रूप में नामधारी 2003 में दलबदलुओं के नेता बन गए और मुख्यमंत्री पद की दौड़ में आगे बढ़ने के लिए जमकर अपने संवैधानिक पद का इस्तेमाल किया. अध्यक्षों की निर्णय लेने की शक्ति पर राजनीतिक संबद्धता के कारण प्रभाव पड़ रहा है और इस महत्वपूर्ण संवैधानिक पद की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंच रहा है. सम्मेलन ने अब तक करीब 25 समितियों का गठन किया है और रिपोर्ट पाई है, उनमें से कितने को लागू किया गया है? अध्यक्ष के पद की प्रतिष्ठा तभी बढ़ेगी जब वह संविधान के आदर्शों को बरकरार रखे!

हैदराबाद: संसदीय लोकतंत्र में विधानसभा या संसद के स्पीकर यानी अध्यक्ष का पद वह होता है जो मूल्यों की रक्षा करते और परंपराओं को कायम रखते हुए असहमति की बहस के मंच को वैधता प्रदान करता है. यह लोकतंत्र को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले अध्यक्षों के सम्मेलन का शताब्दी का मौका है.

पहली बार दिए गए शून्यकाल के सभी प्रश्नों के उत्तर

कोविड के कारण रोक के बावजूद देश का एकीकरण करने वाले सरदार वल्लभभाई पटेल की प्रतिमा ‘स्टैच्यू ऑफ यूनिटी’ की भावना से प्रेरित संविधान दिवस समारोह से जुड़ा 80वां सम्मेलन संपन्न हुआ. हालांकि, विधानमंडलों में बहस जनता की आकांक्षाओं को दर्शाती है लेकिन दशकों से सदनों की कार्यवाही के सुचारू ढंग से संचालन को लेकर एक बड़ा सवालिया निशान लगा हुआ है. लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने देहरादून में एक बैठक में उल्लेख किया कि 1972 के बाद ऐसा पहली बार हुआ कि संसद के शीतकालीन सत्र (27 नवंबर ) के दौरान शून्यकाल में सभी 20 सवालों के जवाब दिए गए.

बनाए रखना चाहिए संवैधानिक मूल्य

दल-बदल कानून को प्रतिष्ठापित करने वाली संविधान की दसवीं अनुसूची के साथ अध्यक्षों की शक्ति को लेकर पिछले साल नियुक्त समिति की रिपोर्ट में कहा गया है कि विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच 'सौहार्दपूर्ण सहयोग' इस वर्ष की चर्चा का मुख्य विषय होगा. किसी को इस बात से इनकार नहीं है कि अध्यक्षों को संकल्प लेना चाहिए कि वे संवैधानिक मूल्यों को बनाए रखने के लिए विधानसभाओं को मजबूत और सशक्त बनाते हुए उन्हें अधिक जवाबदेह बनाने का प्रयास करेंगे.

देश की स्वतंत्रता और मर्यादा का प्रतीक है अध्यक्ष पद

केवाईसी की नई व्याख्या 'अपने संविधान को जानें' के रूप में करते हुए प्रधानमंत्री ने सभी से आग्रह किया है कि संविधान पवित्र पुस्तक है जिसे लोगों के करीब लाएं. इसमें कोई संदेह नहीं है कि यदि विधायिका के सदस्य और अध्यक्ष संवैधानिक नियमों के प्रति वचनबद्ध हैं तो अधिकांश समस्याएं खुद ब खुद गायब हो जाएंगी. मौजूदा चुनौती अध्यक्ष के पद को संवैधानिक प्रेरणा का प्रतीक बनाने की है! ‘अध्यक्ष सदन की स्वतंत्रता और उसके उच्च आदर्शों का प्रतिनिधित्व करता है. चूँकि सदन देश का प्रतिनिधित्व करता है. इस लिहाज से अध्यक्ष देश की स्वतंत्रता और मर्यादा का प्रतीक है. इसलिए, उस पद को हर हाल में गरिमापूर्ण बनाया जाना चाहिए.’

नहीं करनी चाहिए प्रतिस्पर्धा

ये टिप्पणी 1948 में विट्ठल भाई पटेल के चित्र का अनावरण करते हुए देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने की थी. 1925 में लेजिस्लेटिव असेंबली के अध्यक्ष पद के लिए चुने गए विट्ठल भाई ने ब्रिटिश हाउस ऑफ कॉमन्स परंपरा के तहत स्वराज पार्टी से इस्तीफा दे दिया था. बाद में चुने गए अध्यक्षों में से भी कई ने उसी परंपरा का पालन करते हुए मानकों को ऊंचा उठाया. पहले अध्यक्ष मावलंकर आनंदे ने स्पष्ट किया कि एक बार किसी व्यक्ति को अध्यक्ष चुने जाने के बाद यह तथ्य ध्यान में रखना चाहिए कि निष्पक्षता बनाए रखने के लिए किसी भी पार्टी को उसे समर्थन देने के लिए तब तक प्रतिस्पर्धा नहीं करनी चाहिए जब तक कि वह पद पर बने रहना चाहता है.

राजनीतिक गतिविधियों से रहना चाहिए दूर

ब्रिटेन में पारंपरिक रूप से ऐसा ही होता है. हालांकि, 1951 और '53 के अध्यक्ष सम्मेलनों ने ब्रिटिश परंपरा का पालन करने की सिफारिश की, लेकिन 1954 की कांग्रेस कार्यसमिति ने उन प्रस्तावों को अस्वीकार कर दिया. 1967 में अध्यक्षों के सम्मेलन में गठित वीएस पेज समिति ने सिफारिश की कि अध्यक्ष जिस पार्टी का प्रतिनिधित्व करते हैं उससे उन्हें सभी संबंध तोड़ लेना चाहिए. 2001 के सम्मेलन ने सिफारिश की कि वक्ताओं को अपनी ‘तटस्थता’ बनाए रखनी चाहिए और राजनीतिक गतिविधि से दूर रहना चाहिए.

पढ़ें: 17वीं लोकसभा अभी से इतिहास में दर्ज : प्रधानमंत्री मोदी

संविधान के आदर्शों को रखना चाहिए बरकरार

झारखंड के अध्यक्ष के रूप में नामधारी 2003 में दलबदलुओं के नेता बन गए और मुख्यमंत्री पद की दौड़ में आगे बढ़ने के लिए जमकर अपने संवैधानिक पद का इस्तेमाल किया. अध्यक्षों की निर्णय लेने की शक्ति पर राजनीतिक संबद्धता के कारण प्रभाव पड़ रहा है और इस महत्वपूर्ण संवैधानिक पद की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंच रहा है. सम्मेलन ने अब तक करीब 25 समितियों का गठन किया है और रिपोर्ट पाई है, उनमें से कितने को लागू किया गया है? अध्यक्ष के पद की प्रतिष्ठा तभी बढ़ेगी जब वह संविधान के आदर्शों को बरकरार रखे!

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