नई दिल्ली : अफगानिस्तान में तालिबान के दोबारा सत्ता में लौटने पर वहां वीजा पाने के लिए लंबी-लंबी कतारें लगने लगी थीं. उनमें से अधिकांश लोग वीजा लेकर देश से बाहर निकलना चाहते थे. वे अमेरिका या यूरोप की ओर जाना चाहते थे. उनकी प्राथमिकता में भारत शामिल नहीं था. वे भारत इसलिए आना चाहते थे, कि वे यहां से दूसरे देशों का रूख कर सकें. इसके बावजूद उस समय नई दिल्ली ने 10 दिन बाद ही सभी वीजा को रद्द कर दिया था. 15 अगस्त 2021 को अब्दुल घनी की सरकार की विदाई हो चुकी थी.
अब तालिबान के सत्ता में आने के बाद वहां की स्थिति लगातार खराब होती चली गई. महिलाओं पर तरह-तरह के प्रतिबंध लागू कर दिए गए हैं. दूसरी ओर भारत में एक ऐसा कानून लाया गया है, जिसके तहत पड़ोसी देशों से सताए जा रहे गैर-मुस्लिमों को नागरिकता देने का प्रावधान है.
यह आश्चर्य का विषय था कि भारत ने उन समर्थकों के भी वीजा आवेदन रद्द कर दिए, जो यहां आना चाहते थे. इनमें से कई ऐसे भी थे, जिन्होंने समय-समय पर न सिर्फ भारत का साथ दिया था, बल्कि पाकिस्तान के खिलाफ भी काम करते थे. इसकी वजह सीएए है, क्योंकि इस कानून में वहां के मुस्लिमों को नागरिकता देने का प्रावधान नहीं है.
बहुत सारे लोगों ने कहा भी कि हमारे दोस्त ने हमसे मुंह मोड़ लिया है. तब से लेकर आजतक, अफगानिस्तान की ओर से वीजा के लिए कई आवेदन आए, लेकिन किसी न किसी कारणवश उनके आवेदन को मंजूरी नहीं दी गई. कुछेक अपवादों को छोड़ दें, तो यह अलग है. जैसे मेडिकल कारण. कई बार तो उच्च पद पर बैठे व्यक्तियों को भी एयरपोर्ट से लौटा दिया गया.
अब सवाल ये है कि क्या भारत के लिए यह रणनीति ठीक है. कुछ लोगों को मानना है कि भारत ने पाकिस्तान को संदेश देने की कोशिश की है कि उसका अफगानिस्तान में कोई हित नहीं है या फिर उसका इंटेरेस्ट नहीं है, इसलिए पाकिस्तान भी कश्मीर मामले में हस्तक्षेप नहीं करे. कुछ विशेषज्ञों का दावा है कि भारत और पाकिस्तान के बीच ट्रैक-2 डिप्लोमेसी का ही यह हिस्सा है. यही वजह है कि भारत ने अफगानिस्तान के जलालाबाद कंसुलेट को बंद कर दिया.
ऊपर से पाकिस्तान में एक ऐसी खबर छपी, जिसमें यह दावा किया गया है कि पीएम मोदी इमरान खान से मिलने के लिए पाकिस्तान जाने वाले थे. दावा तो यह भी किया गया कि वह नौ दिनों के लिए वहां जाने वाले थे. पर, इस्लामाबाद ने अंतिम क्षणों में अपने पैर खींच लिए. वैसे, इस दावे की किसी ने पुष्टि नहीं की. सूत्र बताते हैं कि भारत ने पाकिस्तान को कश्मीर पर कोई आश्वासन नहीं दिया, इसलिए पाकिस्तान पीछे हट गया. सूत्र बताते हैं कि पाकिस्तान कश्मीर की स्टेटहुड की वापसी का आश्वासन चाहता था.
यह अभी तक साफ नहीं है कि किसने इन मामलों में पहल की थी. पर, जो कुछ हुआ, अफगानिस्तान में रहने वाले लोगों के लिए तो यह शुभ संकेत नहीं है. क्योंकि तालिबान ने अफगानिस्तान को फिर से पीछे धकेल दिया है. विकास के सारे कार्य ठप हो चुके हैं. वे फिर से प्राचीन युग में चले जा रहे हैं. तालिबान महिलाओं को सिर्फ बच्चे पैदा करने की मशीन मानता है. वह मानता है कि औरतों का दैहिक शोषण किया जाना चाहिए, जबकि तालिबान से पहले वहां पर महिलाएं सेना तक में शामिल हो गईं थीं.
इस पूरी घटना के लिए कोई भी अमेरिका को जिम्मेदार नहीं मानता है. जबकि हकीकत ये है कि अमेरिका ने ही तालिबान को अफगानिस्तान सौंप दिया. वहां के इस्लामिक समूहों के बीच अब भी अमेरिका की पैठ है. लंबे समय तक अमेरिका और तालिबान के बीच चर्चा चलती रही, लेकिन अमेरिका ने महिलाओं के लिए कोई भी निर्णय नहीं लिया. अगर अमेरिका इन मामलों में थोड़ी सख्ती बरतता, तो वे वहां पर बहुदलीय प्रजातांत्रिक व्यवस्था को लागू करवा सकता था, महिलाओं की स्थिति बेहतर हो सकती थी.
अफगानिस्तान की आर्थिक स्थिति खराब होती जा रही है. विचित्र तो ये है कि और कोई नहीं, बल्कि अमेरिका ने उनके फंड पर रोक लगा रखा है. कुछ तो ये भी मानते हैं कि तालिबान महिलाओं को और अधिक इसलिए सता रहा है ताकि वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ध्यान आकर्षित कर सके और उसे फंड मिले. दूसरी ओर अमेरिका और यूरोपीय देशों का मुख्य फोकस अभी यूक्रेन-रूस युद्ध पर केंद्रित है. इसलिए तालिबान कुछ नहीं कर पा रहा है. वह और अधिक दबाव में है. उधर पाकिस्तान की भी आर्थिक स्थिति इतनी दयनीय है कि वह तालिबान को किया गया वादा पूरा नहीं कर पा रहा है.
भारत चाहे तो पाकिस्तान और तालिबान दोनों की मदद कर सकता है. लेकिन कई कारणों से वह ऐसा करेगा नहीं. पाकिस्तान को लेकर भारत की स्थिति बहुत साफ है, उसे हर हाल में आतंकी संगठनों का साथ छोड़ना होगा. अफगानिस्तान को लेकर भारत पशोपेश में है. हालांकि, हाल ही में उसने काबुल में दूतावास खोला है. लेकिन वह वहां पर कोई काम नहीं कर रहा है. क्योंकि अगर कुछ करता तो वह अफगानिस्तान से निकलने का सपना संजोने वाली लड़कियों को राहत जरूर मिलती. भारत की सिर्फ एक कार्रवाई से तालिबान की एंटी वुमन नीति को करारा झटका लगता. 2018 में 3.8 मिलियन लड़कियों ने स्कूल ज्वाइन किया था, लेकिन अब वे फिर से अंधेरे में जीने के लिए अभिश्प्त हैं, पर दूसरे देशों पर इससे क्या फर्क पड़ेगा ?
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