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जन्मदिन विशेष : तेलंगाना के पोचमपल्ली से शुरू हुआ था भूदान, 13 लाख एकड़ जमीन हो गयी थी गरीबों के नाम

वह एक धर्मगुरु के साथ-साथ एक समाज सुधारक और स्वतंत्रता सेनानी भी थे. सारा देश उनके भूदान आंदोलन के लिए उनको याद करता है. विनोबा भावे गांधी जी के पहले और जवाहरलाल नेहरू दूसरे ‘व्‍यक्तिगत सत्‍याग्रही’ कहे जाते हैं.

Vinoba Bhave Birthday Special Bhoodan Movement
आचार्य विनोबा भावे
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Published : Sep 10, 2022, 5:39 PM IST

नई दिल्ली : अहिंसा और सद्भावना को अपने जीवन का मूलमंत्र मानने वाले आचार्य विनोबा भावे का जन्म 11 सितंबर 1895 को नासिक, महाराष्ट्र के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था. इनका वास्तविक नाम विनायक नरहरि भावे था. विनोबा भावे को महात्मा गांधी के उत्तराधिकारी के रूप में भी जाना जाता है. आचार्य विनोबा भावे महात्मा गांधी के अनुयायी थे. वह एक धर्मगुरु के साथ-साथ एक समाज सुधारक और स्वतंत्रता सेनानी भी थे. सारा देश उनके भूदान आंदोलन के लिए उनको याद करता है. विनोबा भावे गांधी जी के पहले और जवाहरलाल नेहरू दूसरे ‘व्‍यक्तिगत सत्‍याग्रही’ कहे जाते हैं.

ऐसा कहा जाता है कि छोटी सी उम्र में ही विनोबा भावे ने रामायण, महाभारत और भागवत गीता का अध्ययन कर लिया था. विचारों को उनकी माता ने बहुत ज्यादा प्रभावित किया था. विनोबा भावे का कहना था कि उनकी मानसिकता और जीवनशैली को सही दिशा देने और उन्हें अध्यात्म की ओर प्रेरित करने में उनकी मां का ही योगदान है. विनोबा भावे गणित के बहुत बड़े विद्वान थे. लेकिन ऐसा माना जाता है कि 1916 में जब वह अपनी दसवीं की परीक्षा के लिए मुंबई जा रहे थे तो उन्होंने महात्मा गांधी का एक लेख पढ़कर शिक्षा से संबंधित अपने सभी दस्तावेजों को आग के हवाले कर दिया था.

आचार्य विनोबा भावे महात्मा गांधी के अनुयायी थे. वह एक धर्मगुरु के साथ-साथ एक समाज सुधारक और स्वतंत्रता सेनानी भी थे. वह गांधीजी की तरह ही अहिंसा के पुजारी थे. उन्होंने अहिंसा और समानता के सिद्धांत पर हमेशा पालन करते हुए अपना जीवन गरीबों और दबे-कुचले वर्ग के लिए लड़ने को समर्पित कर दिया. वह उन लोगों के अधिकारों के लिए खड़े हुए तो भूदान आंदोलन जैसे एक बड़े आन्दोलन ने जन्म लिया और आज लोग इनको इसी आन्दोलन के लिए सबसे ज्यादा याद करते हैं. सामुदायिक नेतृत्व के लिए 1958 में अंतरराष्ट्रीय रमन मैग्सायसाय पुरस्कार पाने वाले वह पहले व्यक्ति थे. इसके बाद 1983 में मरणोपरांत उनको देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से भी सम्मानित किया गया.

कहा जाता है कि छात्र जीवन में विनोबा को गणित में काफी रुचि थी. काफी कम उम्र में ही भगवद्गीता के अध्ययन के बाद उनके अंदर अध्यात्म की ओर रुझान पैदा हुआ. इसके बाद उन्होंने सामाजिक जीवन को त्याग कर हिमालय में जाकर संत बनने का फैसला कर लिया था. बाद में उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने के बाद वह देश के कोने-कोने की यात्रा करनी शुरू कर दी. इस दौरान वह क्षेत्रीय भाषा सीखते जाते और साथ ही शास्त्रों एवं संस्कृत का ज्ञान भी हासिल करते रहे.

बनारस में बदला जीवन
कहा जाता है कि इसी दौरान वह बनारस जैसे पवित्र शहर में जा पहुंचे. वहां उनको गांधीजी का वह भाषण मिल जाता है, जो उन्होंने बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में दिया था. इसके बाद उनकी जिंदगी में बहुत बड़ा बदलाव आता है. 1916 में जब वह इंटरमीडिएट की परीक्षा मुंबई देने जा रहे थे तो उन्होंने रास्ते में अपने स्कूल और कॉलेज के सभी सर्टिफिकेट जला दिए थे. फिर उन्होंने गांधीजी से पत्र के माध्यम से संपर्क किया. 20 साल के युवक से गांधीजी काफी प्रभावित हुए और उनको अहमदाबाद स्थित अपने कोचराब आश्रम में आमंत्रित किया. 7 जून, 1916 को विनोबा भावे ने गांधीजी से भेंट की और आश्रम में रहने लगे.

कहा जाता है कि विनोबा आश्रम की सभी तरह की गतिविधियों में हिस्सा लिया और साधारण जीवन जीने लगे. इस तरह उन्होंने अपना जीवन गांधी के विभिन्न कार्यक्रमों को समर्पित कर दिया. विनोबा नाम उनको आश्रम के अन्य सदस्य मामा फाड़के ने दिया था. दरअसल मराठी में विनोबा शब्द किसी को काफी सम्मान देने के लिए बोला जाता है. साल 1940 तक तो विनोबा भावे को सिर्फ वही लोग जानते थे, जो उनके इर्द-गिर्द रहते थे. लेकिन 5 अक्टूबर, 1940 को महात्मा गांधी ने उनका परिचय राष्ट्र से कराया. गांधीजी ने एक बयान जारी किया और उनको पहला सत्याग्रही बताते हुए उनको राष्ट्रीय स्तर का आंदोलनकारी बना दिया.

भूदान आंदोलन (Bhoodan Movement)
साल 1951 में वह आंध्र प्रदेश (अब तेलंगाना) के हिंसाग्रत क्षेत्र की यात्रा पर थे. 18 अप्रैल, 1951 को पोचमपल्ली गांव के हरिजनों ने उनसे भेंट की तो उनलोगों ने विनोबा भावे से करीब 80 एकड़ भूमि उपलब्ध कराने का आग्रह किया, ताकि वे लोग अपना जीवन-यापन कर सकें. विनोबा भावे ने गांव के जमीनदारों से आगे बढ़कर अपनी जमीन दान करने और हरिजनों को बचाने की अपील की. उनकी अपील का असर एक जमींदारों पर हुआ और सबने अपनी जमीन दान देने का प्रस्ताव रखा. इस घटना से भारत के त्याग और अहिंसा के इतिहास में एक नया अध्याय जुड़ गया. यहीं से आचार्य विनोबा भावे का भूदान आंदोलन शुरू हो गया. यह आंदोलन 13 सालों तक चलता रहा. इस दौरान विनोबा ने देश के कोने-कोने का भ्रमण किया. उन्होंने करीब 58,741 किलोमीटर सफर तय किया. इस आंदोलन के माध्यम से वह गरीबों के लिए 44 लाख एकड़ भूमि दान के रूप में हासिल करने में सफल रहे. उन जमीनों में से 13 लाख एकड़ जमीन को भूमिहीन किसानों के बीच बांट दिया गया. विनोबा भावे के इस आंदोलन की न सिर्फ भारत बल्कि विश्व में भी काफी प्रशंसा हुई.

कहा जाता है कि मराठी, तेलुगु, गुजराती, कन्नड़, हिंदी, उर्दू, इंग्लिश और संस्कृत समेत कई भाषाओं पर उनकी पकड़ थी. उन्होंने संस्कृत में लिखे कई शास्त्रों का सामान्य भाषा में अनुवाद किया और लोगों को समझाने की कोशिश की. नवंबर 1982 में वह गंभीर रूप से बीमार पड़ गए और उन्होंने अपने जीवन को त्यागने का फैसला लिया. उन्होंने अपने अंतिम दिनों में खाना या दवा लेने से इनकार कर दिया था. आखिरकार 15 नवंबर, 1982 को देश के एक महान समाज सुधारक हमारी दुनिया से हमेशा हमेशा के लिए चल गया।

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नई दिल्ली : अहिंसा और सद्भावना को अपने जीवन का मूलमंत्र मानने वाले आचार्य विनोबा भावे का जन्म 11 सितंबर 1895 को नासिक, महाराष्ट्र के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था. इनका वास्तविक नाम विनायक नरहरि भावे था. विनोबा भावे को महात्मा गांधी के उत्तराधिकारी के रूप में भी जाना जाता है. आचार्य विनोबा भावे महात्मा गांधी के अनुयायी थे. वह एक धर्मगुरु के साथ-साथ एक समाज सुधारक और स्वतंत्रता सेनानी भी थे. सारा देश उनके भूदान आंदोलन के लिए उनको याद करता है. विनोबा भावे गांधी जी के पहले और जवाहरलाल नेहरू दूसरे ‘व्‍यक्तिगत सत्‍याग्रही’ कहे जाते हैं.

ऐसा कहा जाता है कि छोटी सी उम्र में ही विनोबा भावे ने रामायण, महाभारत और भागवत गीता का अध्ययन कर लिया था. विचारों को उनकी माता ने बहुत ज्यादा प्रभावित किया था. विनोबा भावे का कहना था कि उनकी मानसिकता और जीवनशैली को सही दिशा देने और उन्हें अध्यात्म की ओर प्रेरित करने में उनकी मां का ही योगदान है. विनोबा भावे गणित के बहुत बड़े विद्वान थे. लेकिन ऐसा माना जाता है कि 1916 में जब वह अपनी दसवीं की परीक्षा के लिए मुंबई जा रहे थे तो उन्होंने महात्मा गांधी का एक लेख पढ़कर शिक्षा से संबंधित अपने सभी दस्तावेजों को आग के हवाले कर दिया था.

आचार्य विनोबा भावे महात्मा गांधी के अनुयायी थे. वह एक धर्मगुरु के साथ-साथ एक समाज सुधारक और स्वतंत्रता सेनानी भी थे. वह गांधीजी की तरह ही अहिंसा के पुजारी थे. उन्होंने अहिंसा और समानता के सिद्धांत पर हमेशा पालन करते हुए अपना जीवन गरीबों और दबे-कुचले वर्ग के लिए लड़ने को समर्पित कर दिया. वह उन लोगों के अधिकारों के लिए खड़े हुए तो भूदान आंदोलन जैसे एक बड़े आन्दोलन ने जन्म लिया और आज लोग इनको इसी आन्दोलन के लिए सबसे ज्यादा याद करते हैं. सामुदायिक नेतृत्व के लिए 1958 में अंतरराष्ट्रीय रमन मैग्सायसाय पुरस्कार पाने वाले वह पहले व्यक्ति थे. इसके बाद 1983 में मरणोपरांत उनको देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से भी सम्मानित किया गया.

कहा जाता है कि छात्र जीवन में विनोबा को गणित में काफी रुचि थी. काफी कम उम्र में ही भगवद्गीता के अध्ययन के बाद उनके अंदर अध्यात्म की ओर रुझान पैदा हुआ. इसके बाद उन्होंने सामाजिक जीवन को त्याग कर हिमालय में जाकर संत बनने का फैसला कर लिया था. बाद में उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने के बाद वह देश के कोने-कोने की यात्रा करनी शुरू कर दी. इस दौरान वह क्षेत्रीय भाषा सीखते जाते और साथ ही शास्त्रों एवं संस्कृत का ज्ञान भी हासिल करते रहे.

बनारस में बदला जीवन
कहा जाता है कि इसी दौरान वह बनारस जैसे पवित्र शहर में जा पहुंचे. वहां उनको गांधीजी का वह भाषण मिल जाता है, जो उन्होंने बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में दिया था. इसके बाद उनकी जिंदगी में बहुत बड़ा बदलाव आता है. 1916 में जब वह इंटरमीडिएट की परीक्षा मुंबई देने जा रहे थे तो उन्होंने रास्ते में अपने स्कूल और कॉलेज के सभी सर्टिफिकेट जला दिए थे. फिर उन्होंने गांधीजी से पत्र के माध्यम से संपर्क किया. 20 साल के युवक से गांधीजी काफी प्रभावित हुए और उनको अहमदाबाद स्थित अपने कोचराब आश्रम में आमंत्रित किया. 7 जून, 1916 को विनोबा भावे ने गांधीजी से भेंट की और आश्रम में रहने लगे.

कहा जाता है कि विनोबा आश्रम की सभी तरह की गतिविधियों में हिस्सा लिया और साधारण जीवन जीने लगे. इस तरह उन्होंने अपना जीवन गांधी के विभिन्न कार्यक्रमों को समर्पित कर दिया. विनोबा नाम उनको आश्रम के अन्य सदस्य मामा फाड़के ने दिया था. दरअसल मराठी में विनोबा शब्द किसी को काफी सम्मान देने के लिए बोला जाता है. साल 1940 तक तो विनोबा भावे को सिर्फ वही लोग जानते थे, जो उनके इर्द-गिर्द रहते थे. लेकिन 5 अक्टूबर, 1940 को महात्मा गांधी ने उनका परिचय राष्ट्र से कराया. गांधीजी ने एक बयान जारी किया और उनको पहला सत्याग्रही बताते हुए उनको राष्ट्रीय स्तर का आंदोलनकारी बना दिया.

भूदान आंदोलन (Bhoodan Movement)
साल 1951 में वह आंध्र प्रदेश (अब तेलंगाना) के हिंसाग्रत क्षेत्र की यात्रा पर थे. 18 अप्रैल, 1951 को पोचमपल्ली गांव के हरिजनों ने उनसे भेंट की तो उनलोगों ने विनोबा भावे से करीब 80 एकड़ भूमि उपलब्ध कराने का आग्रह किया, ताकि वे लोग अपना जीवन-यापन कर सकें. विनोबा भावे ने गांव के जमीनदारों से आगे बढ़कर अपनी जमीन दान करने और हरिजनों को बचाने की अपील की. उनकी अपील का असर एक जमींदारों पर हुआ और सबने अपनी जमीन दान देने का प्रस्ताव रखा. इस घटना से भारत के त्याग और अहिंसा के इतिहास में एक नया अध्याय जुड़ गया. यहीं से आचार्य विनोबा भावे का भूदान आंदोलन शुरू हो गया. यह आंदोलन 13 सालों तक चलता रहा. इस दौरान विनोबा ने देश के कोने-कोने का भ्रमण किया. उन्होंने करीब 58,741 किलोमीटर सफर तय किया. इस आंदोलन के माध्यम से वह गरीबों के लिए 44 लाख एकड़ भूमि दान के रूप में हासिल करने में सफल रहे. उन जमीनों में से 13 लाख एकड़ जमीन को भूमिहीन किसानों के बीच बांट दिया गया. विनोबा भावे के इस आंदोलन की न सिर्फ भारत बल्कि विश्व में भी काफी प्रशंसा हुई.

कहा जाता है कि मराठी, तेलुगु, गुजराती, कन्नड़, हिंदी, उर्दू, इंग्लिश और संस्कृत समेत कई भाषाओं पर उनकी पकड़ थी. उन्होंने संस्कृत में लिखे कई शास्त्रों का सामान्य भाषा में अनुवाद किया और लोगों को समझाने की कोशिश की. नवंबर 1982 में वह गंभीर रूप से बीमार पड़ गए और उन्होंने अपने जीवन को त्यागने का फैसला लिया. उन्होंने अपने अंतिम दिनों में खाना या दवा लेने से इनकार कर दिया था. आखिरकार 15 नवंबर, 1982 को देश के एक महान समाज सुधारक हमारी दुनिया से हमेशा हमेशा के लिए चल गया।

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