भोपाल। अगर आप से पूछा जाए कि आपने पहली बार समाचार कब देखा और सुना था तो जवाब में आप भी दूरदर्शन का नाम लेंगे और मुमकिन है कि आपकी ज़ुबान पर भी सलमा सुल्तान का नाम आ जाए. बालों में लगे गुलाब और करीने से पहनी गई साड़ी वाली सलमा सुल्तान अगर आज न्यूज प्रजेंटर होती तों.... ये सवाल हमने सलमा सुल्तान से ही किया और जवाब आया कि "अगर सलमा सुल्तान इस दौर में न्यूज प्रजेंटर होतीं, तो वो ना होती जो हैं."
भारतीय समाचारों की दुनिया का एक युग जिन्हें कहा जा सकता है सलमा सुल्तान, वे बड़ी बेबाकी से कहती हैं कि मीडिया में एंकर्स की भूमिका पपेट्स से ज्यादा नहीं है और वो वाकई मीडिया में एआई के साथ आ रहे पपेट्स लेकर. वो फिक्रमंद भी हैं और कहती हैं कि इंसान की जगह अगर रोबोट्स ले लेंगे, तो इससे ज्यादा अनफॉर्च्यूनेंट कुछ नहीं.
सलमा सुल्तान तब वो ना होतीं जो हैं: सलमा सुल्तान की ईटीवी भारत से बातचीत में पहला सवाल था कि अगर सलमा सुल्तान अगर इस दौर में न्यूज प्रजेंटेर होती तो.. सलमा सुल्तान मुस्कुराते हुए जवाब देती हैं "तो मैं वो ना होती जो मैं हूं." बातचीत में सलमा सुल्तान उस दौर में भी गई जब हर कोई 'हिंदुस्तान समाचार' को पहली बार देख और सुन रहा था. वे कहती हैं मेरे जेहन में वो सब समाचार हैं, अगर आपर दुखद घटनाओं की बात करें तो सभी दुखद घटनाओं को हमने दर्शकों तक पहुंचाया. सभी मेरे शऊर का हिस्सा हैं, तो मैं ये नहीं कह सकती कि कोई एक समाचार की बात है. अनगिनत वाकयात हुए हैं जो हमने उस दौर में न्यूज रीडर के तौर पर सुनाए.. लेकिन हमने न्यूज रीडर मानकर अपना काम निभाया.
सलमा सुल्तान आगे कहती हैं कि "हम ये मानते थे कि न्यूज रीडर को बिल्कुल ऑब्जेक्टिवली अपना काम करना है, अपनी निजी पसंद, ना पसंद न्यूज रीडर की नहीं होती. किसी जाती, दुख का यहां कोई मतलब नहीं होता. मुझे याद है कि एक ऐसा डिसीप्लिन होता था उस समय, वो वक्त मुझे याद आता है कि मेरी मदर की डेथ हो गई थी, 6 दिन बाद ही मुझे कैमरा फेस करना था, लेकिन मेरे चेहरे से कोई ये नहीं पता कर सकता था कि मैं किस ट्रामा से गुजर रही हूं. वो डिसीप्लिन हर न्यूज रीडर का होता है."
और जब सलमा सुल्तान ने बंदर का ब्लंडर संभाल लिया: तकनीक ने जब रफ्तार नहीं पकड़ी थी, तब किस तरह के वाकये होते थे, इस पर सलमा सुल्तान बताती हैं कि "बहुत बातें होती थी, गुफ अप होता रहता था हर वक्त. मुझे याद है कि पहले हम नीचे देखकर पढ़ते थे फिर एक वक्त आया कि टेली प्रॉम्पटर आ गया. टेली प्रॉम्पटर पर सामने लिखा हुआ आता था, एक आदमी उसकी मशीन को रोल करता था तो वो लाइन्स हमें दिखाई देती थी. होता ये था कि हमारे जो टाइपराइटर थे, वो पुराने हो चुके थे तो उसकी जो तीलिंया थीं, वो उचकती थी. अपनी मर्जी से शब्द कहीं के कहीं चले जाते थे, वो भी आजिज आ चुके थे. बहरहाल खबरें एन मौके पर आती थी, पेपर प्रोड्यूसर हमारे सामने रखते थे. तो एक दिन एक न्यूज आई जिसका मकसद ये था कि पुराने जमाने में औरतों को पर्दे में बंद रखा जाता था. जब मैने पढ़ना शुरु किया तो दिख रहा था कि पुराने जमाने में औरतों को बंदर खा जाता था. मैने उसे वहीं संभाला और सही वाक्य जो था वो पढ़ दिया. तो गुफ अप थे, उन्हें हम संभालते थे."
इन इंटरव्यू को जरूर देखिए- |
भोपाल वो शहर जहां मेरे कदमों ने चलना सीखा: सलमा सुल्तान के दिल में भोपाल के लिए एक खास जगह है. वे कहती हैं, "ये वो बिल्कुल सरजमी है, जहां मेरे कदमों ने चलना सीखा, यही वो जमीन है जिसने मुझे बनाया. सर उठा कर चलना सीखा, तो इस शहर से सीखा और फिर मेरी तरबीयत भी ऐसी ही थी. मेरे पैरेन्टस की परवरिश थी कि लड़कियों को हमेशा अपने पैरों पर खड़े होना चाहिए, भोपाल की मेरी जिंदगी में बेहद खास जगह है. ये एक ऐसी जड़ है, जिससे में जुड़ी रहना चाहूंगी."
मीडिया में एंकर्स केवल पपेट हैं: मीडिया में एंकर्स के प्रजेंटेशन पर था सवाल और जवाब में सलमा सुल्तान ने कहा कि "मैं ये मानती हूं कि बदलाव कुदरती चीज है. बदलाव हर वक्त होना ही मीडिया में इस बदलाव की सारी जिम्मेदारी एंकर्स की नहीं है. एंकर्स केवल पपेट हैं, आप ये बात करती हैं हमारे जमाने के एंकर सोबर होते थे, वो डिसिप्लिन हमें दिया गया था. मीडिया जिस तरह से एंकर को ढाल रहा है, तो वो ढल रहे हैं. मैं फिर कह रही हूं बहुत टैलेन्टेंड हैं आज के दौर के एंकर, लेकिन जो उनसे अपेक्षा की जा रही है वो सारी जिम्मेदारी चैनल्स की है."
इंसान का रिप्सेंलेंट रोबोट नहीं: क्या एआई एंकर्स समाचारों के साथ इंसाफ कर पाएंगे, इसके जवाब में वे कहती हैं "देखिए इंसाफ नाइंसाफी अलग बात है, टेक्नीकली हम कहां जा रहे हैं. फिर भी मैं ये मानती हूं कि इंसान है, उसका रिप्सेंलेंट रोबोट तो नहीं हो सकता, अगर ये होगा तो बहुत अनफॉर्च्यूनेट होगा."