जमशेदपुर : आज देश-दुनिया तरक्की कर रहा है. नए-नए रिसर्च कर रहा है, दवाएं बना रहा है, लेकिन आज भी परंपरा और मान्यताओं की जद में लोग अंधविश्वास में जकड़ते जा रहे हैं. कुछ ऐसी ही परंपरा का निर्वहन झारखंड के पूर्वी सिंहभूम जिला के पंचायत क्षेत्र के एक गांव बोदरा टोला में किया जाता है. वर्षों से चली आ रही इस पुरानी परंपरा में एक दर्द के साथ मासूमों की चीख सुनाई देती है, ग्रामीण इसे चिड़ी दाग कहते हैं.
दर्द देता चिड़ी दाग
पूर्वी सिंहभूम जिला के पंचायत क्षेत्र के गांव बोदरा टोला में जहां सूरज उगने से पहले ग्रामीण महिलाएं, अपने मासूम छोटे बच्चे को गोद में लिए गांव के एक घर में जाती हैं. उस घर के आंगन में मिट्टी की जमीन पर बैठा एक व्यक्ति आग को हवा दे रहा है और आग में लोहे की सीक को गर्म करता है. गांव की महिलाएं अपने बच्चों को उस व्यक्ति के हवाले कर देती है, गांव का पुरोहित गर्म लोहे की सीक से बच्चे का पेट दागता है. इस परंपरा का निर्वहन कर बच्चों की मां काफी इत्मिनान हो जाती हैं कि उनके बच्चे को कभी तकलीफ नहीं होगी.
क्या है चिड़ी दाग
आदिवासी समाज में मकर पर्व के दूसरे दिन को अखंड जात्रा कहते हैं. वर्षों से चली आ रही पुरानी परंपरा के अनुसार मकर में कई तरह के व्यंजन खाने के बाद पेट दर्द न हो इसके चिड़ी दाग दिया जाता है. अखंड जात्रा के दिन सूरज उगने से पहले गांव का पुरोहित अपने घर के आंगन में अपने ग्राम देवता की पूजा करते है. लकड़ी और गोइठा की आग में तांबा या लोहे की पतली सीक को गर्म करते हैं, यहां सरसो का तेल भी रहता है. ग्रामीण अपने बच्चे को लेकर पुरोहित के पास आते हैं, पुरोहित उनका नाम गांव का नाम पता पूछकर ध्यान लगाकर पूजा करता है और सरसो के तेल से जमीन पर दाग देता है. फिर बच्चे के पेट की नाभि के चारों तरफ तेल लगाकर गर्म लोहे की सीक से नाभि के चारों तरफ चार बार दागता है. इस दौरान बच्चे की चीख सुनाई देती है बच्चे की मां को दर्द का एहसास होता है, लेकिन अपनी पुरानी परंपरा को निभाकर वो खुश हैं. बच्चे को दागने के बाद पुरोहित उसके सिर पर हाथ रख कर आशीर्वाद देता है.
कितने उम्र से कब तक दिया जाता है चिड़ी दाग
इस पुरानी प्रथा के अनुसार नवजात 21 दिन के बच्चे से लेकर बड़े बुजुर्ग को भी चिड़ी दाग दिया जाता है. बोदरा टोला के पुरोहित छोटू सरदार बताते हैं कि उनके दादा, परदारा चिड़ी दाग करते आ रहे हैं. यह हमारी सबसे पुरानी परंपरा है मान्यता है कि चिड़ी दाग से पेट का जो नस बढ़ जाता है वो ठीक हो जाता है. चिड़ी दाग से पेट दर्द नहीं होता, पैर, कमर दर्द के लिए भी चिड़ी दाग दिया जाता है. पुरोहित का मानना है की दवा से अंदर का इलाज होता है, लेकिन चिड़ी दाग से ऊपर से नस का इलाज हो जाता है.
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अंधविश्वास की जद में लोग
गांव की पुरानी परंपरा पर कई सवाल खड़े होते हैं. मेडिकल साइंस को चुनौती देने वाली यह परंपरा अंधविश्वास पर टिकी है. डॉक्टर भी बताते हैं कि कहीं न कहीं जागरूकता का अभाव है. पूर्व में अशिक्षा के कारण इन प्रथाओं को लोग मानते थे, अब साइंस काफी आगे बढ़ गया है और चिड़ी दाग से पेट की बीमारी दूर होने वाली बात सरासर गलत है, आजकल सब बीमारी की दवा है और लोहे की पतली सीक से बच्चों के पेट को दाग ना यह अमानवीय है.
नई पीढ़ी ने परंपरा को किया खारिज
समय के साथ-साथ गांव में बदलाव हुआ है, अब गांव के लड़के लड़कियां शिक्षा के क्षेत्र में अपनी पहचान बना रहे हैं. यही वजह है कि इन पुरानी परंपरा को आज की पीढ़ी सीधे तौर पर नकारती है.
गांव की छात्रा बाहा सोरेन बताती हैं कि हम ऐसी परंपरा को नहीं मानते पहले के लोग शिक्षित नहीं थे, अब हमारा समाज शिक्षित हो रहा है लेकिन कुछ लोग अभी पुरानी परंपराओं को लेकर आगे चल रहे हैं, जिसमें बच्चों का शोषण हो रहा है.