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अरुणा आसफ अली : भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान निभाई थी महत्वपूर्ण भूमिका

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Published : Jul 29, 2021, 5:00 AM IST

आजादी के आंदोलन में खासकर भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली अरुणा आसफ अली पढ़ी-लिखी और क्रांतिकारी सोच रखने महिला थीं. वह कांग्रेस पार्टी की सदस्य थीं. उन्होंने अपने से 23 साल बड़े आसफ अली से शादी की थी. उनका परिवार इस शादी से खुश नहीं था. इनके बारे में और आधिक जानने के लिए पढ़ें पूरी स्टोरी.

अरुणा आसफ अली
अरुणा आसफ अली

हैदराबाद : अरुणा आसफ अली, भारत के स्वतंत्रता आंदोलन की प्रमुख महिला हस्तियों में से एक, क्रांतिकारी वामपंथी थीं. उन्होंने 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान नेतृत्व संभाला था. 8 अगस्त 1942 में कांग्रेस ने भारत छोड़ो प्रस्ताव पारित किया और महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू सहित इसके सभी प्रमुख नेताओं को ब्रिटिश सरकार ने गिरफ्तार कर लिया था.

गांधी के "करो या मरो" के आह्वान पर उन्होंने 9 अगस्त 1942 को बॉम्बे के गोवालिया टैंक मैदान (अब आजाद मैदान) में तिरंगा फहराकर अंग्रेजों को ललकारा था. इस आंदोलन को उन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन की सबसे स्थाई छवियों में से एक बना दिया था. इस आंदोलन में वह गिरफ्तारी से बच निकली थी और कई सालों तक अंडरग्राउंड रही.

भारत की स्वतंत्रता के बाद, वह सार्वजनिक कार्यों में सक्रिय रही, और 1958 में दिल्ली की पहली महिला मेयर चुनी गईं. उन्होंने नई दिल्ली में वामपंथी झुकाव वाले देशभक्त समाचार पत्र और साप्ताहिक पत्रिका 'लिंक' का प्रकाशन करने लगीं. 29 जुलाई 1996 को अरुणा आसफ अली का निधन हुआ.

बचपन और प्रारंभिक जीवन

अरुणा आसफ अली का नाम अरुणा गांगुली था. उनका जन्म एक रूढ़िवादी बंगाली ब्राह्मण परिवार में उपेंद्रनाथ गांगुली और अंबालिका देवी के घर 16 जुलाई, 1909 को कालका, पंजाब में हुआ था. स्वतंत्र रूप से पली-बढ़ी अरुणा परिवार की सबसे बड़ी संतान थीं. उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा लाहौर के सेक्रेड हार्ट कॉन्वेंट से प्राप्त की. स्कूल में ही वह कैथोलिक धर्म के प्रति इतनी आकर्षित हुई कि उसने रोमन नन बनने का फैसला किया. उसी से नाराज होकर, उसके परिवार ने उसे नैनीताल के एक प्रोटेस्टेंट स्कूल में स्थानांतरित कर दिया.

स्वतंत्रता की लड़ाई में उनका योगदान

एक उदार, उच्च जाति के बंगाली परिवार में पली-बढ़ी, जो ब्रह्म समाज का हिस्सा थी और रवींद्रनाथ टैगोर से प्रेरित अरुणा गांगुली अत्यंत शिक्षित थीं. उन्होंने कांग्रेस के एक सदस्य आसफ अली से शादी की, जो भगत सिंह का बचाव करने के लिए जाने जाते हैं. आसफ अली बाद में कड़े विरोध के बावजूद संयुक्त राज्य अमेरिका में भारतीय राजदूत बने थे. आसफ अरुणा से 23 वर्ष बड़े थे और 1953 में उनकी मृत्यु हो गई थी. आसफ अली के जरिये ही अरुणा भारत की स्वतंत्रता की लड़ाई से जुड़ी और कांग्रेस की सक्रिय सदस्य बन गईं.

वह 1931 में गिरफ्तार हुई थी, और उनकी रिहाई तभी हुई जब महात्मा गांधी ने सार्वजनिक विरोध के बाद हस्तक्षेप किया. यहां तक कि जब तक अरुणा रिहा नहीं हुई थीं, तब तक अन्य महिला कैदियों ने भी रिहा होने से इनकार कर दिया था.

1932 में उन्हें फिर से गिरफ्तार कर लिया गया और तिहाड़ जेल में रखा गया, जहां उन्होंने अन्य राजनीतिक कैदियों के इलाज के समर्थन में भूख हड़ताल की थी. इसके बाद उन्हें अंबाला में एकांत कारावास में ले जाया गया था. वह रिहा होने के 10 साल तक राजनीतिक रूप से निष्क्रिय थी, जब भारत छोड़ो आंदोलन शुरू नहीं हुआ था.

1942 के बाद, उनकी संपत्ति को जब्त कर बेच दिया गया था. वह अंडरग्राउंड हो गईं, और राम मनोहर लोहिया के साथ कांग्रेस की मासिक पत्रिका 'इंकलाब' का संपादन किया. अपनी स्वतंत्र पहचान के लिए जानी जाने वाली अरुणा ने 1946 में खुद को आत्मसमर्पण करने के गांधी के अनुरोध की भी अनसूना कर दिया था.

आजादी के बाद, 1948 में अरुणा ने कांग्रेस छोड़ दिया और सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हो गईं. 1950 के दशक की शुरुआत में, वह भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्य बन गईं. हालांकि, उन्होंने 1956 में यूएसएसआर में स्टालिन की क्रुश्चेव की निंदा के बाद पार्टी छोड़ दी थी. वह जीवन भर वामपंथी रहीं, और नेशनल फेडरेशन ऑफ इंडियन के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती रहीं.

अरुणा दलितों के लिए समर्थन जुटाने के लिए समर्पित थीं और उन्होंने "अनावश्यक औद्योगीकरण" का विरोध किया क्योंकि उनका मानना ​​​​था कि इससे पर्यावरण को नुकसान और सामाजिक अलगाव होगा. वहीं, उन्होंने महिलाओं के उत्थान की दिशा में काम किया. उन्हें उस दौर में महिलाओं के समर्थन में कार्य करने पर कई बार नारीवादी समूहों की आलोचना का सामना भी करना पड़ा. उनका मानना ​​था कि शिक्षा और बेहतर स्वास्थ्य सेवा महिलाओं के लिए आरक्षण से भी अधिक जरूरी है.

1964 में वह कांग्रेस में दोबारा शामिल हो गईं. हालांकि, वह उस वक्त इतनी सक्रिय नहीं रहीं. आपातकाल की आलोचक होने के बावजूद वह इंदिरा गांधी के करीब रहीं. अरुणा को राष्ट्रवादियों और वामपंथियों दोनों ने सम्मानित किया है. हालांकि, उन्होंने सार्वजनिक रूप से पुरस्कार स्वीकार करने से इनकार कर दिया था. उन्हें 1965 में ऑर्डर ऑफ लेनिन और लेनिन शांति पुरस्कार दिया गया. उन्हें 1992 में पद्म विभूषण और 1997 में मरणोपरांत भारत रत्न से भी सम्मानित किया गया है. इसके अलावा अंतरराष्ट्रीय समझ के लिए उन्हें नेहरू पुरस्कार से भी पुरस्कृत किया गया है.

पुरस्कार और उपलब्धियां

1964 में उन्हें प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय लेनिन शांति पुरस्कार मिला.

1991 में उन्हें अंतर्राष्ट्रीय समझ के लिए जवाहरलाल नेहरू पुरस्कार से सम्मानित किया गया.

1992 में उन्हें भारत का दूसरा सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्म विभूषण प्राप्त हुआ.

1997 में उन्हें मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार भारत रत्न से सम्मानित किया गया.

हैदराबाद : अरुणा आसफ अली, भारत के स्वतंत्रता आंदोलन की प्रमुख महिला हस्तियों में से एक, क्रांतिकारी वामपंथी थीं. उन्होंने 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान नेतृत्व संभाला था. 8 अगस्त 1942 में कांग्रेस ने भारत छोड़ो प्रस्ताव पारित किया और महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू सहित इसके सभी प्रमुख नेताओं को ब्रिटिश सरकार ने गिरफ्तार कर लिया था.

गांधी के "करो या मरो" के आह्वान पर उन्होंने 9 अगस्त 1942 को बॉम्बे के गोवालिया टैंक मैदान (अब आजाद मैदान) में तिरंगा फहराकर अंग्रेजों को ललकारा था. इस आंदोलन को उन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन की सबसे स्थाई छवियों में से एक बना दिया था. इस आंदोलन में वह गिरफ्तारी से बच निकली थी और कई सालों तक अंडरग्राउंड रही.

भारत की स्वतंत्रता के बाद, वह सार्वजनिक कार्यों में सक्रिय रही, और 1958 में दिल्ली की पहली महिला मेयर चुनी गईं. उन्होंने नई दिल्ली में वामपंथी झुकाव वाले देशभक्त समाचार पत्र और साप्ताहिक पत्रिका 'लिंक' का प्रकाशन करने लगीं. 29 जुलाई 1996 को अरुणा आसफ अली का निधन हुआ.

बचपन और प्रारंभिक जीवन

अरुणा आसफ अली का नाम अरुणा गांगुली था. उनका जन्म एक रूढ़िवादी बंगाली ब्राह्मण परिवार में उपेंद्रनाथ गांगुली और अंबालिका देवी के घर 16 जुलाई, 1909 को कालका, पंजाब में हुआ था. स्वतंत्र रूप से पली-बढ़ी अरुणा परिवार की सबसे बड़ी संतान थीं. उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा लाहौर के सेक्रेड हार्ट कॉन्वेंट से प्राप्त की. स्कूल में ही वह कैथोलिक धर्म के प्रति इतनी आकर्षित हुई कि उसने रोमन नन बनने का फैसला किया. उसी से नाराज होकर, उसके परिवार ने उसे नैनीताल के एक प्रोटेस्टेंट स्कूल में स्थानांतरित कर दिया.

स्वतंत्रता की लड़ाई में उनका योगदान

एक उदार, उच्च जाति के बंगाली परिवार में पली-बढ़ी, जो ब्रह्म समाज का हिस्सा थी और रवींद्रनाथ टैगोर से प्रेरित अरुणा गांगुली अत्यंत शिक्षित थीं. उन्होंने कांग्रेस के एक सदस्य आसफ अली से शादी की, जो भगत सिंह का बचाव करने के लिए जाने जाते हैं. आसफ अली बाद में कड़े विरोध के बावजूद संयुक्त राज्य अमेरिका में भारतीय राजदूत बने थे. आसफ अरुणा से 23 वर्ष बड़े थे और 1953 में उनकी मृत्यु हो गई थी. आसफ अली के जरिये ही अरुणा भारत की स्वतंत्रता की लड़ाई से जुड़ी और कांग्रेस की सक्रिय सदस्य बन गईं.

वह 1931 में गिरफ्तार हुई थी, और उनकी रिहाई तभी हुई जब महात्मा गांधी ने सार्वजनिक विरोध के बाद हस्तक्षेप किया. यहां तक कि जब तक अरुणा रिहा नहीं हुई थीं, तब तक अन्य महिला कैदियों ने भी रिहा होने से इनकार कर दिया था.

1932 में उन्हें फिर से गिरफ्तार कर लिया गया और तिहाड़ जेल में रखा गया, जहां उन्होंने अन्य राजनीतिक कैदियों के इलाज के समर्थन में भूख हड़ताल की थी. इसके बाद उन्हें अंबाला में एकांत कारावास में ले जाया गया था. वह रिहा होने के 10 साल तक राजनीतिक रूप से निष्क्रिय थी, जब भारत छोड़ो आंदोलन शुरू नहीं हुआ था.

1942 के बाद, उनकी संपत्ति को जब्त कर बेच दिया गया था. वह अंडरग्राउंड हो गईं, और राम मनोहर लोहिया के साथ कांग्रेस की मासिक पत्रिका 'इंकलाब' का संपादन किया. अपनी स्वतंत्र पहचान के लिए जानी जाने वाली अरुणा ने 1946 में खुद को आत्मसमर्पण करने के गांधी के अनुरोध की भी अनसूना कर दिया था.

आजादी के बाद, 1948 में अरुणा ने कांग्रेस छोड़ दिया और सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हो गईं. 1950 के दशक की शुरुआत में, वह भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्य बन गईं. हालांकि, उन्होंने 1956 में यूएसएसआर में स्टालिन की क्रुश्चेव की निंदा के बाद पार्टी छोड़ दी थी. वह जीवन भर वामपंथी रहीं, और नेशनल फेडरेशन ऑफ इंडियन के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती रहीं.

अरुणा दलितों के लिए समर्थन जुटाने के लिए समर्पित थीं और उन्होंने "अनावश्यक औद्योगीकरण" का विरोध किया क्योंकि उनका मानना ​​​​था कि इससे पर्यावरण को नुकसान और सामाजिक अलगाव होगा. वहीं, उन्होंने महिलाओं के उत्थान की दिशा में काम किया. उन्हें उस दौर में महिलाओं के समर्थन में कार्य करने पर कई बार नारीवादी समूहों की आलोचना का सामना भी करना पड़ा. उनका मानना ​​था कि शिक्षा और बेहतर स्वास्थ्य सेवा महिलाओं के लिए आरक्षण से भी अधिक जरूरी है.

1964 में वह कांग्रेस में दोबारा शामिल हो गईं. हालांकि, वह उस वक्त इतनी सक्रिय नहीं रहीं. आपातकाल की आलोचक होने के बावजूद वह इंदिरा गांधी के करीब रहीं. अरुणा को राष्ट्रवादियों और वामपंथियों दोनों ने सम्मानित किया है. हालांकि, उन्होंने सार्वजनिक रूप से पुरस्कार स्वीकार करने से इनकार कर दिया था. उन्हें 1965 में ऑर्डर ऑफ लेनिन और लेनिन शांति पुरस्कार दिया गया. उन्हें 1992 में पद्म विभूषण और 1997 में मरणोपरांत भारत रत्न से भी सम्मानित किया गया है. इसके अलावा अंतरराष्ट्रीय समझ के लिए उन्हें नेहरू पुरस्कार से भी पुरस्कृत किया गया है.

पुरस्कार और उपलब्धियां

1964 में उन्हें प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय लेनिन शांति पुरस्कार मिला.

1991 में उन्हें अंतर्राष्ट्रीय समझ के लिए जवाहरलाल नेहरू पुरस्कार से सम्मानित किया गया.

1992 में उन्हें भारत का दूसरा सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्म विभूषण प्राप्त हुआ.

1997 में उन्हें मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार भारत रत्न से सम्मानित किया गया.

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