पंजाब में 20 फरवरी को मतदान होना है. यहां पर विधानसभा की कुल 117 सीटें हैं. आखिरी दौर के प्रचार में भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेताओं ने अपना पूरा दमखम लगा दिया. वे काफी सक्रिय दिखे. अब प्रचार भी समाप्त हो चुका है. पिछले सप्ताह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राधा स्वामी सत्संग ब्यास के प्रमुख बाबा गुरिंदर सिंह ढिल्लन से विशेष मुलाकात की थी. उसके बाद गृह मंत्री अमित शाह ने भी उनसे बुधवार को मुलाकात की. इससे पहले अमित शाह ने अकाल तख्त के मुख्य जत्थेदार ज्ञानी हरप्रीत सिंह से भी रविवार को मुलाकात की थी. ये सभी मुलाकातें एक दूसरे से जुड़ी हुईं हैं. आप किसी को भी अलग करके नहीं देख सकते हैं. इसके अलावा डेरा सच्चा सौदा के प्रमुख बाबा राम रहीम को परोल दिलवाई गई. हालांकि, इनके समर्थकों पर 2015 में धार्मिक गुरुग्रंथ के अपमान का भी आरोप लग चुका है. ऐसे में यह सवाल उठता है कि आखिर भाजपा पंजाब के 'बाबाओं' से मुलाकात कर क्या हासिल करना चाहती है.
इन सबसे अलग सर्वे रिपोर्ट बता रहे हैं कि इस बार के चुनाव में आम आदमी पार्टी पहले नंबर पर है. वह सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभर सकती है. उसके बाद कांग्रेस के दूसरे स्थान पर रहने की उम्मीद है. भाजपा इस बार 64 सीटों पर, कैप्टन अमरिंदर सिंह की पार्टी 30 सीटों पर और सुखबीर सिंह ढींढसा का अकाली दल यू 17 सीटों पर चुनाव लड़ रहा है. तीनों दलों का आपस में गठबंधन है. लेकिन इसके बावजूद इन्हें मजबूत दावेदार नहीं माना जा रहा है. इसी तरह से सुखबीर सिंह बादल के नेतृत्व वाली अकाली दल की भी अच्छी स्थिति नहीं मानी जा रही है. एक तो किसान आंदोलन पर उनकी पार्टी का स्टैंड और दूसरा कि 2015 में गुरु ग्रंथ साहिब के कुछ पन्नों की बेअदबी वाले मामले में भी उनका रुख विवादास्पद रह चुका है. माना गया कि अकाली दल ने तब एंटी सिख स्टैंड लिए थे.
आप किसी भी नजरिए से देखें तो पंजाब चुनाव प्रचार के केंद्र में आम आदमी पार्टी ही रही है. अभी दो दिनों से कुमार विश्वास के एक वीडियो को लेकर अरविंद केजरीवाल पर निशाना भी साधा गया. विश्वास ने उन्हें खालिस्तान का समर्थक बताया और कहा कि केजरीवाल स्वतंत्र सूबे का प्रधानमंत्री बनना चाहते थे. विश्वास आप के पूर्व सदस्य रह चुके हैं. उसके बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी एक रैली में देश विरोधी ताकतों से सावधान रहने की अपील की. कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने भी केजरीवाल से खालिस्तान पर उन्हें अपनी स्थिति साफ करने को कहा. पंजाब के मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी ने केजरीवाल पर देशद्रोह का मामला चलाने की धमकी दी है. ये सभी बिंदु बताते हैं कि पंजाब में आप के चारों ओर राजनीति घूम रही है.
पहले शिरोमणि अकाली दल के 10 साल और उसके बाद कांग्रेस के पांच साल का शासन देखने के बाद पंजाब का मतदाता ऊपरी तौर पर इस बार आप के साथ प्रयोग करने को तैयार दिख रहा है. लेकिन पार्टी के अंदर घटी पिछली घटनाएं उनकी चिंता भी बढ़ाए जा रही है. उदाहरण के तौर पर 2017 में आप पंजाब के मतदाताओं की पहली पसंद बनी थी. लेकिन जैसे ही केजरीवाल द्वारा एक खालिस्तानी आतंकी के घर जाने की खबर आई, केजरीवाल की लोकप्रियता तेजी से घटने लगी. इस घटना से पहले आप ने पोस्टर चिपकाकर 80 सीटों के जीतने का दावा किया था. लेकिन पार्टी को मात्र 20 सीटें मिलीं. इनमें से उनके 11 विधायकों ने धीरे-धीरे कर पाला बदल लिया. 2019 के लोकसभा चुनाव में पार्टी का मत प्रतिशत सिंगल इकाई में सिमट गया. इसलिए इसके बावजूद कि पार्टी को समर्थन मिल रहा है, आप इस हवा को अपने पक्ष में कर पाएगी, कहना मुश्किल है. क्या यह सीटों में तब्दील हो पाएगी और क्या वह स्थायी और विश्वसनीय सरकार दे पाएगी. ये सभी लाख टके का सवाल है.
हालांकि, भाजपा विपरीत परिस्थितियों में भी संघर्ष के लिए जानी जाती है. वह अंत तक हिम्मत से जुटी रहती है. इसके बावजूद कि पार्टी के पक्ष में परिस्थितियां नहीं हैं, वह पंजाब का चुनाव भी जी-जान से लड़ रही है. अगर आप को बढ़त नहीं मिलती है और कांग्रेस को बहुमत का जादुई आंकड़ा, 59, हासिल नहीं होता है, ऐसे में भाजपा चुनाव के बाद 'जुगाड़' में जरूर लग जाएगी. पंजाब के छह प्रमुख डेरों का 68 विधानसभा में प्रभाव माना जाता है. इनमें से सबसे अधिक प्रभाव डेरा सच्चा सौदा का (27 सीटों पर) और राधा स्वामी सत्संग का (19 सीटों पर) है. भाजपा की दूसरी पंक्ति के नेताओं ने भी कई अन्य डेरा के प्रमुखों से हाल ही में भेंट की है. इनमें दिव्य ज्योति जागरन संस्थान का नूरमहल डेरा, डेरा सचखंड बल्लन और संत निरंकारी मिशन प्रमुख हैं. भाजपा का आकलन है कि वह डेरा के समर्थन से 25 सीटें जीत सकती है. अकाली दल भी पिछली बार के मुकाबले अपनी स्थिति बेहतर करने का सपना संजोए है. 2017 में अकाली दल ने 17 सीटें जीती थीं. ऐसी कोई भी परिस्थिति बनती है तो भाजपा, कैप्टन की पार्टी और ढींढसा की पार्टी का गठबंधन अकाली दल के साथ हाथ मिला सकता है. निर्दलीय विधायक भी उनके साथ आ सकते हैं. चुनाव बाद अकाली और भाजपा फिर से साथ आ जाएं, तो इसकी संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है. इनमें डेरा प्रमुख भी अपनी भूमिका निभा सकते हैं. वे सुलह कराने की स्थिति में हो सकते हैं. सीधे ही कहें तो भाजपा 'हंग असेंबली' की ही उम्मीद कर रही है.
(डिस्क्लेमर: इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के हैं. यहां व्यक्त किए गए तथ्य और राय ईटीवी भारत के विचारों को नहीं दर्शाते हैं)
ये भी पढे़ं : क्या बीजेपी की कथित 'सांप्रदायिक राजनीति' को रोक पाएंगे किसान ?