हिसार : आजाद वतन के मायने क्या हैं ये जानना है तो स्वतंत्रता सेनानियों का संघर्ष और उनके जीवन की विपत्तियों के बारे में पढ़िए. हम आजाद भले ही 1947 में हुए लेकिन लड़ाई हमारे पूर्वजों ने सैकड़ों साल लड़ी. 1857 की कितनी ही गाथाएं हैं जो बताती हैं कि भारत मां के सपूतों ने जो बलिदान दिए वो अतुल्य थे.
आज ऐसे ही कुछ क्रांतिकारियों की कहानी हम आपको सुना रहे हैं जिन्हें इतिहास के पन्नों पर जितनी जगह मिली उनके कारनामे उससे कहीं बड़े थे. इतने बड़े कि 1857 में उन्होंने हिसार को आजाद करवा दिया था.
इतिहासकार डॉ. महेंद्र सिंह का कहना है कि 29 मई 1857 को हिसार आजाद हो गया. लेकिन ये लड़ाई खत्म नहीं हुई थी. जितने भी अंग्रेज हिसार में थे उन्हें क्रांतिकारियों ने या तो मौत के घाट उतार दिया या जेल में डाल दिया. उनमें से एक अंग्रेज बचकर निकलने में कामयाब रहा और उसने अपने आला अफसरों को इस पूरे घटनाक्रम से अवगत कराया.
परंपरागत हथियारों के सहारे बंदूकों से किया मुकाबला
डॉ. महेंद्र सिंह ने बताया कि ये लड़ाई बहादुरशाह जफर के खानदान से ताल्लुक रखने वाले आजम खान के नेतृत्व में लड़ी जा रही थी. क्रांतिकारियों के पास तलवारें और जेलियां जैसे परंपरागत हथियार थे और अंग्रेजों के पास बंदूकें. इसके अलावा अंग्रेजों के पास एक प्लस प्वाइंट ये भी था कि वो किले के अंदर थे और क्रांतिकारी बाहर. जिसका नतीजा ये हुआ कि क्रांतिकारियों के सीने छलनी कर दिये गये. इस लड़ाई में 438 क्रांतिकारी शहीद हुए. जिनमें से 235 शहीदों के शव बिखरे पड़े मिले और बाकी का पता ही नहीं चला. क्रांतिकारी लड़ाई हार गए और 123 लोगों को बंदी बना लिया गया. अंग्रेजों की बर्बरता का खेल इसके बाद शुरू हुआ. उन्होंने पकड़े गए 123 लोगों को रोड रोलर से कुचलवा दिया.
इस तरह से 30 मई 1857 से 19 अगस्त 1857 तक हिसार आजाद रहा. इस बीच दिल्ली में भी गदर को दबा दिया गया और बहादुरशाह जफर को कैद कर लिया गया. लेकिन आजादी के परवानों द्वारा जलाई ये शमा 15 अगस्त 1947 को रौशन हुई और ऐसी रौशन हुई कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र ने जन्म लिया.
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