रायपुर: शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद ने कहा कि "अभी तो मोहन भागवत ने अपनी बात कही है. कोई ना कोई अनुसंधान उन्होंने जरूर किया होगा या अध्ययन किया होगा इस बारे में. क्योंकि हम लोग यह जानते हैं. चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं. गीता में भगवान ने कहा है कि मेरे द्वारा यह सृजित किया गया है. अब सवाल यह है कि वह किस अर्थ में कह रहे हैं. किस अध्ययन के बारे में कह रहे हैं. उनकी बात जानने के बाद ही इसमें विस्तार से कुछ कहा जा सकता है."
"धर्म ग्रंथ के बारे में बोलने का अधिकार केवल धर्माचार्य को": शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद ने कहा "देश में राजनीति ध्रुवीकरण के प्रयास करते रहती है. कई तरह से ध्रुवीकरण के प्रयास होते हैं. बीपी सिंह के समय मंडल कमंडल जैसी चीज को भी देखा था. तब भी जातियों को बांटने की कोशिश की गई थी. अभी धर्म के आधार पर ध्रुवीकरण है. कुछ लोग चाहते हैं कि समुदाय में भी दो भाग कर दिया जाए अगड़े और पिछड़े का. फिर कोई अगड़े की राजनीति करे और कोई पिछड़े की राजनीति करे. ऐसी नेताओं की इच्छा है. धर्म ग्रंथ के बारे में कहने का अधिकार धर्म आचार्यों को होना चाहिए. राजनीति के लोगों का नहीं होना चाहिए. राजनीति करने वाला अगर धर्म ग्रंथ के बारे में कहता है तो समझ लीजिए कि धर्म ग्रंथ का आशय लेकर वह राजनीति में काबिज होना चाहते हैं."
"धर्माचार्यों ने सदा जोड़ने का काम किया": जगतगुरु शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद ने आगे कहा कि "राजनीतिक कारणों से यह सब बातें कहीं और सुनी जा रही है. धार्मिक दृष्टि से ऐसी कोई बात नहीं है. किसी भी धर्म आचार्य ने ऐसी कोई बात नहीं कही है. धर्माचार्यों ने सदा जोड़ने का काम किया है. तोड़ने का काम राजनीति करने वाले करते हैं. क्योंकि तोड़कर के बांटो और राज करो का सिद्धांत है. जो अंग्रेजो के द्वारा हम लोगों को मिल गया है. देश में राजनीति करने वाले भी इसी का अनुसरण करते हैं."
"ग्रंथ में कई पात्र होते हैं": रामचरित्र मानस के चौपाई को लेकर जगतगुरु शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद ने कहा कि "जिस बात का विरोध हो रहा है वह तुलसीदास का कथन नहीं है. यह समुद्र का कथन है. जब 3 दिन समुद्र के किनारे राम बैठे रहे राम. वे समुद्र से आगे जाने का रास्ता मांग रहे थे. लेकिन वे नहीं आए. तब राम ने धनुष और बाण निकाला. तब समुद्र प्रकट हुआ. समुद्र ने यह कथन कहा है. महाराज हम गवार हैं. यह समुद्र का कहना है. तुलसीदास ने ऐसा नहीं कहा है. जब कोई ग्रंथ कोई लेखक लिखता है. तो उसमें पात्र होते हैं. अलग-अलग पात्रों की भावनाओं को उसमें कहा जाता है. यह समुद्र की युक्ति है. तुलसीदास के विचार ऐसे नहीं है." शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद ने यह भी कहा कि ''किसी भी ग्रंथ में संशोधन का अधिकार लेखक को होता है बाकि लोगों को व्याख्या का अधिकार होता है.''