नई दिल्ली : सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने मंगलवार को कहा कि वह दिल्ली और केरल उच्च न्यायालय में लंबित समान लिंग विवाह (same sex marraige) की याचिकाओं को सुप्रीम कोर्ट में स्थानांतरित करने की मांग करने वाली याचिकाओं पर छह जनवरी को सुनवाई करेगा.
एडवोकेट मेनका गुरुस्वामी और एडवोकेट करुणा नंदी ने भारत के मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली बेंच के समक्ष इस मामले का उल्लेख किया, जिसमें जस्टिस पीएस नरसिम्हा भी शामिल थे.
नंदी ने अदालत को बताया कि समान लिंग विवाह से संबंधित अलग लेकिन समान मामला शीर्ष अदालत के समक्ष लंबित है और 6 जनवरी को सुनवाई होनी है, इसलिए स्थानांतरण याचिकाओं को भी सूचीबद्ध किया जाए. उन्होंने कहा कि दिल्ली और केरल के विभिन्न उच्च न्यायालयों के समक्ष एक ही तरह की याचिकाएं लंबित हैं, इसलिए इसे शीर्ष अदालत में एक साथ रखा और सुना जा सकता है.
CJI ने सहमति व्यक्त की और 6 जनवरी को सभी याचिकाओं पर एक साथ सुनवाई के लिए मामले को सूचीबद्ध किया. समलैंगिक विवाह की मांग वाली याचिकाओं की पिछली सुनवाई में शीर्ष अदालत ने नोटिस जारी किया था.
लंबित याचिकाओं में से एक युगल द्वारा दायर की गई थी जो पिछले 10 वर्षों से एक साथ हैं. उन्होंने एक समारोह आयोजित किया था, जिसमें दोस्त और रिश्तेदार शामिल हुए थे. उन्होंने विशेष विवाह अधिनियम के तहत उस समारोह को विवाह घोषित करने की मांग की थी.
एक याचिका एक अन्य जोड़े द्वारा दायर की गई थी जो पिछले 17 वर्षों से एक साथ हैं. वह एक साथ बच्चों की परवरिश कर रहे हैं लेकिन शादी नहीं कर सकते क्योंकि यह भारत में कानूनी नहीं है. इससे माता-पिता और उनके बच्चों के सामने कानूनी समस्या पैदा हो गई है.
एक याचिका एक युगल द्वारा दायर की गई है, जिसमें से एक भारतीय नागरिक है और दूसरा संयुक्त राज्य अमेरिका का नागरिक है. उन्होंने 2014 में संयुक्त राज्य अमेरिका में अपनी शादी का पंजीकरण कराया, लेकिन यहां भारत में ऐसा नहीं कर सके और अब इसे विदेशी विवाह अधिनियम, 1969 के तहत पंजीकृत कराना चाहते हैं. इन सभी दलीलों पर नोटिस जारी किए गए थे.
2018 में सुप्रीम कोर्ट ने धारा 377 को कम कर दिया था और फैसला सुनाया था कि दो समान लिंगों के बीच सहमति से सेक्स करना कोई अपराध नहीं है और यौन रुझान स्वाभाविक है जिस पर लोगों का कोई नियंत्रण नहीं है. हालांकि, समान लिंग विवाहों को निर्णय के माध्यम से मान्यता नहीं दी गई थी. फैसला 5 जजों की संविधान पीठ ने सुनाया. सुप्रीम कोर्ट से पहले, दिल्ली उच्च न्यायालय ने 2009 में इसे अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया था, लेकिन 2013 में शीर्ष अदालत ने इसे पलट दिया था.
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