नई दिल्ली : उच्चतम न्यायालय ने गुरुवार को एक फैसला सुनाते हुए कहा कि किसी व्यक्ति को तीन महीने की अवधि से अधिक प्रिवेंटिव डिटेंशन में नहीं रखा जा सकता है. हालांकि, कोर्ट ने कहा कि यदि सलाहकार बोर्ड इस बात की पुष्टि करे की व्यक्ति को प्रिवेटिव डिटेंशन में रखने के लिए पर्याप्त कारण हैं तो यह अवधि बढ़ाई जा सकती है. एक महत्वपूर्ण फैसले में, शीर्ष अदालत ने यह भी कहा कि राज्य सरकार को सलाहकार बोर्ड की रिपोर्ट के बाद पुष्टिकरण आदेश पारित करने के बाद हर तीन महीने में हिरासत के अपने आदेशों की समीक्षा करने की आवश्यकता नहीं है.
संविधान का अनुच्छेद 22(4) कुछ मामलों में गिरफ्तारी और हिरासत के खिलाफ सुरक्षा से संबंधित है और कहता है कि प्रिवेंटिव हिरासत का प्रावधान करने वाला कोई भी कानून किसी व्यक्ति को तीन महीने से अधिक समय तक हिरासत में रखने की अनुमति नहीं देगा. जब तक कि- (ए) एक सलाहकार बोर्ड, जिसमें ऐसा व्यक्ति जो उच्च न्यायालय का न्यायाधीश है या था या नियुक्त होने के योग्य है, ने तीन महीने की उक्त अवधि की समाप्ति से पहले रिपोर्ट दी है कि उनकी राय में इस तरह की हिरासत के लिए पर्याप्त कारण हैं.
मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति जे बी पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने अपने 75-पृष्ठ के फैसले में कहा कि संविधान के अनुच्छेद 22(4)(ए) में निर्धारित तीन महीने की अवधि हिरासत की प्रारंभिक अवधि से लेकर सलाहकार बोर्ड की रिपोर्ट प्राप्त होने के चरण तक संबंधित है.
न्यायमूर्ति पारदीवाला ने फैसला लिखते हुए कहा कि राज्य सरकार की ओर से पारित पुष्टिकरण आदेश के अनुसार हिरासत को जारी रखने के लिए हिरासत की अवधि निर्दिष्ट करने की भी आवश्यकता नहीं है और न ही यह केवल तीन महीने की अवधि तक सीमित है.
उन्होंने अपने फैसले में कहा कि यदि पुष्टिकरण आदेश में कोई अवधि निर्दिष्ट है, तो हिरासत की अवधि उस अवधि तक होगी, यदि कोई अवधि निर्दिष्ट नहीं है, तो यह हिरासत की तारीख से अधिकतम बारह महीने की अवधि के लिए होगी. हमारे विचार में, राज्य सरकार को पुष्टिकरण आदेश पारित करने के बाद हर तीन महीने में हिरासत के आदेश की समीक्षा करने की आवश्यकता नहीं है.
यह फैसला पेसाला नुकराजू की अपील पर आया, जिसे 25 अगस्त, 2022 को आंध्र प्रदेश बूटलेगर्स, डकैतों, ड्रग अपराधियों, गुंडों, अनैतिक तस्करी अपराधियों और भूमि कब्जा करने वालों की खतरनाक गतिविधियों की रोकथाम अधिनियम, 1986 के तहत अवैध शराब की गतिविधियों में शामिल होने के लिए हिरासत में लिया गया था. आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने काकीनाडा के जिला मजिस्ट्रेट की ओर से पारित हिरासत आदेश के खिलाफ उनकी याचिका खारिज कर दी थी.
शीर्ष अदालत ने यह कहते हुए याचिका खारिज कर दी कि एक बार सलाहकार बोर्ड ने हिरासत की पुष्टि कर दी, तो उसे 12 महीने की अवधि के लिए प्रिवेंटिव हिरासत में रखा जा सकता है. पिछले निर्णयों का हवाला देते हुए, इसमें कहा गया है कि चूंकि कानून में हिरासत में लेने वाले प्राधिकारी को उस अवधि को निर्दिष्ट करने की आवश्यकता नहीं है जिसके लिए एक बंदी को हिरासत में लिया जाना आवश्यक है, ऐसे विनिर्देश के अभाव में हिरासत के आदेश को अमान्य या अवैध नहीं ठहराया जाएगा.
फैसले में कहा गया है कि मौजूदा मामले में, हिरासत में लेने वाले प्राधिकारी ने हिरासत के आधार में विशेष रूप से कहा है कि अपीलकर्ता बंदी द्वारा शराब बेचना और उस इलाके के लोगों द्वारा शराब का सेवन उनके स्वास्थ्य के लिए हानिकारक था. इस तरह का बयान उनकी व्यक्तिपरक आशंका की अभिव्यक्ति है कि हिरासत में लिए गए अपीलकर्ता की गतिविधियां सार्वजनिक व्यवस्था के रखरखाव के लिए प्रतिकूल हैं.
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इतना ही नहीं, हिरासत में लेने वाले प्राधिकारी ने यह आशंका भी दर्ज की है कि हिरासत में लिए गए व्यक्ति को ऐसी गतिविधियों में शामिल होने से रोकना आवश्यक है और यह आशंका रिकॉर्ड पर मौजूद विश्वसनीय सबूतों के आधार पर जताई गई थी.