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संजय राउत का 'रोखठोक' : राजनिष्ठ कभी देशभक्त नहीं हो सकता

दुश्मनों से हारने के बाद भी जिन्होंने देश भक्ति नहीं छोड़ी, वह थे फ्रांस के गॉल (Charles de Gaulle)! आज राजनिष्ठा, स्वामी भक्ति के आगे देशभक्ति का महत्व शेष नहीं बचा है. किसी शासक या राजा को मुश्किल में डालना देशभक्ति नहीं है. गलती करने वाले राजा को दृढ़तापूर्वक सच्चाई से अवगत कराना वास्तविक राष्ट्रनिष्ठा है. पढ़िए, 'सामना' के कार्यकारी संपादक संजय राउत के साप्ताहिक कॉलम 'रोखठोक' में छपा लेख...

संजय राउत
संजय राउत
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Published : Jun 20, 2021, 10:03 AM IST

देशभक्ति और राजनिष्ठा दो अलग-अलग अवधारणाएं हैं. देश से प्यार करना और शासकों से प्यार करना दो अलग-अलग चीजें हैं. हमारे देश में इसका घालमेल हो रहा है. स्वामी निष्ठा, राजनिष्ठा हो सकती है. लेकिन आप इसे देशभक्ति कैसे कहेंगे? स्वामी अर्थात राजा से जो प्यार नहीं करता है वह देशद्रोही है, देश की सुप्रीम कोर्ट ने इस पर चाबुक चलाया है.

सरकार के खिलाफ, प्रधानमंत्री व राष्ट्रपति के खिलाफ नहीं बोलना है. ऐसा करने पर सरकार के खिलाफ उसे उखाड़ फेंकने की साजिश रचने के आरोप में मुकदमा दायर किया जाएगा. इस आशंका पर सुप्रीम कोर्ट ने प्रतिक्रिया दी है.

अयोध्या में राम मंदिर के लिए जमीन खरीदने को लेकर बवाल मचा है. संजय सिंह 'आप' पार्टी के सांसद हैं. उन्होंने एक मामला उठाया. अयोध्या में एक जमीन, जिसे दो-पांच मिनट पहले महज दो करोड़ रुपये में खरीदा गया था. उसी जमीन को अगले पांच मिनट में 18 करोड़ रुपये की दिखाकर राम जन्मभूमि ट्रस्ट ने खरीद लिया. इसे राम मंदिर का भूमि घोटाला बताते हुए संजय सिंह ने उजागर किया.

इस पूरे मामले की विस्तृत जांच की मांग शिवसेना सहित कई अन्य दलों ने की है. संजय सिंह के दिल्ली स्थित मकान पर भाजपा कार्यकर्ताओं ने हमला किया. मुंबई स्थित शिवसेना भवन पर मार्च निकाल कर छाती पीटने का कार्यक्रम किया गया.

अयोध्या में भूमि घोटाले की जांच की मांग जो लोग कर रहे हैं, उन्हें हिंदू विरोधी, देशद्रोही आदि घोषित करके मुक्त हो गए. यह एक प्रकार की विकृति है. धार्मिक स्थलों से संबंधित घोटालों की जांच करो, ऐसी मांग करने वालों को देशद्रोही कहना एक विकृति है. यह रामनिष्ठा न होकर राजनिष्ठा है. इसका देशभक्ति से कोई लेना-देना नहीं है.

विवाद पुराना ही है!
देशभक्ति या राजनिष्ठा यह विवाद सनातन काल से चला आ रहा है. आज जो नरेंद्र मोदी के प्रति निष्ठा नहीं रखता वह देश का नहीं है, ऐसा कहा जाता है. किसी दौर में मोदी की जगह इंदिरा गांधी थीं. 'इंदिरा इज इंडिया, इंदिरा मतलब ही भारत' की घोषणा उसी राजनिष्ठा से जन्मी थी. उन्हीं इंदिरा गांधी को 1978 में हिंदुस्तानी वोटरों ने पराजित कर दिया था.

क्या इंदिरा हार गईं, मतलब देश हार गया, ऐसा माना जाए? व्यक्ति आते हैं और चले जाते हैं. देश वहीं रहता है. इसका दृढ़ फौलादी नेतृत्व देशभक्ति का निर्माण करता है. सत्य बोलने वाले और शासकों को आईना दिखाने वालों को देश का दुश्मन ठहराकर उन्हें जेल में डाल दिया जाता है. आज हिंदुस्तान की विभिन्न जेलों में ऐसे कैदियों की संख्या कितनी है? इसे भी सार्वजनिक किया जाना चाहिए.

फ्रांस के तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल द गॉल एक महान चरित्र के गृहस्थ थे. द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, उनकी सच्चाई मिसाल बन गई थी. हिटलर के संभावित हमले का मुकाबला करने के लिए तत्कालीन फ्रांसीसी सरकार ने अरबों रुपये खर्च किए थे, मेजिनो तटबंदी (सुरक्षा घेरा) तैयार किया. फ्रांसीसी सरकार के विशेषज्ञ जब ये दावा कर रहे थे कि सुरक्षा घेरा अभेद्य है, द गॉल ने तभी एक पुस्तक लिखकर प्रमाण सहित यह दिखा दिया कि मेजिनो तटबंदी कितनी अप्रभावी है.

फ्रांसीसी सरकार और सैन्य अधिकारी द गॉल पर भड़क गए व उनके देश के प्रति वफादार न होने का दुष्प्रचार शुरू कर दिया, परंतु गॉल का कहना शत-प्रतिशत सही था. इसका तजुर्बा फ्रांस को तुरंत मिल गया. जर्मन फौज ने हमला कर दिया. मेजिनो तटबंदी जर्मन सेना को चार दिन भी नहीं रोक पाई. गॉल ने जो सच बोला था, उससे ज्यादा देशभक्ति कुछ और हो सकती थी?

जर्मन सेनापति जनरल रोमेल के बारे में विख्यात था कि जब वह मुसीबत में पड़ जाता था, तब वह शत्रु के लिए अधिक घातक सिद्ध होता था. कुछ लोगों का रसायन ऐसा ही होता है कि संकट की घड़ी में उनकी गुणवत्ता और देशभक्ति उफान मारने लगती है. तिलक, गांधी, चर्चिल, सावरकर, ठाकरे इस श्रेणी के लोग हैं. द गॉल की श्रेणी भी वही है.

हिटलर की सेना के सामने सभी फ्रांसीसी सेनापतियों के हाथ-पैर ढीले पड़ गए. लाखों की संख्या वाली फ्रांसीसी सेना ने बिना प्रतिरोध के आत्मसमर्पण कर दिया. परंतु उस अवस्था में द गॉल और उनके नेतृत्व वाली सेना ने बहुत कड़ी टक्कर दी. फ्रांसीसी सरकार के आत्मसमर्पण के बाद वे फ्रांस से निकल गए, लेकिन हिटलर के खिलाफ उनका झंडा लहराता रहा. अब देखिए देशभक्ति क्या होती है.

यह भी पढ़ें- मोदी को टैगोर की बजाय रूजवेल्ट की भूमिका में आना चाहिए !

द गॉल एक सम्मानित व्यक्ति थे. किसी भी परिस्थिति में वह एक दोयम दर्जा स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे और अपने देश का अपमान सहन नहीं करते थे. भागने को मजबूर हुई फ्रांसीसी सरकार के नेता होने के बावजूद वह प्रे. रूजवेल्ट, चर्चिल आदि बड़े राष्ट्रों के नेताओं के साथ समान बर्ताव करते थे.

फ्रांस को थोड़ा भी कम महत्व मिल रहा है, ऐसा प्रतीत होने पर वह बैठक से पैर पटकते हुए तुरंत बाहर निकल जाते थे! गॉल एक राजनिष्ठ, स्वामीनिष्ठ नहीं थे, वह सिर्फ राष्ट्रनिष्ठ थे, इसलिए उनकी वह लड़ाई थी.

'काल' कर्ता की विवेचना
शिवराम महादेव परांजपे 'काल' कर्ता के रूप में प्रसिद्ध हैं. 'काल' में छपा निबंध उस समय बहुत लोकप्रिय हुआ था. देशभक्ति और राजनिष्ठा के संदर्भ में 'काल' कर्ता ने एक जगह अच्छी विवेचना की है. वे कहते हैं, 'देशभक्ति बड़ी बहन और राजनिष्ठा छोटी बहन है. देशभक्ति सभी के मन में उत्पन्न होती है. प्रजा के मन में राजा के प्रति निष्ठा उपजे ऐसी इच्छा राजा के मन में सबसे पहले उत्पन्न होती है और फिर वह भय, दहशत, कानून आदि के शस्त्रों का प्रयोग करके लोगों में राजा के प्रति निष्ठा निर्माण हो गई है, ऐसी तसल्ली अपने मन को देता है.

मनुष्य के मन में देशभक्ति स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होती है. राजनिष्ठा लोगों के मन में पैदा करने के लिए अधिक कृत्रिम प्रयास करने पड़ते हैं. एक प्राकृतिक है, दूसरी को मारकर दबाकर लानी पड़ती है. एक देश के लिए हित में है, दूसरी एक ही व्यक्ति के हित में होती है. स्पष्ट कहा जाए तो देश पहले और राजा दूसरा. देश के लिए राजा, राजा के लिए देश नहीं. देश की सुरक्षा और देश का सुचारू संचालन सुनिश्चित करने के लिए राजा अस्तित्व में आया. राजा शासन कर सके इस मकसद से देश अस्तित्व में नहीं आया.

यह भी पढ़ें- सरकारी योजनाओं के लिए 'दो-बच्चों की नीति' लागू करेगा असम : सीएम सरमा

राजाओं में भी दुष्ट और अत्याचारी राजा होते ही हैं. ऐसे समय में जब देश उस दुष्ट और अत्याचारी राजा के कृत्यों से डूबने लगता है, उस समय राजनिष्ठा से चिपके रहना अर्थात उत्तम सद्गुण नहीं है. यह राष्ट्रनिष्ठा बिल्कुल भी नहीं है. देशभक्तों को सावरकर, तिलक, भगत सिंह की तरह मौत की सजा या कारावास मिलता है. राजनिष्ठा से कई बार सत्ता में पद, राव बहादुर, 'पद्म भूषण' खिताब भी मिलता गया. लोकतांत्रिक व्यवस्था में भी जब 'राजा', 'स्वामी' और राजनिष्ठा को ही महत्व मिलता है, तो देशभक्ति की नाव हिचकोले खाने लगती है.

राज्य अस्थिर कैसे होगा?
उगते सूरज के उपासक राजा के प्रति निष्ठावान ही होते हैं. यहां तक कि जब राष्ट्र संकट में होता है, तब भी जो राजा के प्रति निष्ठावान होते हैं, उनसे राष्ट्र को वास्तविक खतरा होता है. आज राष्ट्रद्रोह का मतलब निश्चित तौर पर क्या है? यह कोई भी बता नहीं सकता है. किसी भी सरकार की गलतियों को दिखाना यह राज्य को अस्थिर करने का प्रयास नहीं हो सकता.

आंदोलन में हिस्सा लेकर सरकार के खिलाफ बयानबाजी करना, इसके लिए देशद्रोह और आतंकवाद की धाराओं के तहत मामला दर्ज करके अनिश्चित काल के लिए जेल में ठूंसना, इस राजनिष्ठा को यदि कोई राष्ट्रनिष्ठा या देशभक्ति समझता होगा तो देश संकट में है. दुश्मन के खिलाफ लड़ना अक्सर आसान होता है, लेकिन यह राजा के प्रति निष्ठा रखने वाले मूर्खों की फौज के खिलाफ लड़ने जितना मुश्किल नहीं हो जाता है.

भगवान श्रीराम 14 वर्ष के लिए वनवास में गए, जो कि राजनिष्ठा ही थी. परंतु वह गृह-कलह टालने के लिए घर से बाहर निकले थे. पिता की कठिनाई समझकर वह वनवासी हो गए.

राम मंदिर भूमि घोटाले की जांच करो, ऐसी मांग करने वालों को राष्ट्रद्रोही ठहराना राजनिष्ठा ही है. महंगाई, भ्रष्टाचार, आर्थिक अव्यवस्था और स्वास्थ्य संबंधित अराजकता फैली होने के बाद भी ऐसी सरकार का पक्ष लेने वाले राजनिष्ठ ही कहे जाते हैं. ये सब देशभक्ति की श्रेणी में नहीं आता है.

यह भी पढ़ें- फादर्स डे : मैंने अपने पिता से हार्ड वर्क, ईमानदारी व दमदारी सीखी है इसलिए डरती नहीं : IPS अंकिता

'काल' कर्ता जो कहते हैं, वही सच है. देशभक्ति और राजनिष्ठा में देशभक्ति का ही महत्व होना चाहिए. देशभक्ति हर इंसान के मन में हमेशा जिंदा रहनी चाहिए. जब राजा अच्छा होता है, तो देशभक्ति और वफादारी एक जैसी होती है. क्योंकि उस समय राजा के प्रति निष्ठा रखने से ही राष्ट्रभक्ति करने का पुण्य मिलता है. लेकिन जब राजा खराब, मतलबी, व्यापारिक प्रवृत्ति का होगा तब उस समय राजनिष्ठा की तुलना में देशभक्ति का महत्व ज्यादा हो जाता है.

अगर फ्रांसीसी नेता 'द गॉल' जैसा राजा होगा, तो राजनिष्ठा और देशभक्ति एक ही माला के मोती होते हैं. लेकिन अब 'द गॉल' कहां हैं?

(संजय राउत / कार्यकारी संपादक- सामना)

देशभक्ति और राजनिष्ठा दो अलग-अलग अवधारणाएं हैं. देश से प्यार करना और शासकों से प्यार करना दो अलग-अलग चीजें हैं. हमारे देश में इसका घालमेल हो रहा है. स्वामी निष्ठा, राजनिष्ठा हो सकती है. लेकिन आप इसे देशभक्ति कैसे कहेंगे? स्वामी अर्थात राजा से जो प्यार नहीं करता है वह देशद्रोही है, देश की सुप्रीम कोर्ट ने इस पर चाबुक चलाया है.

सरकार के खिलाफ, प्रधानमंत्री व राष्ट्रपति के खिलाफ नहीं बोलना है. ऐसा करने पर सरकार के खिलाफ उसे उखाड़ फेंकने की साजिश रचने के आरोप में मुकदमा दायर किया जाएगा. इस आशंका पर सुप्रीम कोर्ट ने प्रतिक्रिया दी है.

अयोध्या में राम मंदिर के लिए जमीन खरीदने को लेकर बवाल मचा है. संजय सिंह 'आप' पार्टी के सांसद हैं. उन्होंने एक मामला उठाया. अयोध्या में एक जमीन, जिसे दो-पांच मिनट पहले महज दो करोड़ रुपये में खरीदा गया था. उसी जमीन को अगले पांच मिनट में 18 करोड़ रुपये की दिखाकर राम जन्मभूमि ट्रस्ट ने खरीद लिया. इसे राम मंदिर का भूमि घोटाला बताते हुए संजय सिंह ने उजागर किया.

इस पूरे मामले की विस्तृत जांच की मांग शिवसेना सहित कई अन्य दलों ने की है. संजय सिंह के दिल्ली स्थित मकान पर भाजपा कार्यकर्ताओं ने हमला किया. मुंबई स्थित शिवसेना भवन पर मार्च निकाल कर छाती पीटने का कार्यक्रम किया गया.

अयोध्या में भूमि घोटाले की जांच की मांग जो लोग कर रहे हैं, उन्हें हिंदू विरोधी, देशद्रोही आदि घोषित करके मुक्त हो गए. यह एक प्रकार की विकृति है. धार्मिक स्थलों से संबंधित घोटालों की जांच करो, ऐसी मांग करने वालों को देशद्रोही कहना एक विकृति है. यह रामनिष्ठा न होकर राजनिष्ठा है. इसका देशभक्ति से कोई लेना-देना नहीं है.

विवाद पुराना ही है!
देशभक्ति या राजनिष्ठा यह विवाद सनातन काल से चला आ रहा है. आज जो नरेंद्र मोदी के प्रति निष्ठा नहीं रखता वह देश का नहीं है, ऐसा कहा जाता है. किसी दौर में मोदी की जगह इंदिरा गांधी थीं. 'इंदिरा इज इंडिया, इंदिरा मतलब ही भारत' की घोषणा उसी राजनिष्ठा से जन्मी थी. उन्हीं इंदिरा गांधी को 1978 में हिंदुस्तानी वोटरों ने पराजित कर दिया था.

क्या इंदिरा हार गईं, मतलब देश हार गया, ऐसा माना जाए? व्यक्ति आते हैं और चले जाते हैं. देश वहीं रहता है. इसका दृढ़ फौलादी नेतृत्व देशभक्ति का निर्माण करता है. सत्य बोलने वाले और शासकों को आईना दिखाने वालों को देश का दुश्मन ठहराकर उन्हें जेल में डाल दिया जाता है. आज हिंदुस्तान की विभिन्न जेलों में ऐसे कैदियों की संख्या कितनी है? इसे भी सार्वजनिक किया जाना चाहिए.

फ्रांस के तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल द गॉल एक महान चरित्र के गृहस्थ थे. द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, उनकी सच्चाई मिसाल बन गई थी. हिटलर के संभावित हमले का मुकाबला करने के लिए तत्कालीन फ्रांसीसी सरकार ने अरबों रुपये खर्च किए थे, मेजिनो तटबंदी (सुरक्षा घेरा) तैयार किया. फ्रांसीसी सरकार के विशेषज्ञ जब ये दावा कर रहे थे कि सुरक्षा घेरा अभेद्य है, द गॉल ने तभी एक पुस्तक लिखकर प्रमाण सहित यह दिखा दिया कि मेजिनो तटबंदी कितनी अप्रभावी है.

फ्रांसीसी सरकार और सैन्य अधिकारी द गॉल पर भड़क गए व उनके देश के प्रति वफादार न होने का दुष्प्रचार शुरू कर दिया, परंतु गॉल का कहना शत-प्रतिशत सही था. इसका तजुर्बा फ्रांस को तुरंत मिल गया. जर्मन फौज ने हमला कर दिया. मेजिनो तटबंदी जर्मन सेना को चार दिन भी नहीं रोक पाई. गॉल ने जो सच बोला था, उससे ज्यादा देशभक्ति कुछ और हो सकती थी?

जर्मन सेनापति जनरल रोमेल के बारे में विख्यात था कि जब वह मुसीबत में पड़ जाता था, तब वह शत्रु के लिए अधिक घातक सिद्ध होता था. कुछ लोगों का रसायन ऐसा ही होता है कि संकट की घड़ी में उनकी गुणवत्ता और देशभक्ति उफान मारने लगती है. तिलक, गांधी, चर्चिल, सावरकर, ठाकरे इस श्रेणी के लोग हैं. द गॉल की श्रेणी भी वही है.

हिटलर की सेना के सामने सभी फ्रांसीसी सेनापतियों के हाथ-पैर ढीले पड़ गए. लाखों की संख्या वाली फ्रांसीसी सेना ने बिना प्रतिरोध के आत्मसमर्पण कर दिया. परंतु उस अवस्था में द गॉल और उनके नेतृत्व वाली सेना ने बहुत कड़ी टक्कर दी. फ्रांसीसी सरकार के आत्मसमर्पण के बाद वे फ्रांस से निकल गए, लेकिन हिटलर के खिलाफ उनका झंडा लहराता रहा. अब देखिए देशभक्ति क्या होती है.

यह भी पढ़ें- मोदी को टैगोर की बजाय रूजवेल्ट की भूमिका में आना चाहिए !

द गॉल एक सम्मानित व्यक्ति थे. किसी भी परिस्थिति में वह एक दोयम दर्जा स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे और अपने देश का अपमान सहन नहीं करते थे. भागने को मजबूर हुई फ्रांसीसी सरकार के नेता होने के बावजूद वह प्रे. रूजवेल्ट, चर्चिल आदि बड़े राष्ट्रों के नेताओं के साथ समान बर्ताव करते थे.

फ्रांस को थोड़ा भी कम महत्व मिल रहा है, ऐसा प्रतीत होने पर वह बैठक से पैर पटकते हुए तुरंत बाहर निकल जाते थे! गॉल एक राजनिष्ठ, स्वामीनिष्ठ नहीं थे, वह सिर्फ राष्ट्रनिष्ठ थे, इसलिए उनकी वह लड़ाई थी.

'काल' कर्ता की विवेचना
शिवराम महादेव परांजपे 'काल' कर्ता के रूप में प्रसिद्ध हैं. 'काल' में छपा निबंध उस समय बहुत लोकप्रिय हुआ था. देशभक्ति और राजनिष्ठा के संदर्भ में 'काल' कर्ता ने एक जगह अच्छी विवेचना की है. वे कहते हैं, 'देशभक्ति बड़ी बहन और राजनिष्ठा छोटी बहन है. देशभक्ति सभी के मन में उत्पन्न होती है. प्रजा के मन में राजा के प्रति निष्ठा उपजे ऐसी इच्छा राजा के मन में सबसे पहले उत्पन्न होती है और फिर वह भय, दहशत, कानून आदि के शस्त्रों का प्रयोग करके लोगों में राजा के प्रति निष्ठा निर्माण हो गई है, ऐसी तसल्ली अपने मन को देता है.

मनुष्य के मन में देशभक्ति स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होती है. राजनिष्ठा लोगों के मन में पैदा करने के लिए अधिक कृत्रिम प्रयास करने पड़ते हैं. एक प्राकृतिक है, दूसरी को मारकर दबाकर लानी पड़ती है. एक देश के लिए हित में है, दूसरी एक ही व्यक्ति के हित में होती है. स्पष्ट कहा जाए तो देश पहले और राजा दूसरा. देश के लिए राजा, राजा के लिए देश नहीं. देश की सुरक्षा और देश का सुचारू संचालन सुनिश्चित करने के लिए राजा अस्तित्व में आया. राजा शासन कर सके इस मकसद से देश अस्तित्व में नहीं आया.

यह भी पढ़ें- सरकारी योजनाओं के लिए 'दो-बच्चों की नीति' लागू करेगा असम : सीएम सरमा

राजाओं में भी दुष्ट और अत्याचारी राजा होते ही हैं. ऐसे समय में जब देश उस दुष्ट और अत्याचारी राजा के कृत्यों से डूबने लगता है, उस समय राजनिष्ठा से चिपके रहना अर्थात उत्तम सद्गुण नहीं है. यह राष्ट्रनिष्ठा बिल्कुल भी नहीं है. देशभक्तों को सावरकर, तिलक, भगत सिंह की तरह मौत की सजा या कारावास मिलता है. राजनिष्ठा से कई बार सत्ता में पद, राव बहादुर, 'पद्म भूषण' खिताब भी मिलता गया. लोकतांत्रिक व्यवस्था में भी जब 'राजा', 'स्वामी' और राजनिष्ठा को ही महत्व मिलता है, तो देशभक्ति की नाव हिचकोले खाने लगती है.

राज्य अस्थिर कैसे होगा?
उगते सूरज के उपासक राजा के प्रति निष्ठावान ही होते हैं. यहां तक कि जब राष्ट्र संकट में होता है, तब भी जो राजा के प्रति निष्ठावान होते हैं, उनसे राष्ट्र को वास्तविक खतरा होता है. आज राष्ट्रद्रोह का मतलब निश्चित तौर पर क्या है? यह कोई भी बता नहीं सकता है. किसी भी सरकार की गलतियों को दिखाना यह राज्य को अस्थिर करने का प्रयास नहीं हो सकता.

आंदोलन में हिस्सा लेकर सरकार के खिलाफ बयानबाजी करना, इसके लिए देशद्रोह और आतंकवाद की धाराओं के तहत मामला दर्ज करके अनिश्चित काल के लिए जेल में ठूंसना, इस राजनिष्ठा को यदि कोई राष्ट्रनिष्ठा या देशभक्ति समझता होगा तो देश संकट में है. दुश्मन के खिलाफ लड़ना अक्सर आसान होता है, लेकिन यह राजा के प्रति निष्ठा रखने वाले मूर्खों की फौज के खिलाफ लड़ने जितना मुश्किल नहीं हो जाता है.

भगवान श्रीराम 14 वर्ष के लिए वनवास में गए, जो कि राजनिष्ठा ही थी. परंतु वह गृह-कलह टालने के लिए घर से बाहर निकले थे. पिता की कठिनाई समझकर वह वनवासी हो गए.

राम मंदिर भूमि घोटाले की जांच करो, ऐसी मांग करने वालों को राष्ट्रद्रोही ठहराना राजनिष्ठा ही है. महंगाई, भ्रष्टाचार, आर्थिक अव्यवस्था और स्वास्थ्य संबंधित अराजकता फैली होने के बाद भी ऐसी सरकार का पक्ष लेने वाले राजनिष्ठ ही कहे जाते हैं. ये सब देशभक्ति की श्रेणी में नहीं आता है.

यह भी पढ़ें- फादर्स डे : मैंने अपने पिता से हार्ड वर्क, ईमानदारी व दमदारी सीखी है इसलिए डरती नहीं : IPS अंकिता

'काल' कर्ता जो कहते हैं, वही सच है. देशभक्ति और राजनिष्ठा में देशभक्ति का ही महत्व होना चाहिए. देशभक्ति हर इंसान के मन में हमेशा जिंदा रहनी चाहिए. जब राजा अच्छा होता है, तो देशभक्ति और वफादारी एक जैसी होती है. क्योंकि उस समय राजा के प्रति निष्ठा रखने से ही राष्ट्रभक्ति करने का पुण्य मिलता है. लेकिन जब राजा खराब, मतलबी, व्यापारिक प्रवृत्ति का होगा तब उस समय राजनिष्ठा की तुलना में देशभक्ति का महत्व ज्यादा हो जाता है.

अगर फ्रांसीसी नेता 'द गॉल' जैसा राजा होगा, तो राजनिष्ठा और देशभक्ति एक ही माला के मोती होते हैं. लेकिन अब 'द गॉल' कहां हैं?

(संजय राउत / कार्यकारी संपादक- सामना)

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