नई दिल्ली : आज समाजवादी पार्टी का स्थापना दिवस है और दूसरी ओर समाजवादी पार्टी के नेता व कार्यकर्ता मुलायम सिंह यादव की सेहत को लेकर फिक्रमंद हैं. समाजवादी पार्टी की स्थापना आज से 3 दशक पहले 4 अक्टूबर 1992 को लखनऊ में की गयी थी. समाजवादी विचारधारा को मानने वाले नेताओं ने पहले जनता दल का गठन किया था, लेकिन जब यह जनता दल आपसी विरोधाभासों के साथ साथ कुर्सी व पद की लालच में टूट गया तो मुलायम सिंह यादव ने अपने कुछ खास सहयोगियों के साथ चर्चा करके नयी पार्टी की नींव रखी थी.
मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी में कई खाटी समाजवादी नेताओं की जमात थी, तो अब बदलते दौर में सपा एक नए रूप में आगे बढ़ रही है. मुलायम सिंह यादव के बेटे अखिलेश यादव न सिर्फ अपने नेतृत्व में सपा की पूर्ण बहुमत की सरकार बनवा चुके हैं, वहीं वह लगातार दो लोकसभा व दो विधानसभा चुनावों में पार्टी को बुरी तरह से हार के लिए जिम्मेदार ठहराए जाते हैं. फिर भी वह उत्तर प्रदेश में एक मजबूत विपक्ष के रुप में अपने पिता की विरासत को संभालने की कोशिश कर रहे हैं. आइए डालते हैं समाजवादी पार्टी की स्थापना से लेकर अब तक के सफर पर एक नजर....
कहा जाता है कि 1989 के चुनाव में जनता दल की मजबूत उपस्थिति ने उत्तर प्रदेश के साथ साथ केरल, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और पंजाब जैसे राज्यों में बेहतर परिणाम दिया, लेकिन मुलायम सिंह के यूपी के मुख्यमंत्री के रूप में आने बाद भी जनता दल की गुटबाजी से परेशान दिख रहे थे. वह जनता दल में वीपी सिंह और चंद्रशेखर के नेतृत्व वाली गुटबाजी व लड़ाई के शिकार हो गए. इसके लिए वह काफी दिनों से कुछ नया करने की सोचते रहे ताकि इन नेताओं की गुटबाजी के झंझट से मुक्ति मिले. जब 1990 में देश भर में जनता दल का विभाजन हुआ, तो मुलायम सिंह ने वी पी सिंह से अलग होने का फैसला किया और चंद्रशेखर सिंह के साथ समाजवादी जनता पार्टी (एसजेपी) के नेतृत्व वाले गुट में शामिल हो गए. मुलायम सिंह ने 1991 के विधानसभा चुनावों के प्रचार के दौरान कांशीराम के साथ भी सौहार्दपूर्ण संबंध स्थापित किए और धीरे धीरे अपनी एक अलग पार्टी के बारे में सोचने लगे.
सपा की स्थापना से पहले मुलायम के पास तीन दशक की सक्रिय व मुख्य धारा की राजनीति का अनुभव था. वह 1967 में पहली बार विधायक बने थे और 1977 में पहली बार मंत्री और 1989 में पहली बार मुख्यमंत्री बने चुके थे. समाजवादी पार्टी बनाने के पहले वह चन्द्रशेखर सिंह की अगुवाई वाली समाजवादी जनता पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष के रुप में काम कर रहे थे. इसके बाद उन्होंने अगस्त 1992 में ही समाजवादियों को इकट्ठा कर नया दल बनाने का मन बना लिया और इसकी तेजी से तैयारी भी शुरू की.
बताया जाता है कि इसी बीच सितंबर 92 के आखिरी दिनों में देवरिया जिले के रामकोला में किसानों पर गोली चल गई और इस घटना में 2 लोगों की मौत हो गई थी. इस दौरान मुलायम सिंह यादव लखनऊ से देवरिया के लिए रवाना हुए लेकिन उन्हें गिरफ्तार कर वाराणसी के सेंट्रल जेल शिवपुर में भेज दिया गया. वह किसानों पर हुए अत्याचार से आहत थे और किसानों की आवाज किसी भी राजनीतिक दल के द्वारा उठाने की संभावना न के बराबर दिख रही थी. मुलायम सिंह यादव ने किसानों के हक में किसी राजनीतिक दल के खड़े न होने के कारण वाराणसी के शिवपुर जेल में ही उन्होंने नई पार्टी के गठन की योजना को अंतिम रूप दिया था. अपने साथ जेल में बंद ईशदत्त यादव, बलराम यादव, वसीम अहमद व कुछ अन्य नेताओं से उन्होंने इस संबंध में विस्तार से चर्चा करके अपने मन की बात बतायी थी.
सपा की स्थापना के दो महीने बाद ही 6 दिसंबर 1992 में अयोध्या में विवादित ढांचा गिरा दिया गया तो तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह की सरकार बर्खास्त कर दी गई और प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लग गया. कहा जाता है कि घटना से पांच दिन पहले ही मुलायम सिंह ने कई प्रमुख नेताओं के साथ राष्ट्रपति से मुलाकात कर बाबरी मस्जिद को गिराए जाने की आशंका जताई थी. कहा जाता है कि उनकी यह आशंका सही साबित हुई. यही दौर राम जन्म भूमि आंदोलन के पूरे उभार के रुप में जाना जाता है. इसके बाद 1993 के आखिर में विधानसभा चुनाव हुए तो मुलायम सिंह ने भाजपा की चुनौती को स्वीकारते हुए बसपा के अध्यक्ष कांशीराम से गठबंधन किया और भाजपा की सरकार से सत्ता छीन ली. सपा की स्थापना के 11 माह बाद ही मुलायम सिंह सपा-बसपा गठबंधन सरकार के मुख्यमंत्री बनकर अपनी राजनीतिक परिपक्वता दिखा चुके थे. इस जीत को यह उनकी बड़ी राजनीतिक जीत कहा जाता है. इसके बाद वह 2003 में जोड़तोड़ करके फिर मुख्यमंत्री बने. लेकिन 2007 में मायावती ने उनके हाथ से सत्ता छीनकर अपनी पूर्ण बहुमत की सरकार बनायी.
ऐसे बढ़ता गया अखिलेश यादव का कद
अखिलेश यादव 1999 में राजनीति में सक्रिय होने लगे और सबसे पहले वर्ष 2000 में वह कन्नौज सीट पर उपचुनाव जीतकर लोकसभा में पहुंचे. यह सीट मुलायम सिंह के दो जगह से चुनाव जीतने के बाद कन्नौज सीट छोड़ने पर खाली हुई थी. इसी सीट से वे 2004 और 2009 में विजयी हुए और लगातार दो बार लोकसभा में पहुंचे. अगस्त 2002 में सपा के भोपाल अधिवेशन में अखिलेश यादव को युवा संगठनों का प्रभारी बनाया गया. इसके बाद अखिलेश को मुलायम सिंह यादव ने जून 2009 में शिवपाल सिंह यादव की जगह नया प्रदेश अध्यक्ष बना दिया. इसी के बाद से लगने लगा कि मुलायम सिंह यादव अखिलेश को अपनी राजनीतिक विरासत सौंपना चाहते हैं. इसके बाद अखिलेश यादव ने तीन साल तक पार्टी के लिए मेहनत की और अपने दम पर पुराने नेताओं का साथ लेकर वर्ष 2012 में पहली बार सपा की पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनायी. हालांकि सपा को 2014 के लोकसभा चुनाव में जरूर झटका लगा जब उसके केवल 5 सांसद चुने गए. अखिलेश यादव को लखनऊ में एक जनवरी 2017 को सपा संस्थापक मुलायम सिंह यादव को पद से हटाकर पहली बार पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन गए थे, क्योंकि उनको अपने चाचा शिवपाल यादव पर भरोसा नहीं था और ऐसी संभावना थी कि वह पार्टी पर कब्जा करने की योजना बना रहे थे. इसके बाद 5 अक्टूबर, 2017 को आगरा के राष्ट्रीय अधिवेशन में सर्वसम्मति से अखिलेश को दोबारा राष्ट्रीय अध्यक्ष चुना गया था. बता दें कि इसके लिए पार्टी संविधान में संशोधन किया गया था और अखिलेश को पांच साल के लिए अध्यक्ष चुना गया था. इसके बाद 2017 में उत्तर प्रदेश में विधानसभा के चुनाव में समाजवादी पार्टी को हार का सामना करना पड़ा और उसके केवल 47 विधायक ही जीत सके. इसके बाद कुछ ऐसा ही हाल 2019 के लोकसभा चुनाव में हुआ जब केवल 5 सांसदों से सपा को संतोष करना पड़ा और तब ऐसा लगने लगा कि अखिलेश यादव समाजवादी पार्टी को संभालने में असफल साबित हो रहे हैं.
लेकिन 2022 के विधानसभा चुनाव में भी 111 विधानसभा सीटे जीतने के बाद अपनी मेहनत व भाजपा की डबल इंजन की सरकार को तगड़ी चुनौती देते हुए अपनी राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाने के लिए जीतोड़ मेहनत कर रहे हैं और माना जा रहा है कि उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी ही भाजपा का विकल्प बनने की स्थिति में है, क्योंकि विधानसभा में दोगुनी सीटें पाने के बाद सपा अब अपना ध्यान नगर निकाय चुनावों पर लगा रही है, ताकि पार्टी के वोट बैंक को बढ़ाया जाय.
अभी हाल में सपा के राज्य सम्मेलन के बाद 29 सितंबर को समाजवादी पार्टी के 11वें राष्ट्रीय सम्मेलन में अखिलेश यादव को लगातार तीसरी बार राष्ट्रीय अध्यक्ष चुना गया. इस सम्मेलन के जरिए सपा वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए पार्टी की रणनीति को अंतिम रूप देने के साथ साथ पार्टी को और मजबूत करने के लिए कई और फैसले लेने की तैयारी कर रही है. जिससे ऐसा लग रहा है कि बदलते दौर में अखिलेश यादव समाजवादी पार्टी के जनाधार को बरकरार रखने के लिए सड़कों पर आंदोलन की रणनीति बनाएंगे.
इस काम में भी सफल रहे अखिलेश
कहा जाता है कि देश देश की राजनीति में केवल मुलायम सिंह यादव ही एकमात्र ऐसे राजनेता थे, जो पूरे परिवार को राजनीति में उतार लाए थे और उसी के दम पर सपा को फर्श से अर्श तक ले गए. इसी वजह से सपा पर परिवारवादी पार्टी का आरोप लगते रहे. अखिलेश यादव पार्टी को इसी छबि से बचाने की कोशिश करते रहे और पार्टी के उन नेताओं को धीरे धीरे पार्टी से अलग करते रहे, जो पार्टी में अनावश्यक रुप से हस्तक्षेप कर रहे थे. शिवपाल यादव जैसे दिग्गज नेता को भी हासिए पर ला दिया. ऐसा करके उन्होंने पार्टी पर पकड़ बनाने के साथ साथ जीत का तानाबाना न बुनने लगे हैं.
पार्टी में अपराधियों की नो एंट्री
अखिलेश यादव ने सपा में डीपी यादव, मुख्तार अंसारी, अफजाल अंसारी व अन्य अपराधी छबि के नेताओं को न लेने का कड़ा फैसला लेकर वह अपनी राजनीतिक इच्छा शक्ति दिखा चुके हैं. उन्होंने पार्टी की छबि बदलने की कोशिश में पार्टी के कई कद्दावर नेताओं की गलत सलाह व बात मानने से इंकार कर दिया, जिससे कई राजनेता पार्टी छोड़कर बाहर चले गए. इसके बाद भी अखिलेश यादव ने हिम्मत नहीं हारी व अपने दम पर उत्तर प्रदेश में सपा को मुख्य विपक्षी दल के रुप में मजबूती से खड़ा करने में सफल रहे हैं.
सहयोगियों को सहेजने में असफल
कहा जाता है कि अखिलेश यादव पहले राहुल गांधी, फिर मायावती और उसके बाद ओम प्रकाश राजभर जैसे नेता से दोस्ती करके सत्ता की चाभी अपने हाथ में रखने की कोशिश कर चुके हैं, लेकिन वह अपनी इस दोस्ती को स्थायी मित्रता में न बदल सके. वह मुलायम सिंह की तरह क्षेत्रीय व जातीय छत्रपों को मजबूत करने में असफल रहे. कहा जाता है कि पार्टी की छवि सुधारने की कोशिश में वह बड़ा से बड़ा बलिदान देने से भी नहीं चूकने का संदेश पहले भी दे चुके हैं.
अखिलेश यादव की राजनीतिक पारी और विरासत को संभालने की बात पर वरिष्ठ पत्रकार दिनेश गर्ग का कहना है कि उत्तर प्रदेश में भाजपा के मुकाबले पार्टी के खड़ा रखकर अपनी राजनीतिक समझ व मजबूती का परिचय अखिलेश यादव ने दिया है. वह मुलायम सिंह यादव की विरासत को बदले हालात में बदले तौर तरीकों से आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं. पार्टी को 2017 के मुकाबले 2022 में जिस मुकाम तक पहुंचाया वह काबिल तारीफ है. वह योगी के मुकाबले उत्तर प्रदेश में भीड़ एकत्रित करने वाले एकलौते राजनेता हैं. अपनी राजनीतिक पारी को और मजबूती से आगे बढ़ाने के लिए उनको अपने पिता की तरह सलाहकारों से अधिक कार्यकर्ताओं की सुनना होगा. तभी वह प्रदेश की राजनीति में सफल हो पाएंगे.