नई दिल्ली : राइट्स एंड रिस्क एनालिसिस ग्रुप (आरआरएजी) ने बुधवार को भारत के विधि आयोग को अपने प्रस्तुतिकरण सौंपकर देश में समान नागरिक संहिता के लागू करने का विरोध किया है. आआरएजी ने कहा कि देश में 2018 के विधि आयोग के परामर्श पत्र के बाद से कुछ भी नहीं बदला है. इस परामर्श पत्र में उसने विधि आयोग ने कहा था कि 'समान नागरिक संहिता' को लागू करने की न तो आवश्यकता है और न ही इस स्तर पर वांछनीय' है. इसके अलावा कोई भी विधि आयोग की अखंडता, स्वतंत्रता और निष्पक्षता पर सवाल उठा सकते हैं.
आरआरएजी के निदेशक सुहास चकमा ने आगाह किया है कि समान नागरिक संहिता के लिए संवैधानिक संशोधनों की आवश्यकता होगी. विशेष रूप से, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 13(3)(ए), अनुच्छेद 371(ए) और अनुच्छेद 371(जी) में संशोधन की जरूरत है. अनुच्छेद 13(3)(ए) भारत के क्षेत्र में होने वाली प्रथा या उपयोग की स्थिति से संबंधित है, जबकि अनुच्छेद 371(ए) में नागालैंड में प्रथागत कानूनों के लिए गारंटी प्रदान करता और संविधान का अनुच्छेद 371(जी) में मिजोरम में प्रथागत कानूनों के लिए गारंटी प्रदान करता है. नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता से संबंधित भारत के संविधान का अनुच्छेद 44 राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों का एक हिस्सा है और यह भारत के संविधान के अनुच्छेद 13(3)(ए) के तहत गारंटीकृत मौलिक अधिकारों को रद्द या खत्म नहीं कर सकता है.
सुहास चकमा ने कहा, "यदि उत्तर पूर्वी राज्यों को छूट दी जाती है, तो यह सवाल उठेगा कि भारत के संविधान की पांचवीं अनुसूची के तहत आदिवासी क्षेत्रों और उसके बाद, उन विभिन्न समूहों को समान छूट क्यों नहीं दी जानी चाहिए, जिसके बारे में भारत के संविधान के अनुच्छेद 13(3)(ए) के तहत गारंटी दी गई है." उन्होंने कहा कि विभिन्न समूहों को छूट का अर्थ यह है कि यह अब एक समान नहीं है, जिसे भारत सरकार या विधि आयोग बनाए रखना चाहता है.
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चकमा ने कहा कि दुनिया आत्मसातीकरणवादी दृष्टिकोण से हटकर विविधताओं को अपनाने की ओर बढ़ गई है. आदिवासियों के संबंध में, 1957 के आईएलओ कन्वेंशन नंबर 107 ने आत्मसातीकरणवादी दृष्टिकोण की वकालत की और उसी कन्वेंशन को 1989 में विविधताओं के संरक्षण की वकालत करते हुए आईएलओ कन्वेंशन नंबर 169 के साथ बदल दिया गया. उन्होंने कहा, "विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूहों पर भारत की नीतियां और सुप्रीम कोर्ट के कई फैसले भारत में विविधताओं के संरक्षण की पुष्टि करते हैं, न कि भारत के मैकडॉनल्डाइजेशन की." बता दें कि 'मैकडॉनल्डाइजेशन' अन्य संस्कृतियों को भारतीय संस्कृति के साथ मिलाने की एक प्रक्रिया होती है. मैकडॉनल्डाइजेशन एक नई वैश्विक संस्कृति है, जो पारंपरिक खान-पान के तरीकों को बदलने के रास्ते में अब भारत में भी अपनी जड़ें मजबूत कर रही है.