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'विरोध का अधिकार, मौलिक अधिकार है, इसे आतंकी गतिविधि करार नहीं दिया जा सकता' - UAPA terrorist

दिल्ली हाईकोर्ट ने जेएनयू की छात्रा को जमानत प्रदान करते हुए कहा कि सरकार यूएपीए के तहत आतंकी गतिविधि की परिभाषा का मनमाफिक इस्तेमाल कर रही है. इस कानून में इसकी परिभाषा अस्पष्ट है. कोर्ट ने कहा कि सरकार को समझना चाहिए, विरोध का अधिकार मौलिक अधिकार है. इसे आतंकी गतिविधि नहीं ठहरा सकते.

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दिल्ली हाईकोर्ट
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Published : Jun 15, 2021, 7:13 PM IST

नई दिल्ली : दिल्ली उच्च न्यायालय ने मंगलवार को कहा कि विरोध का अधिकार, मौलिक अधिकार है और इसे आतंकी गतिविधि करार नहीं दिया जा सकता. न्यायालय ने संशोधित नागरिकता कानून (सीएए) के खिलाफ विरोध-प्रदर्शन के दौरान उत्तर-पूर्वी दिल्ली दंगे के एक मामले में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की छात्रा देवांगना कालिता को जमानत प्रदान करते हुए उक्त टिप्पणी की.

एक खंडपीठ ने कहा कि अदालत को गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) कानून में उपयोग किए गए निश्चित शब्दों और वाक्यांशों को लागू करने के दौरान बेहद सावधानी बरतनी होगी. साथ ही ऐसे शब्दों और वाक्याशों को आतंकवादी कृत्य जैसे जघन्य अपराधों में हल्के में लेने से सावधान रहना होगा, बिना यह समझे कि आतंकवाद किस तरह पारंपरिक एवं जघन्य अपराध से अलग है.

पीठ ने कहा कि असंतोष को दबाने और मामला हाथ से निकल सकता है, इस डर से राज्य ने संवैधानिक गारंटी वाले 'विरोध के अधिकार' और 'आतंकी गतिविधि' के बीच की रेखा को धुंधला किया.'

न्यायमूर्ति सिद्धार्थ मृदुल और न्यायमूर्ति अनूप जयराम भंभानी की पीठ ने कलिता के खिलाफ यूएपीए लगाने के मामले में विचार-विमर्श के बाद 83 पन्नों के फैसले में कहा, 'अगर इस तरह का धुंधलापन जोर पकड़ता है, तो लोकतंत्र खतरे में पड़ जाएगा.'

उन्होंने कहा कि बिना हथियार के शांतिपूर्वक विरोध-प्रदर्शन करना संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (बी) के अंतर्गत मौलिक अधिकार है और यह अभी बरकरार है.

दिल्ली उच्च न्यायालय ने मंगलवार को कहा कि आतंकवाद रोधी कठोरतम कानून यूएपीए के तहत आतंकवादी गतिविधि की परिभाषा कुछ न कुछ अस्पष्ट है और इसे भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) के तहत आने वाले आपराधिक कृत्यों पर लापरवाह तरीके से लागू नहीं किया जा सकता है.

उच्च न्यायालय ने शीर्ष अदालत के विभिन्न फैसलों का हवाला देते हुए कहा कि अदालत की यह राय है कि गैर कानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) को लागू करने और 2004 एवं 2008 में इसमें संशोधन करने के पीछे संसद का इरादा और उद्देश्य यह था कि आतंकवादी गतिविधियों को इसके दायरे में लाया जाए, इसके जरिए भारत की रक्षा पर गहरा असर डालने वाले विषयों से निपटना था, इससे न कुछ ज्यादा ना कुछ कम (इरादा एवं उद्देश्य) था.

उच्च न्यायालय ने कहा कि यूएपीए के तहत लोगों पर अत्यधिक जघन्य एवं गंभीर दंडनीय प्रावधान लगाना उस कानून को लागू करने में संसद के इरादे और उद्देश्य को कमतर करता है, जिसका मकसद हमारे राष्ट्र के अस्तित्व को पेश आने वाले खतरों से निपटना है.

अदालत ने यह टिप्पणी पिछले साल फरवरी में उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हुए दंगों की व्यापक साजिश रचने के एक मामले में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की छात्राओं और पिंजरा तोड़ मुहिम की कार्यकर्ताओं देवांगना कलिता एवं नताशा नरवाल तथा जामिया मिल्लिया इस्लामिया के छात्र आसिफ इकबाल तन्हा को जमानत देते हुए की.

न्यायमूर्ति सिद्धार्थ मृदुल और न्यायमूर्ति एजे भंभानी की पीठ ने कहा कि हमारे विचार से, यूएपीए की धारा 15 में आतंकवादी गतिविधि की परिभाषा हालांकि व्यापक है और कुछ न कुछ अस्पष्ट है, ऐसे में आतंकवाद के मूल चरित्र को सम्मलित करना होगा और आतंकवादी गतिविधि मुहावरे को उन आपरधिक गतिविधियों पर लापरवाह तरीके से इस्तेमाल करने की इजाजत नहीं दी जा सकती, जो भारतीय दंड संहिता(आईपीसी) के तहत आते हैं.

ये भी पढ़ें : JNU: छात्रसंघ अध्यक्ष आइशी घोष को प्रदर्शन के 3 साल बाद मिला नोटिस

नई दिल्ली : दिल्ली उच्च न्यायालय ने मंगलवार को कहा कि विरोध का अधिकार, मौलिक अधिकार है और इसे आतंकी गतिविधि करार नहीं दिया जा सकता. न्यायालय ने संशोधित नागरिकता कानून (सीएए) के खिलाफ विरोध-प्रदर्शन के दौरान उत्तर-पूर्वी दिल्ली दंगे के एक मामले में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की छात्रा देवांगना कालिता को जमानत प्रदान करते हुए उक्त टिप्पणी की.

एक खंडपीठ ने कहा कि अदालत को गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) कानून में उपयोग किए गए निश्चित शब्दों और वाक्यांशों को लागू करने के दौरान बेहद सावधानी बरतनी होगी. साथ ही ऐसे शब्दों और वाक्याशों को आतंकवादी कृत्य जैसे जघन्य अपराधों में हल्के में लेने से सावधान रहना होगा, बिना यह समझे कि आतंकवाद किस तरह पारंपरिक एवं जघन्य अपराध से अलग है.

पीठ ने कहा कि असंतोष को दबाने और मामला हाथ से निकल सकता है, इस डर से राज्य ने संवैधानिक गारंटी वाले 'विरोध के अधिकार' और 'आतंकी गतिविधि' के बीच की रेखा को धुंधला किया.'

न्यायमूर्ति सिद्धार्थ मृदुल और न्यायमूर्ति अनूप जयराम भंभानी की पीठ ने कलिता के खिलाफ यूएपीए लगाने के मामले में विचार-विमर्श के बाद 83 पन्नों के फैसले में कहा, 'अगर इस तरह का धुंधलापन जोर पकड़ता है, तो लोकतंत्र खतरे में पड़ जाएगा.'

उन्होंने कहा कि बिना हथियार के शांतिपूर्वक विरोध-प्रदर्शन करना संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (बी) के अंतर्गत मौलिक अधिकार है और यह अभी बरकरार है.

दिल्ली उच्च न्यायालय ने मंगलवार को कहा कि आतंकवाद रोधी कठोरतम कानून यूएपीए के तहत आतंकवादी गतिविधि की परिभाषा कुछ न कुछ अस्पष्ट है और इसे भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) के तहत आने वाले आपराधिक कृत्यों पर लापरवाह तरीके से लागू नहीं किया जा सकता है.

उच्च न्यायालय ने शीर्ष अदालत के विभिन्न फैसलों का हवाला देते हुए कहा कि अदालत की यह राय है कि गैर कानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) को लागू करने और 2004 एवं 2008 में इसमें संशोधन करने के पीछे संसद का इरादा और उद्देश्य यह था कि आतंकवादी गतिविधियों को इसके दायरे में लाया जाए, इसके जरिए भारत की रक्षा पर गहरा असर डालने वाले विषयों से निपटना था, इससे न कुछ ज्यादा ना कुछ कम (इरादा एवं उद्देश्य) था.

उच्च न्यायालय ने कहा कि यूएपीए के तहत लोगों पर अत्यधिक जघन्य एवं गंभीर दंडनीय प्रावधान लगाना उस कानून को लागू करने में संसद के इरादे और उद्देश्य को कमतर करता है, जिसका मकसद हमारे राष्ट्र के अस्तित्व को पेश आने वाले खतरों से निपटना है.

अदालत ने यह टिप्पणी पिछले साल फरवरी में उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हुए दंगों की व्यापक साजिश रचने के एक मामले में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की छात्राओं और पिंजरा तोड़ मुहिम की कार्यकर्ताओं देवांगना कलिता एवं नताशा नरवाल तथा जामिया मिल्लिया इस्लामिया के छात्र आसिफ इकबाल तन्हा को जमानत देते हुए की.

न्यायमूर्ति सिद्धार्थ मृदुल और न्यायमूर्ति एजे भंभानी की पीठ ने कहा कि हमारे विचार से, यूएपीए की धारा 15 में आतंकवादी गतिविधि की परिभाषा हालांकि व्यापक है और कुछ न कुछ अस्पष्ट है, ऐसे में आतंकवाद के मूल चरित्र को सम्मलित करना होगा और आतंकवादी गतिविधि मुहावरे को उन आपरधिक गतिविधियों पर लापरवाह तरीके से इस्तेमाल करने की इजाजत नहीं दी जा सकती, जो भारतीय दंड संहिता(आईपीसी) के तहत आते हैं.

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