नई दिल्ली : देश में लाखों लोग कोरोना की बीमारी से जूझ रहे हैं. पूरे भारत में तीन लाख से ज्यादा लोग इस बीमारी की वजह से काल का ग्रास बन चुके हैं. सरकार कोरोना की महामारी से जूझ रही है दूसरी तरफ 6 महीनों से कृषि कानूनों के विरोध में आंदोलन पर बैठे किसान एक बार फिर बड़ा प्रदर्शन करने को तैयार हैं.
जानलेवा बीमारी के बीच किसान संगठनों ने 26 मई को दिल्ली में बड़े प्रदर्शन की घोषणा की है जो सरकार के लिए मुसीबत का सबब बन गई है. सरकार बार-बार कह रही है कि यह किसान आंदोलन सुपर स्प्रेडर का काम कर सकते हैं
12 विपक्षी पार्टियां इस मुद्दे पर लामबंद होकर सरकार के खिलाफ चढ़ाई करने की तैयारी में हैं. मुख्य तौर पर यह वही पार्टियां हैं जो कोरोना वायरस पर भी सरकार को लगातार पिछले 1 साल से घेर रहीं हैं और राज्यों के साथ भेदभाव करने और केंद्र पर 'मिसमैनेजमेंट' का आरोप लगा रही हैं.
22 जनवरी के बाद नहीं हुई बातचीत
मुख्य तौर पर कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, वामदल, समाजवादी पार्टी, राकांपा, द्रमुक, आम आदमी पार्टी समेत 12 विपक्षी पार्टियां किसानों के इस देशव्यापी 'काला दिवस' को समर्थन दे रही हैं. यहां यह बताना आवश्यक होगा कि किसानों और सरकार के बीच इस मुद्दे पर 22 जनवरी के बाद कोई बातचीत नहीं हुई है.
26 मई को पूरे हो रहे हैं छह महीने
26 मई को किसानों के प्रदर्शन के 6 महीने पूरे हो रहे हैं. किसानों ने इसे 'काला दिवस' के रूप में मनाने का निर्णय लिया है. सरकार के लिए ये बड़ा सिरदर्द बना हुआ है.
कोरोना और किसान इन दो मुद्दों ने सरकार को कहीं ना कहीं बैकफुट पर लाकर खड़ा कर दिया है. कोरोना मुद्दे पर कहीं ना कहीं सरकार पर विपक्षी पार्टियां हावी रही हैं. यह शुरुआत हुई है बंगाल चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की हार के बाद, विपक्षी पार्टियां लामबंद होकर अब भारतीय जनता पार्टी पर चढ़ाई कर रहीं हैं.
ये मुद्दे हैं हावी
कोरोना वायरस, किसान आंदोलन और वैक्सीन की कमी इन तीनों ही मुद्दों पर सरकार लगभग पिछले 1 साल से जूझ रही है. आरोप और प्रत्यारोप के दौर में सरकार बैकफुट पर जाती नजर आ रही है. हालांकि किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत ने कहा है कि वह केंद्र से दोबारा बातचीत करने के लिए तैयार हैं लेकिन वह बातचीत कृषि कानून को वापस लेने पर ही होनी चाहिए. वहीं, दूसरी तरफ अगर देखा जाए तो कहीं ना कहीं कृषि कानून सरकार के लिए गले की हड्डी बन चुका है.
कोविड प्रोटोकॉल तोड़कर आंदोलन करना चिंता की बात : भाजपा
भाजपा किसानों के इस घोषणा को राजनीति से प्रेरित बता रही है. भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता गोपाल अग्रवाल ने 'ईटीवी भारत' से कहा कि किसानों के आंदोलन को कल 6 महीने हो जाएंगे. दिल्ली के बॉर्डर पर और हरियाणा ,पंजाब के बॉर्डर पर जिस तरह से किसान इतने दिनों से हजारों की संख्या में बैठकर कोविड-19 प्रोटोकॉल को पूरी तरह नकार कर जिस तरह के कार्य कर रहे हैं, यह देश के लिए बहुत बड़ी चिंता का विषय है.
उन्होंने कहा कि 'कोरोना की तीसरी लहर सिर पर है यदि किसान सही वक्त पर नहीं जागे तो देश में त्रासदी और बढ़ सकती है.' भाजपा का कहना है कि सरकार के पास वैज्ञानिक रिपोर्ट है जो स्पष्ट रूप से यह दावा कर रही है कि कोविड-19 के बीच किसान आंदोलन तीसरी वेब का सुपर स्प्रेडर बन सकता है.
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उन्होंने कहा कि पंजाब के मुख्यमंत्री ने भी इस बात को स्वीकार किया है कि जिस तरह से राकेश टिकैत गलत बयानबाजी कर रहे हैं. विषयों को उठा रहे हैं जबकि आज ही सरकार ने इस मुद्दे को क्लियर किया है कि एमएसपी पर अपना प्रोक्योरमेंट जो कुल 344 मीट्रिक टन था पिछले साल तक उसे बढ़ाकर 390 मीट्रिक टन कर दिया है.
'किसानों को दी जा रही सब्सिडी'
भाजपा का दावा है कि सरकार ने 77 हजार करोड़ रुपये से भी ऊपर किसानों के बैंक खाते में ट्रांसफर किया जा चुका है. भाजपा का दावा है कि 12 सौ रुपए फर्टिलाइजर सब्सिडी केंद्र सरकार ने कर दी है.
उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री ने किसान सम्मान निधि की आठवीं किस्त भी जारी कर दी है. इसके तहत 20000 करोड़ का फंड ट्रांसफर किया गया है. भाजपा का दावा है कि सरकार इस किसान बिल के ऊपर भी चर्चा करने को तैयार है. फिलहाल सरकार इसे 18 महीने के लिए सस्पेंड करने को भी तैयार है बावजूद इसके यह जिद की जा रही है कि वापस लिया जाए.
'राजनीतिक स्वार्थ में समर्थन दे रही पार्टियां'
भाजपा ने आरोप लगाते हुए कहा कि आश्चर्यजनक की बात यह है कि 12 विपक्षी पार्टियों ने इस कोविड-19 महामारी के समय इस प्रदर्शन को अपना समर्थन दिया है जो किसानों के हित का ना रहकर राजनैतिक स्वार्थ है. उन्होंने कहा कि टिकैत खुद कह रहे हैं कि इस आंदोलन को 2022 और 2024 तक चलाएंगे.
भाजपा नेता का कहना है कि बंगाल में चुनाव होता है तो टिकैत अपने कार्यकर्ता लेकर चले जाते हैं. यह आंदोलन सिर्फ एक राजनीतिक हथकंडा बन चुका है.
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भाजपा का यह भी आरोप है कि जो विदेशी गतिविधियां इसके अंतर्गत हुईं, विदेशी ताकतें और खालिस्तान समर्थक आंदोलन में शामिल हैं. आंदोलन को खत्म हो जाना चाहिए. मानवाधिकार आयोग ने भी इस बात का संज्ञान लिया है. सरकार को भी इस बात पर चिंता है. जो लोग किसानों के हित को ध्यान में रखते हैं उन्हें इसे नजरअंदाज नहीं करना चाहिए. यह पूर्ण रूप से राजनीतिक आंदोलन है.