नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में कहा कि पुलिस अधिकारियों को नैतिक पुलिसिंग में लिप्त होने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि सुप्रीम अदालत ने कदाचार के कारण सेवाओं से CISF कांस्टेबल को हटाने के फैसले को बरकरार रखा. न्यायमूर्ति संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति जेके माहेश्वरी की पीठ ने गुजरात उच्च न्यायालय के उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें सीआईएसएफ कांस्टेबल को उसके हटाए जाने की तारीख से 50 प्रतिशत पिछले वेतन के साथ बहाल करने की अनुमति दी गई थी.
2001 में सीआईएसएफ (CISF) कांस्टेबल गुजरात के वड़ोदरा जिले की एक बस्ती में रात की पाली में था, जब उसने बाइक से गुजर रहे एक जोड़े को रोका. दंपति ने आरोप लगाया कि कांस्टेबल पुरुष की मंगेतर महिला के साथ कुछ समय बिताना चाहता था. दंपति कलाई घड़ी कांस्टेबल को सौंपकर स्थिति से बचने में सफल रहे. दंपति की शिकायत के बाद सिपाही के खिलाफ विभागीय कार्रवाई शुरू की गई और उसे सेवा से हटा दिया गया.
बर्खास्तगी को चुनौती देते हुए, कांस्टेबल ने गुजरात उच्च न्यायालय का रुख किया, जिसने यह कहते हुए उसकी बहाली का आदेश दिया कि दंपति के बयान असंगत थे. गुजरात हाईकोर्ट को चुनौती देते हुए सीआईएसएफ ने शीर्ष अदालत का रुख किया. सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि मामले के तथ्य चौंकाने वाले और परेशान करने वाले हैं और पुलिस अधिकारियों को नैतिक पुलिसिंग करने, भौतिक पक्ष या भौतिक सामान मांगने की आवश्यकता नहीं है.
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महिला के असंगत बयानों पर अदालत ने अवलोकन किया, 'वह जवान लड़की थी और जाहिर तौर पर वह चिंतित और अजीब महसूस करती होगी. यह समझ में आता है, क्योंकि वह व्यक्तिगत और निजी सवालों के अधीन रहना पसंद नहीं करती. जब हम मूल्यांकन करते हैं और निर्णय पारित करते हैं तो ये जीवन के तथ्य हैं, जिन्हें ध्यान में रखा जाना चाहिए.' आदेश के बाद सीआईएसएफ के सिपाही को फिर से हटाना होगा.