हैदराबाद: नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा संसद का पांच दिवसीय विशेष सत्र बुलाने और उसके बाद पूर्व राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद की अध्यक्षता में आठ सदस्यीय उच्च स्तरीय समिति के गठन के अचानक कदम ने एक बार फिर एक साथ चुनाव की संभावना पर बहस छेड़ दी है. जब तक पूरे देश में केवल एक ही पार्टी - कांग्रेस पार्टी का वर्चस्व था, 1967 तक देश ने एक साथ चुनाव होते देखे थे.
लेकिन कांग्रेस पार्टी के अपनी प्रमुखता खोने की शुरुआत के साथ ऐसा कदम एक असंभव कार्य साबित हुआ और देश को यहां या वहां बार-बार चुनाव कराने के लिए मजबूर होना पड़ा. हालांकि यह बहस पिछले पांच दशकों से लगातार होती रही है, लेकिन यह संसद और राज्य विधानसभाओं दोनों के एक साथ चुनावों तक ही सीमित थी. लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि पहली बार स्थानीय निकायों में एक साथ चुनाव कराने की बात भी देश के सामने रखी गई.
अपनी अधिसूचना में, सरकार ने विशेष रूप से बताया है कि आठ सदस्यीय पैनल का उद्देश्य लोगों के सदन (लोकसभा), राज्य विधान सभाओं, नगर पालिकाओं और पंचायतों के लिए एक साथ चुनाव कराने का तरीका खोजना है. यह भारतीय संविधान के संघीय ढांचे को कमजोर करने वाली प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की एकीकरण नीतियों के अनुरूप था. वन नेशन-वन टैक्स, वन नेशन-वन राशन की तर्ज पर वह पिछले नौ साल से वन नेशन-वन इलेक्शन की अवधारणा को आगे बढ़ा रहे हैं.
पैनल के संदर्भ की शर्तें इंगित करती हैं कि सरकार संविधान की संघीय संरचना से संबंधित वैध और बुनियादी प्रश्नों को संबोधित करने में रुचि नहीं रखती है. यह याद किया जा सकता है कि विधि आयोग ने हाल ही में दिसंबर, 2022 में विभिन्न हितधारकों के समक्ष इस मुद्दे पर छह प्रश्न रखे थे. विधि आयोग द्वारा उठाया गया सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह था कि क्या एक साथ चुनाव किसी भी तरह से लोकतंत्र, संवैधानिक ढांचे और शासन की संघीय प्रणाली को परेशान करेंगे?
चूंकि यह महत्वपूर्ण प्रश्न कोविंद पैनल के संदर्भ की शर्तों में नहीं पाया गया है, यह इंगित करता है कि मोदी का शासन जानबूझकर ऐसे बुनियादी सवालों को नजरअंदाज करना चाहता है. विडंबना यह है कि एक साथ चुनाव कराने की मांग करने वाले सभी लोग ऐसे सवालों का जवाब देने की हिम्मत भी नहीं कर पा रहे हैं. एक साथ चुनाव कराना एक रोमांटिक विचार हो सकता है, लेकिन एक राष्ट्र-एक चुनाव के समर्थक इस तथ्य को नजरअंदाज कर रहे हैं कि संसद, राज्य विधानसभाओं और स्थानीय निकायों के कार्य पूरी तरह से अलग हैं.
संविधान ने विशेष रूप से उनके कर्तव्यों और संचालन के क्षेत्र को विभाजित किया है. इसी तरह, चुनाव भी संबंधित चुनावों के दौरान सार्वजनिक महत्व के विविध मुद्दों को उजागर करते हैं. भारतीय होने के नाते, हमें अपने देश की अनूठी विशेषता विविधता में एकता को प्रस्तुत करने पर गर्व है. भाषाओं, खान-पान की आदतों, संस्कृतियों, धार्मिक भावनाओं, पूजा प्रणालियों, परंपराओं और जलवायु क्षेत्रों में इतने बड़े अंतर वाला कोई अन्य देश नहीं है.
इतिहास यह भी इंगित करता है कि इस तरह की विविधता ने हमें दो हजार वर्षों से अधिक के विदेशी शासन के अलावा हमारी प्राचीन प्रणालियों को बनाए रखने में मदद की. लेकिन दुर्भाग्य से, अब हम अपनी बहुमूल्य 'विविधता' की कीमत पर 'समान प्रणालियों' की वकालत कर रहे हैं. एक साथ चुनाव कराने के समर्थकों के विभिन्न तर्कों की बारीकी से जांच करने से पता चलता है कि वास्तव में हमारे देश का लोकतांत्रिक ढांचा बर्बाद हो रहा है.
यह स्वाभाविक है कि राष्ट्रव्यापी चुनाव राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों को फोकस में लाते हैं. इससे देश के विभिन्न क्षेत्रों या राज्यों के लिए महत्वपूर्ण मुद्दों की स्वचालित रूप से अनदेखी हो जाएगी. इसके अलावा, पिछले पांच दशकों के दौरान विभिन्न कारणों से कई क्षेत्रीय दल विभिन्न राज्यों में प्रमुख राजनीतिक ताकतों के रूप में उभरे हैं. शायद ही किसी राष्ट्रीय दल ने सभी क्षेत्रों में अपना प्रभाव बढ़ाया हो. ऐसी आशंका है कि 'एक चुनाव' की अवधारणा का उद्देश्य क्षेत्रीय दलों की कीमत पर राष्ट्रीय दलों का विकास सुनिश्चित करना था.
इस प्रक्रिया में, इसका उद्देश्य क्षेत्रीय पार्टियों को मारना था, जिससे देश में एक पार्टी शासन का मार्ग प्रशस्त हो सके. एक चुनाव के पक्ष में एक मुख्य तर्क भारी चुनावी खर्च को बचाना है. भारत अब दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में उभरा है और जल्द ही तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने का इरादा रखता है. अभी हाल ही में कहा गया कि हमारी जीडीपी 3.75 लाख डॉलर तक पहुंच गई. इतनी बड़ी अर्थव्यवस्था के लिए व्यावहारिक दृष्टि से बार-बार चुनाव कराने का खर्च बहुत मामूली बोझ होगा.
एक चुनाव के समर्थक बार-बार यह भी कहते हैं कि चुनाव संहिता के कारण बार-बार चुनाव विकास गतिविधियों के रास्ते में आ रहे हैं. लेकिन ऐसी संहिता मुश्किल से छह से आठ सप्ताह तक लागू रहती है और इससे नियमित शासन में किसी भी तरह की बाधा नहीं आएगी. यह केवल सत्ताधारी दल को मतदाताओं पर नजर रखते हुए पुलिस निर्णय लेने से रोकता है. संसद में अपने प्रचंड बहुमत के कारण सरकार आवश्यक संवैधानिक संशोधन लाने में सफल हो सकती है.
लेकिन एक साथ चुनाव कराना कहां तक उचित होगा? यह महत्वपूर्ण और बहुत ही नाजुक प्रश्न होगा. उसे कुछ विधानसभाओं को ख़त्म करने की ज़रूरत है या उनका कार्यकाल कुछ समय के लिए बढ़ाया जा सकता है. उदाहरण के लिए, हाल ही में कर्नाटक चुनाव हुए. क्या एक साथ चुनाव के नाम पर इसका कार्यकाल कम कर दिया जाएगा? या फिर इसे एक साल या उससे अधिक के लिए बढ़ाया जाएगा?
भारत में राजनीतिक दलबदल बहुत आम बात है. चाहे जो भी कारण हो, यदि कोई सत्तारूढ़ दल लोकसभा या किसी विधानसभा में अपना बहुमत खो देता है, तो वैकल्पिक सरकार कैसे बनेगी? यदि कोई दल या नेता बहुमत का समर्थन हासिल करने की स्थिति में नहीं है, तो क्या सदन भंग कर दिया जाएगा? या फिर अगले आम चुनाव तक राष्ट्रपति शासन लगा दिया जायेगा?
अगले आम चुनाव होने तक राष्ट्रपति शासन लगाने से केंद्र में सत्तारूढ़ दल को केवल राज्य सरकारों पर हावी होने का मौका मिलेगा, हालांकि कुछ राज्यों में उनकी पार्टी की उपस्थिति नगण्य होगी. कई कानूनी विशेषज्ञों ने एक साथ चुनाव के विचार के खिलाफ पहले ही चेतावनी दी थी कि यह संवैधानिक या कानूनी रूप से स्वीकार्य नहीं होगा.
(ईनाडु संपादकीय)