नई दिल्ली : सुप्रीम कोर्ट ने अपनी पत्नी की हत्या के लिए दोषी ठहराए गए तमिलनाडु के एक व्यक्ति को बरी करते हुए कहा है कि न्यायेतर स्वीकारोक्ति हमेशा सबूत का एक कमजोर पार्ट होता है और न्यायेतर स्वीकारोक्ति के संबंध में अभियोजन पक्ष के मामले की वास्तविकता पर गंभीर संदेह है.
न्यायमूर्ति अभय एस ओका और संजय करोल की पीठ ने कहा, 'न्यायेतर स्वीकारोक्ति हमेशा सबूत का एक कमजोर पार्ट होता है और इस मामले में....... न्यायेतर स्वीकारोक्ति के संबंध में अभियोजन पक्ष के मामले की वास्तविकता के बारे में गंभीर संदेह है. इसलिए, न्यायेतर स्वीकारोक्ति के बारे में अभियोजन पक्ष का मामला स्वीकृति के लायक नहीं है.'
शीर्ष अदालत ने एक ग्राम प्रशासनिक अधिकारी के समक्ष किए गए न्यायेतर कबूलनामे के अभियोजन पक्ष के दावे पर संदेह जताया. इसमें कहा गया कि जहां तक अपीलकर्ता के कहने पर शव की कथित बरामदगी का सवाल है, शव ऐसे स्थान से बरामद किया गया था जो सभी के लिए सुलभ था. शीर्ष अदालत ने कहा कि यह अभियोजन पक्ष का मामला नहीं है कि जिस स्थान पर शव को दफनाया गया था, वह केवल अपीलकर्ता को ही पता था.
पीठ ने कहा, अपीलकर्ता के कहने पर एक शव की बरामदगी और अपीलकर्ता के कहने पर अपराध के कथित साधन की बरामदगी के संबंध में अभियोजन पक्ष के मामले की वास्तविकता पर गंभीर संदेह है.
पीठ ने कहा कि घटना के दो महीने बाद, आरोपी ने कथित तौर पर एक ग्राम अधिकारी को हत्या के बारे में बताया था. घटना 29 मई 2006 की है लेकिन कथित न्यायेतर स्वीकारोक्ति 10 अगस्त 2006 को की गई थी. यह समझना असंभव है कि अपीलकर्ता दो महीने से अधिक समय बाद ग्राम प्रशासनिक अधिकारी से क्यों मिलेगा, जो उसके लिए बिल्कुल अजनबी था. पीठ ने कहा, अधिकारी और याचिकाकर्ता 10 अगस्त, 2006 तक एक-दूसरे को नहीं जानते थे.
शीर्ष अदालत ने मद्रास उच्च न्यायालय के फैसले (2009) को चुनौती देने वाली मूर्ति की अपील को स्वीकार कर लिया, जिसने निचली अदालत के आदेश (2008) को बरकरार रखा था, जिसमें मूर्ति को आईपीसी की धारा 302 और 201 के तहत दोषी ठहराया गया था और आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी.