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अपने राजनीतिक जीवन में केवल 2 चुनाव हारे थे मुलायम सिंह यादव, 'जीजाजी' ने दिया था सहारा

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Published : Oct 11, 2022, 5:30 PM IST

मुलायम सिंह यादव अपने चुनावी राजनीति में केवल दो चुनाव हारे थे. वह हार 1969 और 1980 में जसवंतनगर जैसी सुरक्षित सीट पर मिली थी. पहली बार उन्हें विश्वंभर सिंह यादव ने तो दूसरी बार बलराम सिंह यादव से हारे थे. इन दोनों हार से सबक लेते मुलायम सिंह यादव ने अपनी ऐसी राजनीतिक पकड़ बनायी कि वह हर समय किसी न किसी सदन के सदस्य रहे. इसमें इनके सबसे बड़े मददगार इनकी मुंहबोली बहन के पति चौधरी राजेन्द्र सिंह थे..

Mualyam Singh Yadav Political Life lost Jaswantnagar Assembly seat two times
मुलायम सिंह यादव

नई दिल्ली : अपने 55 साल के लंबे राजनीतिक करियर में मुलायम सिंह 3 बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे. यही नहीं वे 7 बार लोकसभा के सांसद रहे और 10 बार विधायकी का चुनाव भी जीता. साथ ही एक बार वह विधान परिषद में भी अपनी हाजिरी लगायी है. 1967 में विधायक बनने वाले मुलायम सिंह यादव अपने राजनीतिक जीवन केवल एक विधानसभा का चुनाव उम्मीदवार के रुप में हारे. तभी उनको चौधरी चरण सिंह ने विधान परिषद में भेजा था. 55 वर्षों की राजनीतिक पारी में मुलायम सिंह यादव ने कई सरकारें बनायीं और बिगाड़ी. इतने बड़े करियर में वह केवल दो चुनाव हारे थे. यह दोनों हार 1969 और 1980 में जसवंतनगर जैसी सुरक्षित सीट पर मिली थी. पहली बार उन्हें कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ रहे विश्वंभर सिंह यादव ने तो दूसरी बार भी कांग्रेस के उम्मीदवार बलराम सिंह यादव से हारे थे. इन दोनों हार से सबक लेते मुलायम सिंह यादव ने अपनी ऐसी राजनीतिक पकड़ बनायी कि वह हर समय किसी न किसी सदन के सदस्य रहे. इसमें इनके सबसे बड़े मददगार इनकी मुंहबोली बहन के पति चौधरी राजेन्द्र सिंह थे.

मुलायम सिंह यादव के राजनीतिक जीवन में कई बार अपने अभिन्न सहयोगियों से भी नहीं बनी. पार्टी के संस्थापक सदस्यों में शामिल रहे बेनी प्रसाद वर्मा, जनेश्वर मिश्र, मोहन सिंह, अमर सिंह, आजम खान के साथ उन्हें रिश्तों को लेकर यूपी की राजनीति में भूचाल उठता रहा है. कई बार इनके आपसी रिश्तों में कड़वाहट भी आयी तो मुलायम सिंह ने पहले तो सख्ती दिखायी लेकिन बाद में दिल बड़ा करते हुए सबको मना लिया और उनकी बात भी मान ली. तभी तो वह विधानसभा और लोकसभा में हमेशा दस्तक देने वाले नेताओं में शुमार रहे. वह नए नए प्रयोग करने व प्रयोगों की गलती को सुधारने में नहीं चूकते थे. लेकिन उनका 1969 व 1980 का चुनाव हारना भी उनके जीवन का एक ऐसा पहलू है, जिसे कम लोग ही जानते हैं. इस कठिन समय में अगर उनके मुंहबोली बहन के पति अर्थात 'जीजाजी' ने मदद न की होती तो शायद मुलायम सिंह यादव राजनीति में वो मुकाम न हासिल कर पाते, जो आज लोगों के सामने है.

कौन थे मुंहबोली बहन के पति
हर किसी को यह मालूम होगा कि मुलायम सिंह यादव की केवल एक बहन थी और उनके बहनोई का नाम अजंत सिंह था. यह जानकारी सही है, लेकिन मुलायम सिंह के राजनीतिक जीवन में उनकी एक और बहन थी, जिनसे वह राखी बंधवाया करते थे. मुलायम सिंह की मुंहबोली बहन का नाम सरोज सिंह था और वह चौधरी राजेन्द्र सिंह की पत्नी थीं. चौधरी चरण सिंह के खासमखास चौधरी राजेन्द्र सिंह से मुलायम सिंह यादव का खास रिश्ता बताया जाता था. अलीगढ़ के इस कद्दावर नेता को मुलायम सिंह यादव को अपना बड़ा भाई मानते थे. उनकी पत्नी सरोज सिंह को बहन मानकर मुलायम सिंह यादव उनसे राखी बंधवाया करते थे. मुलायम सिंह यादव के 1980 में विधानसभा चुनाव हार जाने के बाद विधान परिषद सदस्य और विधान परिषद के विपक्ष का नेता भी बनवाने का काम किया था. इसके पहले चौधरी चरण सिंह के मंत्रीमंडल में मंत्री बनाने के लिए चौधरी चरण सिंह से पैरवी भी की थी.

1989 में खुद हार गए राजेन्द्र सिंह
मुलायम सिंह यादव की राजनीतिक पारी को संजाने संवारने वाले राजेन्द्र सिंह को 1989 के चुनाव में 64 वोटों से चुनाव हार मिली तो उनका राजनीतिक ग्राफ गड़बड़ा गया. जनता दल में एक बड़ा नेता कहे जाने वाले राजेन्द्र सिंह न तो खुद मुख्यमंत्री बन सके और न ही अजीत सिंह के पक्ष में विधायक एकत्रित कर पाए. इसी मौके का तत्काल फायदा उठाकर मुलायम सिंह यादव ने अपनी राजनीतिक कुशलता का परिचय दिया और पार्टी के अधिकांश विधायकों को अपने पाले में कर लिया. कहा जाता है कि चौधरी अजित सिंह मुख्यमंत्री पद के लिए होने वाले शक्ति परीक्षण वाले दिन ही लखनऊ पहुंच सके थे. यही मुलायम सिंह यादव के राजनीतिक करियर लिए टर्निंग प्वाइंट साबित हुआ और 5 दिसम्बर 1989 से 24 जनवरी 1991 तक के लिए मुलायम सिंह पहली बार मुख्यमंत्री बने.

Mualyam Singh Yadav Political Life lost Jaswantnagar Assembly seat two times
मुलायम सिंह यादव का राजनीतिक सफर

इसके बाद की कहानी तो हर कोई जानता है. एक चालाक राजनेता होने के नाते, उनमें राजनीति में उथल-पुथल को भांपने की अदभुत क्षमता थी. नवंबर 1990 में वी.पी. सिंह की राष्ट्रीय सरकार के पतन के बाद, यादव चंद्रशेखर की जनता दल (सोशलिस्ट) पार्टी में शामिल हो गए और कांग्रेस के समर्थन से मुख्यमंत्री के पद पर बने रहे. कांग्रेस ने अप्रैल 1991 में समर्थन वापस ले लिया, इससे उनकी सरकार गिर गई. मुलायम सिंह मध्यावधि चुनावों में भाजपा से हार गए.

Mualyam Singh Yadav Political Life lost Jaswantnagar Assembly seat two times
मुलायम सिंह यादव का राजनीतिक सफर

1992 में, यादव ने अपनी समाजवादी पार्टी की स्थापना की और फिर नवंबर 1993 में हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव के लिए बहुजन समाज पार्टी के साथ गठबंधन किया. समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच गठबंधन ने राज्य में भाजपा की सत्ता में वापसी को रोक दिया और वो कांग्रेस और जनता दल के समर्थन से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने.

उत्तराखंड के लिए अलग राज्य की मांग के आंदोलन पर मुलायम का रुख उतना ही विवादास्पद था, जितना कि 1990 में अयोध्या आंदोलन पर. 2 अक्टूबर 1994 को मुजफ्फरनगर में अयोध्या के कार्यकर्ताओं और तत्कालीन उत्तराखंड के कार्यकर्ताओं पर फायरिंग उनके शासन काल में काले धब्बे की तरह रहे.

इसे भी देखें : ऐसा रहा मुलायम सिंह यादव का खट्टे मीठे अनुभव वाला राजनीतिक सफर, एक नजर

1995 में, कुख्यात राज्य गेस्ट हाउस की घटना के साथ सपा-बसपा गठबंधन टूट गया, लेकिन मुलायम सिंह यादव ने सुनिश्चित किया कि उनकी पार्टी 2003 में सत्ता में वापस लौट आयी. इसके लिए उनके कई हथकंडे अपनाने पड़े. उन्होंने सितंबर 2003 में तीसरी बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली.

यादव ने 2004 का लोकसभा चुनाव मैनपुरी से लड़ा था, जब वह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे. हालांकि, बाद में उन्होंने लोकसभा से इस्तीफा दे दिया और 2007 तक मुख्यमंत्री के रूप में बने रहे. 2012 के चुनाव में सत्ता की चाबी बेटे को सौंपकर राष्ट्रीय राजनीति में सक्रिय हो गए.

मुलायम सिंह अपने दोस्तों को काफी महत्व देते थे. चाहे फिर बेनी प्रसाद वर्मा हो, आजम खान हो, मोहन सिंह हो या फिर जनेश्वर मिश्र हों, हर किसी का उनके जीवन में एक विशेष स्थान था. इटावा में बलराम सिंह यादव और दर्शन सिंह यादव के साथ उनकी तनातनी काफी बढ़ गई थी, लेकिन मुलायम ने समय के साथ अपने समीकरण बदलने में कामयाबी हासिल की और दोनों उनके दोस्त बन गए.

इसे भी पढ़ें : मुलायम सिंह यादव पंचतत्व में विलीन, अखिलेश ने दी मुखाग्नि

मुलायम ने मीडिया से प्यार-नफरत का रिश्ता रखा. कुछ अखबारों के खिलाफ उनके 'हल्ला बोल' आंदोलन ने राष्ट्रीय सुर्खियां बटोरीं. हालांकि, मुलायम ने यह सुनिश्चित किया कि पत्रकारों के साथ उनके व्यक्तिगत संबंध कभी खराब न हों. वैसे ही पार्टी कार्यकर्ताओं के लिए वे उनके प्रिय 'नेताजी' बने रहे.

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नई दिल्ली : अपने 55 साल के लंबे राजनीतिक करियर में मुलायम सिंह 3 बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे. यही नहीं वे 7 बार लोकसभा के सांसद रहे और 10 बार विधायकी का चुनाव भी जीता. साथ ही एक बार वह विधान परिषद में भी अपनी हाजिरी लगायी है. 1967 में विधायक बनने वाले मुलायम सिंह यादव अपने राजनीतिक जीवन केवल एक विधानसभा का चुनाव उम्मीदवार के रुप में हारे. तभी उनको चौधरी चरण सिंह ने विधान परिषद में भेजा था. 55 वर्षों की राजनीतिक पारी में मुलायम सिंह यादव ने कई सरकारें बनायीं और बिगाड़ी. इतने बड़े करियर में वह केवल दो चुनाव हारे थे. यह दोनों हार 1969 और 1980 में जसवंतनगर जैसी सुरक्षित सीट पर मिली थी. पहली बार उन्हें कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ रहे विश्वंभर सिंह यादव ने तो दूसरी बार भी कांग्रेस के उम्मीदवार बलराम सिंह यादव से हारे थे. इन दोनों हार से सबक लेते मुलायम सिंह यादव ने अपनी ऐसी राजनीतिक पकड़ बनायी कि वह हर समय किसी न किसी सदन के सदस्य रहे. इसमें इनके सबसे बड़े मददगार इनकी मुंहबोली बहन के पति चौधरी राजेन्द्र सिंह थे.

मुलायम सिंह यादव के राजनीतिक जीवन में कई बार अपने अभिन्न सहयोगियों से भी नहीं बनी. पार्टी के संस्थापक सदस्यों में शामिल रहे बेनी प्रसाद वर्मा, जनेश्वर मिश्र, मोहन सिंह, अमर सिंह, आजम खान के साथ उन्हें रिश्तों को लेकर यूपी की राजनीति में भूचाल उठता रहा है. कई बार इनके आपसी रिश्तों में कड़वाहट भी आयी तो मुलायम सिंह ने पहले तो सख्ती दिखायी लेकिन बाद में दिल बड़ा करते हुए सबको मना लिया और उनकी बात भी मान ली. तभी तो वह विधानसभा और लोकसभा में हमेशा दस्तक देने वाले नेताओं में शुमार रहे. वह नए नए प्रयोग करने व प्रयोगों की गलती को सुधारने में नहीं चूकते थे. लेकिन उनका 1969 व 1980 का चुनाव हारना भी उनके जीवन का एक ऐसा पहलू है, जिसे कम लोग ही जानते हैं. इस कठिन समय में अगर उनके मुंहबोली बहन के पति अर्थात 'जीजाजी' ने मदद न की होती तो शायद मुलायम सिंह यादव राजनीति में वो मुकाम न हासिल कर पाते, जो आज लोगों के सामने है.

कौन थे मुंहबोली बहन के पति
हर किसी को यह मालूम होगा कि मुलायम सिंह यादव की केवल एक बहन थी और उनके बहनोई का नाम अजंत सिंह था. यह जानकारी सही है, लेकिन मुलायम सिंह के राजनीतिक जीवन में उनकी एक और बहन थी, जिनसे वह राखी बंधवाया करते थे. मुलायम सिंह की मुंहबोली बहन का नाम सरोज सिंह था और वह चौधरी राजेन्द्र सिंह की पत्नी थीं. चौधरी चरण सिंह के खासमखास चौधरी राजेन्द्र सिंह से मुलायम सिंह यादव का खास रिश्ता बताया जाता था. अलीगढ़ के इस कद्दावर नेता को मुलायम सिंह यादव को अपना बड़ा भाई मानते थे. उनकी पत्नी सरोज सिंह को बहन मानकर मुलायम सिंह यादव उनसे राखी बंधवाया करते थे. मुलायम सिंह यादव के 1980 में विधानसभा चुनाव हार जाने के बाद विधान परिषद सदस्य और विधान परिषद के विपक्ष का नेता भी बनवाने का काम किया था. इसके पहले चौधरी चरण सिंह के मंत्रीमंडल में मंत्री बनाने के लिए चौधरी चरण सिंह से पैरवी भी की थी.

1989 में खुद हार गए राजेन्द्र सिंह
मुलायम सिंह यादव की राजनीतिक पारी को संजाने संवारने वाले राजेन्द्र सिंह को 1989 के चुनाव में 64 वोटों से चुनाव हार मिली तो उनका राजनीतिक ग्राफ गड़बड़ा गया. जनता दल में एक बड़ा नेता कहे जाने वाले राजेन्द्र सिंह न तो खुद मुख्यमंत्री बन सके और न ही अजीत सिंह के पक्ष में विधायक एकत्रित कर पाए. इसी मौके का तत्काल फायदा उठाकर मुलायम सिंह यादव ने अपनी राजनीतिक कुशलता का परिचय दिया और पार्टी के अधिकांश विधायकों को अपने पाले में कर लिया. कहा जाता है कि चौधरी अजित सिंह मुख्यमंत्री पद के लिए होने वाले शक्ति परीक्षण वाले दिन ही लखनऊ पहुंच सके थे. यही मुलायम सिंह यादव के राजनीतिक करियर लिए टर्निंग प्वाइंट साबित हुआ और 5 दिसम्बर 1989 से 24 जनवरी 1991 तक के लिए मुलायम सिंह पहली बार मुख्यमंत्री बने.

Mualyam Singh Yadav Political Life lost Jaswantnagar Assembly seat two times
मुलायम सिंह यादव का राजनीतिक सफर

इसके बाद की कहानी तो हर कोई जानता है. एक चालाक राजनेता होने के नाते, उनमें राजनीति में उथल-पुथल को भांपने की अदभुत क्षमता थी. नवंबर 1990 में वी.पी. सिंह की राष्ट्रीय सरकार के पतन के बाद, यादव चंद्रशेखर की जनता दल (सोशलिस्ट) पार्टी में शामिल हो गए और कांग्रेस के समर्थन से मुख्यमंत्री के पद पर बने रहे. कांग्रेस ने अप्रैल 1991 में समर्थन वापस ले लिया, इससे उनकी सरकार गिर गई. मुलायम सिंह मध्यावधि चुनावों में भाजपा से हार गए.

Mualyam Singh Yadav Political Life lost Jaswantnagar Assembly seat two times
मुलायम सिंह यादव का राजनीतिक सफर

1992 में, यादव ने अपनी समाजवादी पार्टी की स्थापना की और फिर नवंबर 1993 में हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव के लिए बहुजन समाज पार्टी के साथ गठबंधन किया. समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच गठबंधन ने राज्य में भाजपा की सत्ता में वापसी को रोक दिया और वो कांग्रेस और जनता दल के समर्थन से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने.

उत्तराखंड के लिए अलग राज्य की मांग के आंदोलन पर मुलायम का रुख उतना ही विवादास्पद था, जितना कि 1990 में अयोध्या आंदोलन पर. 2 अक्टूबर 1994 को मुजफ्फरनगर में अयोध्या के कार्यकर्ताओं और तत्कालीन उत्तराखंड के कार्यकर्ताओं पर फायरिंग उनके शासन काल में काले धब्बे की तरह रहे.

इसे भी देखें : ऐसा रहा मुलायम सिंह यादव का खट्टे मीठे अनुभव वाला राजनीतिक सफर, एक नजर

1995 में, कुख्यात राज्य गेस्ट हाउस की घटना के साथ सपा-बसपा गठबंधन टूट गया, लेकिन मुलायम सिंह यादव ने सुनिश्चित किया कि उनकी पार्टी 2003 में सत्ता में वापस लौट आयी. इसके लिए उनके कई हथकंडे अपनाने पड़े. उन्होंने सितंबर 2003 में तीसरी बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली.

यादव ने 2004 का लोकसभा चुनाव मैनपुरी से लड़ा था, जब वह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे. हालांकि, बाद में उन्होंने लोकसभा से इस्तीफा दे दिया और 2007 तक मुख्यमंत्री के रूप में बने रहे. 2012 के चुनाव में सत्ता की चाबी बेटे को सौंपकर राष्ट्रीय राजनीति में सक्रिय हो गए.

मुलायम सिंह अपने दोस्तों को काफी महत्व देते थे. चाहे फिर बेनी प्रसाद वर्मा हो, आजम खान हो, मोहन सिंह हो या फिर जनेश्वर मिश्र हों, हर किसी का उनके जीवन में एक विशेष स्थान था. इटावा में बलराम सिंह यादव और दर्शन सिंह यादव के साथ उनकी तनातनी काफी बढ़ गई थी, लेकिन मुलायम ने समय के साथ अपने समीकरण बदलने में कामयाबी हासिल की और दोनों उनके दोस्त बन गए.

इसे भी पढ़ें : मुलायम सिंह यादव पंचतत्व में विलीन, अखिलेश ने दी मुखाग्नि

मुलायम ने मीडिया से प्यार-नफरत का रिश्ता रखा. कुछ अखबारों के खिलाफ उनके 'हल्ला बोल' आंदोलन ने राष्ट्रीय सुर्खियां बटोरीं. हालांकि, मुलायम ने यह सुनिश्चित किया कि पत्रकारों के साथ उनके व्यक्तिगत संबंध कभी खराब न हों. वैसे ही पार्टी कार्यकर्ताओं के लिए वे उनके प्रिय 'नेताजी' बने रहे.

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