हैदराबाद : उत्तरप्रदेश में चुनाव की घोषणा तो नहीं हुई है मगर वहां चुनावी माहौल पूरी तरह बन चुका है. अखिलेश यादव और शिवपाल यादव रथ लेकर जनता के बीच पहुंचे हैं तो कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा भी रोजाना सरकार से उलझ रही हैं. अभी तक हुई राजनीतिक शोर-शराबे में एक बड़ा वोट बैंक खामोश है. दूसरी ओर, किसी राजनीतिक दल ने वेट एंड वॉच की पोजिशन में बैठे मुसलमानों का वोट पाने की बेचैनी नहीं दिखाई है. सारे दल जातिगत वोट वैंक दलित, ओबीसी और ब्राह्मण को रिझाने में व्यस्त हैं.
2020 में कोरोना के कारण हिंदू-मुस्लिम के त्योहार फीके पड़ गए थे. 2021 में अक्टूबर तक मुसलिम समुदाय के सारे त्योहार थोड़े धूमधाम से मनाए गए मगर इस साल समाजवादी पार्टी, बीएसपी और कांग्रेस के नेता इफ्तार और ईदगाह जाकर शुभकामना देने की परंपरागत फेस्टिवल डिप्लोमेसी का पालन नहीं किया.
मंदिरों के चक्कर लगा रहे हैं अखिलेश-प्रियंका : दूसरी ओर, यूपी में कांग्रेस का कमान संभाल रहीं प्रियंका गांधी और समाजवादी पार्टी मुखिया अखिलेश के बीच मंदिर जाने की होड़ लगी है. पिछले एक साल में अखिलेश चित्रकूट के कामनानाथ मंदिर. टूंडला के सीयर मंदिर, मथुरा में बांके बिहारी मंदिर, विंध्याचल समेत कई मंदिरों में पूजा-अर्चना कर चुके हैं. प्रियंका गांधी ने भी माघ मेला में गंगा स्नान के साथ तीर्थयात्रा का जो दौर शुरू किया, वह चुनाव प्रचार और संघर्ष के बीच में भी जारी रहा. वह मंदिर में जाने का एक भी मौका नहीं चूक रहीं हैं. बीएसपी और सपा ने राम मंदिर को जल्द बनाने का वादा किया. अखिलेश यादव तो महर्षि परशुराम का मंदिर बनाने का आश्वासन दे चुके हैं.
सवाल यह है कि क्या विपक्षी दल अपनी वैचारिक मूल्यों से भटक गए हैं या वे जाने-अनजाने बीजेपी की ओर से तय किए गए चुनावी राह को मजबूत कर रहे हैं. बीजेपी ने 2019 में हिंदुत्व का ऐसा सियासी एजेंडा सेट किया, जिसके चलते अपने आपको सेक्लुयर कहलाने वाली विपक्षी पार्टियां भी इस बार खुलकर मुस्लिम कार्ड की सियासत करने से परहेज कर रही हैं. सिर्फ एआईएआईएम के असदुद्दीन ओवैसी खुले तौर पर मुस्लिम वोटरों से जुड़े मुद्दे उठा रहे हैं.
टिकट देने में बीएसपी रही थी अव्वल : उत्तरप्रदेश में मुसलमानों की आबादी 19-20 प्रतिशत है. करीब 125 विधानसभा सीटों पर मुस्लिम वोट निर्णायक माने जाते हैं. प्रदेश में 70 सीटों पर मुसलमानों की आबादी 30 फीसदी है, इसके बावजूद 2017 के विधानसभा चुनाव में सिर्फ 23 मुसलमान विधायक चुने गए. 2012 में अल्पसंख्यक विधायकों की संख्या 69 थी. जब 2007 में बीएसपी को बहुमत मिला था, तब 56 मुस्लिम विधायक चुने गए थे. 2002 में 46 और 1996 में 38 मुस्लिम नेता विधानसभा पहुंचे थे. 2017 में बीएसपी ने उत्तर प्रदेश चुनावों में सबसे ज़्यादा 97 मुस्लिम उम्मीदवार मैदान में उतारे थे. इसके जवाब में सपा-कांग्रेस गठबंधन ने 89 मुसलमानों को टिकट दिया था. बीजेपी ने एक भी मुसलमान कैंडिडेट नहीं उतारा था.
क्या सपा के पक्ष में जाएंगे मुस्लिम वोटर ? : राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार योगेश मिश्रा का कहना है कि 2022 के विधानसभा चुनाव में उत्तरप्रदेश के मुसलमान उस दल को वोट करेंगे, जो बीजेपी को हराने की ताकत रखता है. अभी इस रेस में समाजवादी पार्टी आगे है. मगर यह भी संभव है कि यूपी के मुस्लिम वोटर टेक्टिकल वोटिंग भी करें, यानी जिन सीटों पर गैर बीजेपी दल का जो उम्मीदवार मजबूत होगा, वहां उसे अल्पसंख्यकों का वोट मिलेगा. ऐसी स्थिति में बीएसपी उनकी दूसरी पसंद होगी. हालांकि दलों के टिकट बंटवारे के बाद स्थिति ज्यादा साफ होगी. गौरतलब है कि 1991 के अयोध्या गोलीकांड के बाद से मुसलमान वोटर समाजवादी पार्टी का समर्थन करते रहे. सिर्फ 2007 में उन्होंने बीएसपी का समर्थन किया था.
नरेंद्र मोदी ने राजनीति का नजरिया ही बदल दिया : पॉलिटिकल एक्सपर्ट योगेश मिश्रा के अनुसार, यूपी की राजनीति ही नहीं, देश में माइनोरिटी पॉलिटिक्स को खत्म नरेंद्र मोदी ने किया. 2017 के उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव और 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने प्रचंड बहुत हासिल कर यह सिद्ध कर दिया कि बहुसंख्यक की राजनीति से भी सत्ता हासिल की जा सकती है. इन दोनों चुनावों में बीजेपी ने यूपी में एक भी मुसलमान प्रत्याशी को टिकट नहीं दिया था. हालांकि 2014 में भी बीजेपी को स्पष्ट बहुमत मिला था, मगर उस जीत को यूपीए-2 से उपजे गुस्से का रिजल्ट माना गया था.
योगेश मिश्रा के अनुसार, अभी देश में मेजॉरिटी पॉलिटिक्स यानी बहुसंख्यक की राजनीति का दौर है. गैर बीजेपी राजनीतिक दल भी मान चुके हैं कि माइनॉरिटी पॉलिटिक्स से ज्यादा बड़ा हासिल होने वाला नहीं है. इसलिए उन्होंने मुसलमानों से जुड़े आयोजनों इफ्तार और मजारों पर चादरपोशी जैसे आयोजनों से दूरी भी बनाई है. साथ ही हिंदू धार्मिक प्रतीकों समर्थन कर रहे हैं. अब तो गैर बीजेपी नेताओं में यह जताने की होड़ लगी है कि वे हिंदू धर्म को बेहतर जानते हैं. इसलिए प्रियंका दुर्गा स्त्रोत का पाठ किसान आंदोलन के मंच पर कर रही हैं.
मुसलमानों के मुद्दे भी पीछे छूटे : राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि राजनीति में मोदी युग शुरू होने के बाद मुसलमानों से जुड़े मुद्दों पर चर्चा नहीं होती है. बंगाल चुनाव इसका ताजा उदाहरण है, जहां पूरी लड़ाई हिंदुत्व पर लड़ी गई. दो महीने के चुनावी कैंपेन में किसी दल ने मुस्लिमों के लिए बयान नहीं दिया. खुद मुस्लिम वोटर भी वोट देने के समय मुद्दों को दरकिनार कर रहे हैं. उनका लक्ष्य बीजेपी को हराने तक सीमित हो रहा है. उत्तरप्रदेश में मुसलमान एक बार फिर इसी मूड में हैं. जिसका ज्यादा फायदा सपा और बसपा को होगा. अभी आधिकारिक तौर से चुनाव में चार महीने बाकी हैं. इस बीच दलों की रणनीति बदल सकती है. संभव है कि किसी मुद्दे पर मुसलमान फिर राजनीति के सेंटर में आ जाएं.