पटना: बिहार में अधिकारियों की मनमानी, लालफीताशाही और विभागीय मंत्री की बात नहीं सुनने को लेकर मदन सहनी (Madan Sahni) के इस्तीफे के बाद कई ऐसे मंत्री हैं, जिन्होंने अपने दिल की बात रखनी शुरू कर दी है. अधिकारियों की मनमानी का दर्द सबके दिल में है. कोई इसे बता रहा है तो कोई छिपा रहा है.
हर दिल में है दर्द
मदन सहनी ने इस्तीफा देने के बाद सरकार के कई मंत्रियों के दिल के दर्द सामने आए. दर्द इस बात का है कि बिहार में अधिकारी बेलगाम हैं. वे मंत्री को तरजीह नहीं देते, लेकिन डर इस बात का है कि खुलकर कहें कैसे. सुप्रीमो को गुस्सा आ गया तो संभव है मंत्री पद पर बने रहना मुश्किल हो जाएगा, लेकिन जिस तरीके से मदन सहनी के पक्ष में बिहार सरकार के मंत्री खड़े हुए हैं इससे एक बात तो साफ है कि इस बात का दर्द हर दिल में है.
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मनमानी करना चाहते हैं अधिकारी: रामप्रीत पासवान
बिहार सरकार के मंत्री रामप्रीत पासवान ने भी मदन सहनी की हां में हां मिलाते हुए कह दिया कि सरकार में अधिकारी मनमानी करना चाहते हैं. अगर अधिकारियों की चले तो शायद सरकार का काम ही ना हो. विकास की कई योजनाएं ऐसी हैं, जिनको लेकर सरकार और अधिकारी दोनों एकमत नहीं होते.
जनता का मत लेकर आए जनप्रतिनिधि जनता का काम हो इसके लिए अधिकारियों को तेजी से काम करने का निर्देश देते रहते हैं, लेकिन 60 साल की नौकरी करने आए अधिकारियों को इस बात से कोई लेना-देना ही नहीं है कि जनप्रतिनिधियों ने जो वादा जनता से किया है उसे पूरा नहीं करेंगे तो शायद अगली बार जनता उन्हें वोट न दें. अब जनता की ओर से चुनकर आए लोग नौकरी करने वाले लोगों से विभेद की बात करें तो बात तो उठेगी कि शायद लोकतंत्र की मूल भावना कहीं न कहीं भटक रही है.
हर सरकार में रहा है विभेद
नीतीश कुमार की सरकार में मदन सहनी पहले ऐसे मंत्री नहीं हैं, जिनका अधिकारियों से न बनने का मामला सामने आया हो. ऐसे कई मंत्री रहे हैं, जिनकी बात अधिकारी सुनते ही नहीं थे. सीधे सीएम हाउस से गाइड हुआ करते थे. वर्तमान में केंद्र में ऊर्जा विभाग के मंत्री के तौर पर काम कर रहे आरा के सांसद जब बिहार में पथ निर्माण विभाग के प्रधान सचिव हुआ करते थे तो तत्कालीन पथ निर्माण विभाग के मंत्री नंदकिशोर यादव से उनका 36 का आंकड़ा था.
तांतिया कंस्ट्रक्शन के साथ बिहार में जो विवाद हुआ था वह जगजाहिर है. बिहार राज्य औद्योगिक संरचना विकास प्राधिकरण बियाड़ा के एमडी रहते केके पाठक का सरकार के साथ विवाद या फिर उत्पाद एवं मद्य निषेध विभाग के सचिव के तौर पर काम करने के दरमियान हुए विवाद को बिहार ने बेहतर तरीके से भोगा है. बीमा भारती और विवेक सिंह के साथ ही नगर विकास विभाग के कभी मंत्री रहे अश्विनी चौबे और पशुपालन विभाग में मंत्री रहे गिरजा सिंह का भी विभाग में टकराव का मामला गाहे-बगाहे बाहर आ ही जाता था.
शिक्षा विभाग के महाजन
बिहार में शिक्षा विभाग हमेशा से नीतीश कुमार का सबसे पसंदीदा रहा है. हालांकि कहा यह भी जाता है कि शिक्षा विभाग में जो मंत्री रहे वे नीतीश कुमार के इशारे पर चलते रहे. विभाग में मंत्री का एक पद जरूर था, लेकिन विभाग एक अणे मार्ग (मुख्यमंत्री आवास) से ही चलता था. बिहार में अगर शिक्षा विभाग की बात करें तो आज भी एसी डीसी बिल का मामला कोर्ट में लटका हुआ है.
अध्यापकों की बहाली पर विवाद कोर्ट में चल रहा है. बड़े धूमधाम से शिक्षा व्यवस्था को मजबूत बनाने के लिए इन्फॉर्मेशन कम्युनिकेशन टेक्नोलॉजी के तहत कम्प्यूटर लगवाए गए थे, लेकिन सब कुछ व्यवस्था की भेंट चढ़ गया. आलम यह है कि करोड़ों की लागत से लगाए गए कम्प्यूटर और आधुनिक शिक्षा व्यवस्था को पटरी पर लाने की व्यवस्थाएं भी फेल हो गईं. क्योंकि शिक्षा मंत्री विभाग की बीमारी को कभी ठीक ही नहीं कर पाए और उसके पीछे की वजह विभाग में महाजनों का राज था.
मंत्री विधायक सब परेशान
बिहार में जनप्रतिनिधि परेशान हैं. इसमें दो राय नहीं है. एक अणे मार्ग में नीति बनती है. मंत्री और विधायक उसका पालन करते हैं. सबसे बड़ा सवाल जो बिहार की राजनीति में खड़ा हो रहा है वह यही है कि नीतीश कुमार की सीट संख्या जो घटी है वह सिर्फ एक चेहरे की बात है या जनप्रतिनिधियों का यह चेहरा जो जनता समझ चुकी है कि इनका कुछ चलता ही नहीं है. इनकी पार्टी में सुनी जाती है और न सरकार के नुमाइंदे इनकी बात सुनते हैं. ये विधायक बन तो जरूर गए हैं, लेकिन इन्हें भी काम करवाने के लिए अधिकारियों के सामने नाक रगड़ना पड़ता है. ऐसा नहीं है कि इस बात की जानकारी नीतीश कुमार को नहीं है, लेकिन कोई न कोई पेंच ऐसा तो जरूर है जो नीतीश कुमार सुलझाना ही नहीं चाह रहे हैं.
मदन सहनी ने इस्तीफा देकर विरोध जताया तो कई ऐसे जुबान हैं जो खुद ही शुरू हो गए हैं. सूचना तो नीतीश कुमार को है ही. क्योंकि अगर शिकायतों की फेहरिस्त लंबी हुई तो निश्चित तौर पर जनता के बीच एक आक्रोश की स्थिति जरूर पैदा होगी. क्योंकि जिस जनप्रतिनिधि को अपना काम करने के लिए भेजे हैं, अगर वह अधिकारियों के चुंगल से व्यवस्था को बाहर निकाल ही नहीं पाता तो फिर लोकतंत्र के मायने क्या रह जाएंगे? अधिकारी शाही अगर इतने चरम पर रही और मंत्री तक की नहीं सुनी गई तो फिर बेचारी जनता का क्या होगा?
क्योंकि वे तो बेबस हैं. वोट दे करके अपनी सरकार चुनी और जो लोग सरकार चलाने की जिम्मेदारी लेकर गद्दी पर बैठे हैं अधिकारी उनकी सुनते नहीं. वह भी बेबस हैं. ऐसे में कुल मिलाकर अगर अधिकारी शाही पर अंकुश नहीं लगाया गया तो विकास की हर बानगी ही भटक जाएगी. बिहार बाढ़ में अपना सबकुछ बहाकर फिर से तिनके से आशियाना बना लेता है. कोविड-19 के इस महामारी में खुद को जिला लिया. गौरव इस बात का हर बिहारी को है कि यह बापू की हिम्मत वाली वो धरती है जिसने चंपारण से अंग्रेजों की मनमानी वाली सत्ता को हिला दिया था.
लेकिन जिस सत्ता में हम जी रहे हैं उसमें अधिकारी साही ने पूरी जिंदगी की बुनियादी हिला दी है. जरूरत इस बात का है कि लोकतंत्र के जो मायने हैं वह सरकार का मूल आधार बने और जिन्हें काम करना है वे जनता का नौकर बनकर काम करें. अगर यह व्यवस्था जल्द से जल्द बिहार में नहीं उतरी तो निश्चित तौर पर बिहार में बहार आएगी इसपर सवाल हैं. क्योंकि इनके पीछे भी नीतीशे कुमार हैं. अब जिस दिल में दर्द है उसके मर्ज का इलाज तो करना पड़ेगा. कुछ ने कह दिया है. कुछ चुप हैं, लेकिन दर्द तो हर दिल में है.
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