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राहुल गांधी की लोकसभा सदस्यता जाना क्या कांग्रेस नेतृत्व के संकट में इजाफा है ?

राहुल गांधी की सदस्यता जाते ही एक ओर चुनाव आयोग वायनाड में उपचुनाव की तैयारी पर विचार कर रहा है, तो दूसरी ओर दिल्ली के राजनीतिक गलियारों में बहस शुरू हो गई है कि अब कांग्रेस का क्या होगा. पढ़िए ईटीवी भारत नेशनल ब्यूरो चीफ राकेश त्रिपाठी की रिपोर्ट..

Rahul Gandhi in a rally (file Photo)
राहुल गांधी (फाइल फोटो)
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Published : Mar 24, 2023, 6:39 PM IST

नई दिल्ली: 2024 के लोकसभा चुनाव में ज़्यादा वक्त नहीं बचा है और उससे पहले कई राज्यों में चुनाव भी होने हैं. क्या राहुल की सदस्यता जाना और 6 बरस तक उनके चुनाव न लड़ पाने से कांग्रेस नेतृत्व के संकट से दो चार हो रही है, इस सवाल का जवाब दिया जनसत्ता के पूर्व सम्पादक, मशहूर पत्रकार और राजनैतिक विश्लेषक प्रदीप सिंह ने. उनका मानना है कि कांग्रेस में लीडरशिप की समस्या नई नहीं है.

“ कांग्रेस में लीडरशिप क्राइसिस 2014 से ही है और इस फैसले के बाद ये संकट और गहरा जाएगा. स्वास्थ्य की वजह से सोनिया गांधी रिटायरमेंट मोड में पहले से ही है. राहुल गांधी को अगर सज़ा दो साल के लिए न भी हुई, तो 6 साल के लिए चुनावी राजनीति से बाहर हो गए. सज़ा बरकरार रही, तो 8 साल के लिए राजनीति से बाहर रहेंगे. 8 साल बाद क्या होगा, कौन होगा, वो बाद की बात होगी. यूपी में इस परिवार का कोई प्रभाव है नहीं, ये लोगों ने 2019 में देख लिया. इसलिए सिर्फ कांग्रेस ही नहीं पूरे विपक्ष में लीडरशिप क्राइसिस की स्थित निश्चित रूप से आएगी. ”

कभी बीजेपी में वाजपेयी के बड़े करीबी रहे सुधींद्र कुलकर्णी इस फैसले को बदले की राजनीति मानते हैं-“ भारतीय राजनीतिक संस्कृति में द्वेष और प्रतिशोध के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए. राहुल गांधी ने ऐसा कोई अपराध नहीं किया है जिसके लिए दो साल की सज़ा मिले और उनकी सदस्यता भी खत्म की जाए. जो हुआ है गलत हुआ है, आने वाल दिनों में राहुल गांधी और मजबूत हो कर उभरेंगे. जो भी हो लेकिन राजनीति के लिए ये अच्छी बात नहीं है.”

अटल बिहारी वाजपेयी को याद करते हुए सुधींद्र कुलकर्णी कहते हैं- “ राहुल को चुनावी राजनीति से बाहर कर दिए जाने से जनता में संदेश गलत गया है और जनता इसका जवाब समय पर देगी. भारत में लोकतंत्र की जड़ें बहुत मजबूत हैं और जो भी हुआ है, आम जनता उसे पसंद नहीं करती. आज अगर वाजपेयी ज़िंदा होते, तो इसका समर्थन नहीं करते.”

तो क्या इतनी आपाधापी में सदस्यता रद्द करने का फैसला देना बीजेपी के लिए बैक फायर कर सकता है, इस सवाल के जवाब में पत्रकार प्रदीप सिंह का कहना है-“ बैक फायर करने के लिए आपके पास कोई राजनैतिक पूंजी तो होनी चाहिए. कल्पना कीजिए कि आज से पंद्रह साल पहले ऐसा फैसला आया होता तो हजारों कार्यकर्ता दस जनपथ के बाहर खड़े होते. आज कोई नहीं दिखाई दे रहा है. विपक्ष की ओर से इस तरह का आह्वान नहीं आ रहा है. राहुल की लीडरशिप पर पहले भी सवाल उठते रहे. इसलिए अब बहुत से लोगों को लगेगा कि अच्छा हुआ छुटकारा मिल गया. ये एहसास है कांग्रेस के कुछ नेताओं में, इसीलिए जो जी-23 बना. ”

नाम न लेने की शर्त पर बीजेपी के कुछ नेता दबी जुबान से ये भी कहते हैं कि राहुल को इस तरह हीरो बनाना ठीक नहीं है, 1977 में इंदिरा को भी जनता सरकार ने बहुत घेरा था, इसलिए लोगों की सहानुभूति के चलते वे ज़बरदस्त समर्थन से फिर 1980 में सरकार में वापस आ गईं. सदस्यता खत्म करने से राहुल और कांग्रेस को सहानुभूति मिल सकती है. लेकिन राजनैतिक विश्लेषक प्रदीप सिंह का मानना है कि नेताओं की राजनैतिक पूंजी कॉंस्टैंट या स्थिर नहीं रहती- “ इंदिरा गांधी के समय कांग्रेस का जो संगठन था, पार्टी का जो सामाजिक-भौगोलिक आधार था, वो अब बचा नहीं है. राहुल गांधी की लोकप्रियता दिन प्रति दिन कम होती जा रही है. लोकप्रियता का मतलब है वोट दिलाने की ताकत, जो लगातार कम होती जा रही है. इसलिए उन्हें सिम्पैथी मिलेगी, ऐसी कोई उम्मीद नहीं लगती. दूसरी बात ये कि ये मुद्दा ऐसा नहीं है कि सरकार ने इसमें कुछ किया हो. उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी और पूरे मोदी समाज के लोगों को गाली दी, उन्हें चोर कहा. उस पर किसी मोदी ने मुकदमा कर दिया, अदालत ने फैसला कर दिया. क्या 70 के दशक में जगमोहन लाल सिन्हा के फैसले को विपक्ष का फैसला कहा जा सकता है. वो तो अदालत का फैसला था. तो राहुल गांधी को सिम्पैथी मिलेगी ऐसी कोई उम्मीद मुझे है नहीं.”

जो भी हो राहुल गांधी की सदस्यता खत्म किए जाने के फैसले के बाद से दिल्ली में राजनीतिक बैठकों का दौर तेज हो गया है. कांग्रेस दो बिंदुओं पर फोकस कर रही है- पहला- इस फैसले के खिलाफ जनता की राय कैसे बनाई जाए और दूसरा- चुनावी राजनीति में राहुल की जगह अब क्या प्रियंका गांधी को उतारा जाय. अगर हां तो कब और कैसे. उधर विपक्ष इस उहापोह में है कि 2024 के चुनावों से पहले अचानक हुई इस उठापटक के बाद इसका फायदा कैसे लिया जाय. विपक्षी नेतृत्व किस नेता के हाथ हो, ये सवाल अब भी बना हुआ है.

यह भी पढ़ें: सदस्यता रद्द होने पर राहुल गांधी ने दी पहली प्रतिक्रिया, बोले- हर कीमत चुकाने को तैयार हूं

नई दिल्ली: 2024 के लोकसभा चुनाव में ज़्यादा वक्त नहीं बचा है और उससे पहले कई राज्यों में चुनाव भी होने हैं. क्या राहुल की सदस्यता जाना और 6 बरस तक उनके चुनाव न लड़ पाने से कांग्रेस नेतृत्व के संकट से दो चार हो रही है, इस सवाल का जवाब दिया जनसत्ता के पूर्व सम्पादक, मशहूर पत्रकार और राजनैतिक विश्लेषक प्रदीप सिंह ने. उनका मानना है कि कांग्रेस में लीडरशिप की समस्या नई नहीं है.

“ कांग्रेस में लीडरशिप क्राइसिस 2014 से ही है और इस फैसले के बाद ये संकट और गहरा जाएगा. स्वास्थ्य की वजह से सोनिया गांधी रिटायरमेंट मोड में पहले से ही है. राहुल गांधी को अगर सज़ा दो साल के लिए न भी हुई, तो 6 साल के लिए चुनावी राजनीति से बाहर हो गए. सज़ा बरकरार रही, तो 8 साल के लिए राजनीति से बाहर रहेंगे. 8 साल बाद क्या होगा, कौन होगा, वो बाद की बात होगी. यूपी में इस परिवार का कोई प्रभाव है नहीं, ये लोगों ने 2019 में देख लिया. इसलिए सिर्फ कांग्रेस ही नहीं पूरे विपक्ष में लीडरशिप क्राइसिस की स्थित निश्चित रूप से आएगी. ”

कभी बीजेपी में वाजपेयी के बड़े करीबी रहे सुधींद्र कुलकर्णी इस फैसले को बदले की राजनीति मानते हैं-“ भारतीय राजनीतिक संस्कृति में द्वेष और प्रतिशोध के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए. राहुल गांधी ने ऐसा कोई अपराध नहीं किया है जिसके लिए दो साल की सज़ा मिले और उनकी सदस्यता भी खत्म की जाए. जो हुआ है गलत हुआ है, आने वाल दिनों में राहुल गांधी और मजबूत हो कर उभरेंगे. जो भी हो लेकिन राजनीति के लिए ये अच्छी बात नहीं है.”

अटल बिहारी वाजपेयी को याद करते हुए सुधींद्र कुलकर्णी कहते हैं- “ राहुल को चुनावी राजनीति से बाहर कर दिए जाने से जनता में संदेश गलत गया है और जनता इसका जवाब समय पर देगी. भारत में लोकतंत्र की जड़ें बहुत मजबूत हैं और जो भी हुआ है, आम जनता उसे पसंद नहीं करती. आज अगर वाजपेयी ज़िंदा होते, तो इसका समर्थन नहीं करते.”

तो क्या इतनी आपाधापी में सदस्यता रद्द करने का फैसला देना बीजेपी के लिए बैक फायर कर सकता है, इस सवाल के जवाब में पत्रकार प्रदीप सिंह का कहना है-“ बैक फायर करने के लिए आपके पास कोई राजनैतिक पूंजी तो होनी चाहिए. कल्पना कीजिए कि आज से पंद्रह साल पहले ऐसा फैसला आया होता तो हजारों कार्यकर्ता दस जनपथ के बाहर खड़े होते. आज कोई नहीं दिखाई दे रहा है. विपक्ष की ओर से इस तरह का आह्वान नहीं आ रहा है. राहुल की लीडरशिप पर पहले भी सवाल उठते रहे. इसलिए अब बहुत से लोगों को लगेगा कि अच्छा हुआ छुटकारा मिल गया. ये एहसास है कांग्रेस के कुछ नेताओं में, इसीलिए जो जी-23 बना. ”

नाम न लेने की शर्त पर बीजेपी के कुछ नेता दबी जुबान से ये भी कहते हैं कि राहुल को इस तरह हीरो बनाना ठीक नहीं है, 1977 में इंदिरा को भी जनता सरकार ने बहुत घेरा था, इसलिए लोगों की सहानुभूति के चलते वे ज़बरदस्त समर्थन से फिर 1980 में सरकार में वापस आ गईं. सदस्यता खत्म करने से राहुल और कांग्रेस को सहानुभूति मिल सकती है. लेकिन राजनैतिक विश्लेषक प्रदीप सिंह का मानना है कि नेताओं की राजनैतिक पूंजी कॉंस्टैंट या स्थिर नहीं रहती- “ इंदिरा गांधी के समय कांग्रेस का जो संगठन था, पार्टी का जो सामाजिक-भौगोलिक आधार था, वो अब बचा नहीं है. राहुल गांधी की लोकप्रियता दिन प्रति दिन कम होती जा रही है. लोकप्रियता का मतलब है वोट दिलाने की ताकत, जो लगातार कम होती जा रही है. इसलिए उन्हें सिम्पैथी मिलेगी, ऐसी कोई उम्मीद नहीं लगती. दूसरी बात ये कि ये मुद्दा ऐसा नहीं है कि सरकार ने इसमें कुछ किया हो. उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी और पूरे मोदी समाज के लोगों को गाली दी, उन्हें चोर कहा. उस पर किसी मोदी ने मुकदमा कर दिया, अदालत ने फैसला कर दिया. क्या 70 के दशक में जगमोहन लाल सिन्हा के फैसले को विपक्ष का फैसला कहा जा सकता है. वो तो अदालत का फैसला था. तो राहुल गांधी को सिम्पैथी मिलेगी ऐसी कोई उम्मीद मुझे है नहीं.”

जो भी हो राहुल गांधी की सदस्यता खत्म किए जाने के फैसले के बाद से दिल्ली में राजनीतिक बैठकों का दौर तेज हो गया है. कांग्रेस दो बिंदुओं पर फोकस कर रही है- पहला- इस फैसले के खिलाफ जनता की राय कैसे बनाई जाए और दूसरा- चुनावी राजनीति में राहुल की जगह अब क्या प्रियंका गांधी को उतारा जाय. अगर हां तो कब और कैसे. उधर विपक्ष इस उहापोह में है कि 2024 के चुनावों से पहले अचानक हुई इस उठापटक के बाद इसका फायदा कैसे लिया जाय. विपक्षी नेतृत्व किस नेता के हाथ हो, ये सवाल अब भी बना हुआ है.

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