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पवित्र मानी जाती है किन्नौरी शराब, पूजा-पाठ और दवा के रूप में होता है इस्तेमाल - wine of kinnaur

हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जिले में शराब की उत्पत्ति सैकड़ों साल पहले जिले के बुजुर्गों ने की थी. सदियों पुरानी शराब की प्रथा नशे को न्योता नहीं देती, बल्कि किन्नौर की संस्कृति और यहां की सभ्यता को दर्शाती है. किन्नौरी शराब को पवित्र माना जाता है. इसका इस्तेमाल औषधीय रूप में भी किया जाता है. इसे पारंपरिक तरीके से तैयार किया जाता है. शराब को तैयार करने में कई महीने का समय लगता है. पढ़िए ईटीवी भारत की यह रिपोर्ट...

किन्नौरी शराब
किन्नौरी शराब
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Published : Sep 12, 2021, 12:18 AM IST

किन्नौर : हिमाचल अपनी संस्कृति, खान-पान व रहन-सहन के लिए देशभर में जाना जाता है. यहां के खाद्य प्रदार्थ और पारंपरिक पोशाक लोगों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं. आज हम आपको किन्नौरी शराब की कुछ किस्में, गुण और इसके महत्व से आपको रूबरू करवाते है. शराब को किन्नौरी बोली में राक, आराक, फासुर कहते हैं. इसके अलावा हर क्षेत्र में अलग-अलग नाम से भी जाना जाता है, लेकिन मूलतः इन तीन शब्दों का प्रयोग अधिक किया जाता है.

ईटीवी भारत की रिपोर्ट

किन्नौर में शराब को शादी समारोह, पूजा-पाठ और औषधीय रूप में भी इस्तेमाल किया जाता है. सदियों पुरानी शराब की प्रथा नशे को न्योता नहीं देती, बल्कि किन्नौर की संस्कृति और यहां की सभ्यता को दर्शाती है. ये शराब काफी पवित्र मानी जाती है. कहा जाता है कि जिस बर्तन में इसे रखा जाता है. उसे परिवार के सभी सदस्य छू नहीं सकते. सिर्फ एक ही शख्स शराब को दूसरे बर्तन में निकालकर देता है.

किन्नौर की प्राकृतिक तरीके से निकाली गई शराब की पहचान करना काफी आसान है. शराब की गुणवत्ता चेक करने का बहुत ही आसान तरीका है. 10 या 20 रुपये के नोट को शराब में भिगोकर जला दिया जाए तो नोट में लगी शराब जल जाएगी, लेकिन नोट वैसे की वैसे ही रहेगी. किन्नौरी शराब को यहां की संस्कृति का अहम हिस्सा माना जाता है. यहां के बड़े बुजुर्गों को यह भी मानना है कि बच्चों को सर्दी, खांसी या पेट दर्द हो तो इस शराब के सेवन से उन्हें फायदा मिलता है.

किन्नौर में शराब की उत्पत्ति सैकड़ों साल पहले जिले के बुजुर्गों ने की थी. जिसका इतिहास काफी बड़ा है. जिला किन्नौर के कल्पा, निचार व पूह इलाके में अलग-अलग किस्म की शराब ग्रामीण निकालते है. कल्पा क्षेत्र व निचार क्षेत्र में अधिकतर लोग चुल्ली, सेब, नाशपती, काले व सफेद अंगूर के शराब निकालते हैं. वहीं, पूह क्षेत्र में मीठी खुबानी, चुल्ली व मुख्य रूप से जौ के शराब का अधिक महत्व है.

किन्नौर के तीनों खंडों में चाहे मेहमान नवाजी हो या पूजा पाठ या शादी समारोह, सभी जगहों पर इस शराब का इस्तेमाल किया जाता है. सरकार ने घरेलू प्रयोग के लिए 5 से 10 वर्ष की अवधि के लिए घरों में 24 बोतल शराब रखने की इजाजत दी है. सर्दियों में यहां अत्याधिक ठंड पड़ती है. लोग ठंड से खुद को बचाने के लिए लोकल शराब का इस्तेमाल करते हैं.

यह भी पढ़ें- देश के दिल में बसता है, अंग्रेजी नामों वाला देसी शहर, जानिए रोचक कहानी

किन्नौरी शराब का किस तरह सेवन किया जाए यह काफी मायने रखता है, क्योंकि इस शराब में डिग्री का कोई पैमाना नहीं होता है. किन्नौरी शराब में सबसे महंगी व अहम शराब रिब्बा की अंगूरी व नेसंग की ब्रांडी मशहूर है. जिसके सेवन के लिए आपको जेब से मोटा पैसा भी खर्च करना पड़ सकता है. शराब की ये किस्में इन दो गांवों में ही मिलती हैं. रिब्बा को अंगूर की धरती भी माना जाता है, यहां अंगूर बहुत अधिक होते हैं. स्थानीय लोग अंगूर से शराब तैयार करते हैं. वहीं, नेसंग में जौ की अच्छी पैदावार होती है. इसलिए यहां के लोग जौ से ब्रांडी तैयार करते हैं.

शराब को तैयार करने की प्रक्रिया को काफी कठिन माना जाता है. सबसे पहले एक बड़े बर्तन में किसी फसल या फल को पानी में भिगोया जाता है. इसके बाद इसे तीन से चार महीने के लिए ढककर रख दिया जाता है. फसल या फल के पक जाने पर उसे किसी दूसरे बर्तन में डालकर चुल्हे पर खूब उबाला जाता है. ठीक चूल्हे के उर रखे बर्तन के ऊपर हिस्से में पानी का बर्तन लगाया जाता है, जिसकी मदद से भाप ठंडी होकर पानी की शक्ल में बदल जाती है और पाइप की मदद से बाहर रखे बर्तन या बोतल में इकट्ठा होती रहती है.

किन्नौर : हिमाचल अपनी संस्कृति, खान-पान व रहन-सहन के लिए देशभर में जाना जाता है. यहां के खाद्य प्रदार्थ और पारंपरिक पोशाक लोगों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं. आज हम आपको किन्नौरी शराब की कुछ किस्में, गुण और इसके महत्व से आपको रूबरू करवाते है. शराब को किन्नौरी बोली में राक, आराक, फासुर कहते हैं. इसके अलावा हर क्षेत्र में अलग-अलग नाम से भी जाना जाता है, लेकिन मूलतः इन तीन शब्दों का प्रयोग अधिक किया जाता है.

ईटीवी भारत की रिपोर्ट

किन्नौर में शराब को शादी समारोह, पूजा-पाठ और औषधीय रूप में भी इस्तेमाल किया जाता है. सदियों पुरानी शराब की प्रथा नशे को न्योता नहीं देती, बल्कि किन्नौर की संस्कृति और यहां की सभ्यता को दर्शाती है. ये शराब काफी पवित्र मानी जाती है. कहा जाता है कि जिस बर्तन में इसे रखा जाता है. उसे परिवार के सभी सदस्य छू नहीं सकते. सिर्फ एक ही शख्स शराब को दूसरे बर्तन में निकालकर देता है.

किन्नौर की प्राकृतिक तरीके से निकाली गई शराब की पहचान करना काफी आसान है. शराब की गुणवत्ता चेक करने का बहुत ही आसान तरीका है. 10 या 20 रुपये के नोट को शराब में भिगोकर जला दिया जाए तो नोट में लगी शराब जल जाएगी, लेकिन नोट वैसे की वैसे ही रहेगी. किन्नौरी शराब को यहां की संस्कृति का अहम हिस्सा माना जाता है. यहां के बड़े बुजुर्गों को यह भी मानना है कि बच्चों को सर्दी, खांसी या पेट दर्द हो तो इस शराब के सेवन से उन्हें फायदा मिलता है.

किन्नौर में शराब की उत्पत्ति सैकड़ों साल पहले जिले के बुजुर्गों ने की थी. जिसका इतिहास काफी बड़ा है. जिला किन्नौर के कल्पा, निचार व पूह इलाके में अलग-अलग किस्म की शराब ग्रामीण निकालते है. कल्पा क्षेत्र व निचार क्षेत्र में अधिकतर लोग चुल्ली, सेब, नाशपती, काले व सफेद अंगूर के शराब निकालते हैं. वहीं, पूह क्षेत्र में मीठी खुबानी, चुल्ली व मुख्य रूप से जौ के शराब का अधिक महत्व है.

किन्नौर के तीनों खंडों में चाहे मेहमान नवाजी हो या पूजा पाठ या शादी समारोह, सभी जगहों पर इस शराब का इस्तेमाल किया जाता है. सरकार ने घरेलू प्रयोग के लिए 5 से 10 वर्ष की अवधि के लिए घरों में 24 बोतल शराब रखने की इजाजत दी है. सर्दियों में यहां अत्याधिक ठंड पड़ती है. लोग ठंड से खुद को बचाने के लिए लोकल शराब का इस्तेमाल करते हैं.

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किन्नौरी शराब का किस तरह सेवन किया जाए यह काफी मायने रखता है, क्योंकि इस शराब में डिग्री का कोई पैमाना नहीं होता है. किन्नौरी शराब में सबसे महंगी व अहम शराब रिब्बा की अंगूरी व नेसंग की ब्रांडी मशहूर है. जिसके सेवन के लिए आपको जेब से मोटा पैसा भी खर्च करना पड़ सकता है. शराब की ये किस्में इन दो गांवों में ही मिलती हैं. रिब्बा को अंगूर की धरती भी माना जाता है, यहां अंगूर बहुत अधिक होते हैं. स्थानीय लोग अंगूर से शराब तैयार करते हैं. वहीं, नेसंग में जौ की अच्छी पैदावार होती है. इसलिए यहां के लोग जौ से ब्रांडी तैयार करते हैं.

शराब को तैयार करने की प्रक्रिया को काफी कठिन माना जाता है. सबसे पहले एक बड़े बर्तन में किसी फसल या फल को पानी में भिगोया जाता है. इसके बाद इसे तीन से चार महीने के लिए ढककर रख दिया जाता है. फसल या फल के पक जाने पर उसे किसी दूसरे बर्तन में डालकर चुल्हे पर खूब उबाला जाता है. ठीक चूल्हे के उर रखे बर्तन के ऊपर हिस्से में पानी का बर्तन लगाया जाता है, जिसकी मदद से भाप ठंडी होकर पानी की शक्ल में बदल जाती है और पाइप की मदद से बाहर रखे बर्तन या बोतल में इकट्ठा होती रहती है.

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