हैदराबाद: देश के पहले नेशनल पार्क जिम कॉर्बेट का नाम बदलने वाला है ? दरअसल केंद्रीय वन एवं पर्यावरण राज्य मंत्री अश्विनी चौबे 3 अक्टूबर को रामनगर पहुंचे थे, जहां अमृत महोत्सव कार्यक्रम के तहत बाघों के संरक्षण को लेकर एक रैली निकाली गई थी. इसी दौरान उन्होंने जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क की जानकारी ली.बताया जा रहा है कि केंद्रीय मंत्री ने जब वहां किताबों से जाना कि कॉर्बेट नेशनल पार्क का नाम पहले रामगंगा नेशनल पार्क था तो उन्होंने पार्क क नाम रामगंगा नेशनल पार्क रखने की इच्छा जाहिर की.
सवाल है कि क्या जिम कॉर्बेट का नाम बदलना इतना आसान है ? ये सवाल इसलिये क्योंकि जिम कॉर्बेट एक नाम नहीं एक ब्रांड है, एक कहानी है. कहानी उस शख्स की जो प्रकृति प्रेमी भी था और शिकारी भी, जिसने लोगों की जान बचाने के लिए आदमखोर बाघों और तेंदुओं का शिकार किया और फिर उनके संरक्षण को बढ़ावा दिया. आज उसी जिम कॉर्बेट के नाम तले बाघों की आबादी फल फूल रही है. जिम कॉर्बेट का नाम उस इलाके की दुकानों से लेकर दिलों तक पर राज करता है. आज कहानी उसी जिम कॉर्बेट की.
जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क
उत्तराखंड के नैनीताल जिले में मौजूद जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क एक जाना-माना पर्यटक स्थल है. जहां देश विदेश के लाखों सैलानी हर साल पहुंचते हैं. देश के ज्यादातर लोग इसी नेशनल पार्क की वजह से जिम कॉर्बेट को जानते हैं. जिनके नाम से आज इस नेशनल पार्क को जाना जाता है. ये देश का पहला नेशनल पार्क है और प्रोजेक्ट टाइगर के तहत आने वाला भी ये पहला नेशनल पार्क है. 520 स्कवॉयर किलोमीटर में फैला ये टाइगर रिजर्व वैसे तो बाघों के संरक्षण के लिए विख्यात है. लेकिन कई अन्य जानवर, पक्षी और सैकड़ों प्रजाति के पेड़ पौधे हैं.
साल 1936 में ये नेशनल पार्क अस्तित्व में आया, तब इसका नाम हेली नेशनल पार्क (Haily National Park) था. साल 1954-55 में इसका नाम रामगंगा नेशनल पार्क रखा गया लेकिन करीब एक साल बाद (1955-56) ही इसका नाम जिम कॉर्बेट के नाम पर रख दिया गया.
कौन थे जिम कॉर्बेट ?
एडवर्ड जेम्स कॉर्बेट (Edward James Corbet) का जन्म 25 जुलाई 1875 को नैनीताल में एक आयरिश परिवार में हुआ था. बचपन में जंगल जाते और तीर, गुलेल से शिकार का अभ्यास करते थे. जब 6 साल के थे तो सिर से पिता का साया उठ गया. शुरुआती शिक्षा नैनीताल में हुई लेकिन किताबों से याराना नहीं था सो करीब 18 बरस की उम्र में ही पढ़ाई से नाता तोड़ लिया. नौकरी की तलाश में निकले और बंगाल एंड नॉर्थ वेस्टर्न रेलवे में फ्यूल इंस्पेक्टर के पद पर भर्ती हो गए. करीब 20 साल नौकरी की लेकिन इस दौरान पहाड़ जैसे उन्हें बुलाते रहे.
बचपन का खेल-कूद, पढाई, दोस्त, यादें सब उत्तराखंड की वादियों में थी, इसलिये यहां का मोह उन्हें वापस नैनीताल खींच लाया. साल 1915 में एक स्थानीय शख्स से कालाढूंगी क्षेत्र की छोटी हल्द्वानी में जमीन खरीदी. सर्दियों में यहां रहने के लिए जिम कॉर्बेट ने एक घर बना लिया और 1922 में यहां रहना शुरू कर दिया. गर्मियों में वो नैनीताल में गर्नी हाउस में रहने के लिए चले जाया करते थे. उन्होंने अपने सहयोगियों के लिए अपनी 221 एकड़ जमीन को खेती और रहने के लिए दे दिया, जिसे आज कॉर्बेट का गांव छोटी हल्द्वानी के नाम से जाना जाता है.
एक शिकारी के रूप में जिम कॉर्बेट
जिम कॉर्बेट हमेशा देश के मशहूर शिकारियों में गिने जाएंगे. आदमखोर जानवरों खासकर बाघ और तेंदुओं के आतंक से लोगों को निजात दिलाने के लिए वो हमेशा तैयार रहते थे. ये वो दौर था जब चिट्ठियों में बातें होती थीं, जिस भी इलाके के लोग आदमखोर जानवरों से परेशान होते थे वो जिम कॉर्बेट को चिट्ठी लिखकर मदद मांगते थे. कॉर्बेट को चिट्ठी लिखने का मतलब था कि वो जरूर आएंगे और लोगों की मुश्किल हल करेंगे. वो शिकारी थे लेकिन शौक के लिए नहीं बल्कि लोगों की मदद करने के लिए बंदूक उठाते थे. वो सिर्फ आदमखोर जानवरों का शिकार करते थे और शिकार से पहले बकायदा इसकी पूरी जांच पड़ताल करते थे कि वो जानवर वाकई में आदमखोर है भी या नहीं.
जिम कॉर्बेट ने कितने आदमखोर जानवर मारे ?
जिम कॉर्बेट ने 1907 से 1938 तक शिकार किया. कहते हैं कि इस दौरान उन्होंने 19 बाघों और 14 चीतों का शिकार किया. ये सभी आदमखोर थे और उत्तराखंड के कुमाऊं रीजन में इनका आतंक था. लोग जहां भी आदमखोर जानवरों के खौफ के साये में जीते, कॉर्बेट वहां पहुंच जाते थे. कभी जिम कॉर्बेट के साथ शिकार करने वाले लोग आज भी कॉर्बेट की बहादुरी के कायल हैं. वो बताते हैं कि महावत समेत उनके साथ सिर्फ 3 लोग आदमघोर जानवर का शिकार करने जाते थे.
जिम ने चंपावत बाघिन, चावगढ बाघिन, पनार चीता, रुद्रप्रयाग का आदमखोर चीता, मोहन आदमखोर चीता और चूका बाघिन का शिकार किया. कहते हैं कि इन आदमखोर बाघ और चीतों करीब 1200 लोगों को अपना शिकार बनाया था. दरअसल कॉर्बेट ने जिन जानवरों का शिकार किया था वो सच में खौफ का दूसरा नाम थे. जिसके कुछ उदाहरण आज भी रूह कंपाने के लिए काफी हैं.
1) चंपावत की बाघिन- इस मशहूर बाघिन ने आधिकारिक तौर पर करीब 436 लोगों की जान ली थी. कहते हैं कि ये बाघिन नेपाल में 234 लोगों को शिकार बना चुकी थी और फिर सीमा पार कर उत्तराखंड के कुमाऊं रीजन में पहुंची थी. जहां पहुंचने पर इसके शिकार हुए इंसानों की संख्या 436 पहुंच गई थी.
2) पहला तेंदुआ- साल 1910 में कॉर्बेट ने पहले आदमखोर तेंदुए को मारा था. इस तेंदुए ने 400 लोगों को मौत के घाट उतारा था.
3) रुद्रप्रयाग का तेंदुआ- कहते हैं कि इस तेंदुए ने केदारनाथ और बद्रीनाथ जाने वाले श्रद्धालुओं को 10 साल तक आतंकित किए रखा. इस तेंदुए ने भी 125 लोगों की जान ली थी.
एक शिकारी जो बना बाघों का मसीहा
जिम कॉर्बेट सिर्फ आदमखोर जानवरों का शिकार करते थे और उनके स्वास्थ्य, शरीर और स्वभाव का भी अध्ययन करते थे. एक आदमखोर बाघिन के चेहरे और शरीर पर उन्होंने हथियार के निशान देखे, जिसके बाद पता चला कि बाघिन के जबड़े में गोली लगी हुई थी. कॉर्बेट ये बात समझ चुके थे कि जानवर बेवजह आदमखोर नहीं बनते बल्कि इंसानी हमलों के कारण उनके स्वभाव में इंसानो के प्रति ये बदलाव आता है. जिसके बाद वो इस नतीजे पर पहुंचे कि इंसानों को बाघ चीतों से बचाने से ज्यादा जरूरी है जानवरों को इंसानों से बचाना. जिसके बाद वो बाघ और चीतों के संरक्षण में जुट गए.
ये वो वक्त था जब उनके हाथ में राइफल की जगह कैमरा था. जो वन्य जीवों की खूबसूरत तस्वीरें कैद करता था. बाघों के साथ उनका जो अनुभव रहा उसके बाद उन्हें बाघों को बेरहम और क्रूर कहने से ऐतराज था. वो मानते थे कि बाघ बेवजह किसी इंसान को नुकसान नहीं पहुंचाते हैं. घाव, जख्म और चोट के कारण जानवर आदमखोर बनते हैं, कई बार ये घाव इंसानों द्वारा दिए जाते हैं. बाघों की घटती आबादी को देखते हुए जिम कॉर्बेट ने ही 1936 में उस नेशनल पार्क की स्थापना के लिए आगे आए जिसे दुनिया आज जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क के नाम से जानती है.
जिम कॉर्बेट के आखिरी दिन
15 अगस्त 1947 को देश आजाद हो गया. करीब 3 महीने बाद नवंबर 1947 में जिम कॉर्बेट अपनी बहन मैगी कॉर्बेट के साथ केन्या चले गए. जहां न्येरी में उन्होंने अपना आखिरी वक्त गुजारा. इस दौरान जिम ने बाघों और अन्य वन्य जीवों की घटती तादाद पर किताब लिखी. अपनी आखिरी किताब लिखने के कुछ दिन बाद ही उन्हें दिल का दौरा पड़ा. 19 अप्रैल 1955 को 79 साल की उम्र में जिम कॉर्बेट इस दुनिया को अलविदा कह गए. लेकिन उनके नाम तले उत्तराखंड के जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क में बाघों की आबादी आज भी फल फूल रही है.
जिम कॉर्बेट ने लिखी 6 किताबें
कॉर्बेट ने अपनी जिंदगी के हर अहम पहलू को किताबों में संजोया है. उनकी जिंदगी उन 6 किताबों में है जो उन्होंने खुद लिखी थी.
मैन ईटर्स ऑफ कुमाऊं (Man-Eaters of Kumaon)- ये जिम कॉर्बेट की लिखी सबसे मशहूर किताब है. कहते हैं कि इस किताब को उन्होंने 'जंगल स्टोरीज़' के नाम से ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी भेजा था लेकिन कितान का नाम बदलकर 'मैन ईटर्स ऑफ कुमाऊं' कर दिया गया. 1944 में छपी इस किताब में कुमाऊं रीजन में उनके द्वारा मारे गए आदमखोर बाघों और उनके मारे जाने की कहानी है. इसमें उन्होंने आदमखोर जानवरों के शिकार के दौरान हुए अनुभवों को साझा किया है. साल 1946 तक इस किताब की 5 लाख प्रतियां बिक चुकीं थी और साल 1980 तक ये आंकड़ा 40 लाख के पार पहुंच चुका था.
इसी तरह साल 1948 में उनकी दूसरी किताब 'मैन ईटर्स लेपर्ड ऑफ रुद्रप्रयाग' (The Man-eating Leopard of Rudraprayag) आई. 1952 में उनकी लिखी 'माय इंडिया' (My India), 1953 में जंगल लोर (Jungle Lore), 1954 में 'द टैंपल टाइगर एंड मोर मैन ईटर्स ऑफ कुमाऊं' (The Temple Tiger and More Man-eaters of Kumaon) प्रकाशित हुई.
जिम कॉर्बेट की आखिरी किताब 'ट्री टॉप' (Tree Top) उनके निधन के बाद प्रकाशित हुई. 1947 में केन्या जाने के बाद वो पेड़ों पर झोपड़ी बनाकर रहते थे. साल 1952 में ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ भी उनके ट्री हाउस का दीदार करने पहुंची थीं. इसके अलावा माय कुमाऊं (My Kumaon) के नाम से उनकी एक असंग्रहित लेख भी हैं. जिसमें उन्होंने अपनी जिंदगी के हर किस्से को एक डायरी की तरह लिखा है.
जिम कॉर्बेट नहीं कारपेट साहब कहिये
जिम कॉर्बेट को कुमाऊं क्षेत्र के स्थानीय लोग जिम कॉर्बेट को कारपेट साहब के नाम से संबोधित करते थे. वो इस नाम से इतने मशहूर थे कि मार्टिन बूथ ने साल 1986 में जब उनकी जीवनी लिखी तो उसका नाम कारपेट साहब ( Carpet Sahib: A Life of Jim Corbett) रखा. दरअसल जिम कॉर्बेट के शुरुआती शिकार के सहयोगी उन्हें कारपेट साहब कहकर बुलाते थे और फिर यही नाम उस इलाके के लोगों में उनकी पहचान बन गया.
फिल्म, डॉक्यूमेंट्री, टिकट स्टैंप में जिम कॉर्बेट
साल 1948 में उनकी लिखी किताब मैन ईटर्स ऑफ कुमाऊं की सफलता के बाद इसी नाम से एक हॉलीवुड फिल्म भी बनी. इसके अलावा बीबीसी से लेकर कई टीवी और मीडिया हाउस उन्हें लेकर डॉक्यूमेंट्री बना चुके हैं. डाक विभाग ने उनकी जन्म शताब्दी पर एक डाक टिकट भी लॉन्च किया था, खास बात ये है कि उस डाक टिकट पर भी एक बाघ की ही तस्वीर थी.
जिम कॉर्बेट का नाम और स्थानीय कारोबार
जिम कॉर्बेट के नाम से सिर्फ नेशनल पार्क नहीं है. बल्कि उनके नाम से नेशनल पार्क के आस-पास मौजूद सैकड़ों दुकानों, रेस्त्रां, होटल, सैलून आदि का नाम कॉर्बेट के नाम से ही है. ये नेशनल पार्क पर्यटकों के लिए रोमांच का स्थान है तो स्थानीय लोगों के लिए रोज़ी रोटी का जरिया और दोनों जगह जिम कार्बेट उर्फ कारपेट साहब जिंदा है. जिन इलाकों को उन्होंने आदमखोर बाघ और तेंदुओं से छुटकारा दिलाया, वहां के लोग उन्हें मसीहा मानते हैं. जिम कॉर्बेट उनके दिलों में भी हमेशा जिंदा रहेंगे और कहीं ना कहीं जिम कॉर्बेट के बाघ भी अपने बच्चों को कॉर्बेट साहब के किस्से सुनाते आए होंगे.
प्रधानमंत्री मोदी और जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क
जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क में देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी शूटिंग कर चुके हैं. आप ये जानकर हैरान होंगे लेकिन ये हुआ है. डिस्कवरी चैनल के मशहूर कार्यक्रम 'मैन वर्सेज वाइल्ड' (Man vs Wild) का हिस्सा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी बन चुके हैं. ये एपिसोड अगस्त 2019 में प्रसारित हुआ था और इसकी शूटिंग उत्तराखंड के जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क में ही हुई थी.
एक प्रजाति के बाघ का नाम भी कॉर्बेट है
1968 में, बाघों की पांच शेष उप-प्रजातियों में से एक का नाम उनके नाम पर रखा गया था. इंडो चाइनीज़ टाइगर का वैज्ञानिक नाम Panthera tigris corbetti है. एक चेक बायोलॉजिस्ट ने जिम कॉर्बेट के सम्मान में इस स्पीशीज के लिए ये नाम प्रस्तवित किया था. इस प्रजाति के बाघ को कार्बेट टाइगर भी कहते हैं.
आज भी जिंदा हैं जिम कॉर्बेट
जिम कॉर्बेट वो शख्स जो भारत का नहीं था लेकिन ये देश मानो उसकी रूह में समाया हुआ था. उनकी जिंदगी के पन्ने पलटकर देखें तो लगता है कि उनका जन्म बाघों के लिए ही हुआ था. एक ऐसा शिकारी जिसने पहले आदमखोर बाघों से इंसानों की जिंदगी बचाई और फिर उम्र भर इंसानों से बाघों को बचाते रहे. दुनिया के 60 फीसदी बाघ आज भारत में हैं, इसके पीछे कहीं ना कहीं जिम कॉर्बेट की वो सोच भी है जिसने इन खूबसूरत प्राणियों को बचाने के लिए प्रेरित किया.
जिम कॉर्बेट या कारपेट साहब आज भी जिंदा है. उनसे जुड़ी कहानियां आज भी जिम कॉर्बेट के आस-पास के इलाके में सुनाई जाती हैं. उनके शिकार के किस्सों से कॉर्बेट नेशनल पार्क का कोना-कोना आज भी गुलजार है. और उनके उठाए कदमों से बचे बाघों की अगली पीढियां यहां शान से रहती हैं. जिनका दीदार करने पर्यटक दूर-दूर से आते हैं. कुल मिलाकर ये कहानी एक शिकारी की है जिसकी पनाह में आज बाघों की आबादी फल फूल रही है.
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