प्रजातंत्र की मजबूती के लिए जितनी जरूरत सरकार के स्थायित्व की होती है, उतनी ही जरूरत सजग विपक्ष की भी होती है. अगर विपक्ष कमजोर हो जाए और उसे अपने आपको बचाने के लिए किसी 'साए' की जरूरत पड़े, तो समझिए राष्ट्र की प्रगति और विकास प्रभावित होनी तय है. जनतंत्र एकतरफा हो जाएगा और लोगों की आकांक्षाओं की पूर्ति हवा में दीये जैसी हो जाएगी. भारतीय राजनीति में यह कोई नया ट्रेंड नहीं है कि विपक्ष, राज्य और केंद्र स्तर पर सरकार की विफलताओं और कमियों को बखूबी उजागर करता है, वह खुद (पूरी तरह से) अक्षम हो गया है. इसका नतीजा है कि पिछले साढ़े सात दशकों में देश ने इतनी आपदाओं का अनुभव किया है.
2014 और 2019 के आम चुनावों में, मोदी के नेतृत्व में भाजपा को जितनी बड़ी सफलता मिली, उसी दौर में विपक्ष लगभग गायब सा हो गया है. ऐसा लगता है कि इन पार्टियों को अपने पैरों पर खड़ा होने में काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है. वे बेजान-सी हो गईं हैं यानी जनता का विश्वास हासिल नहीं कर पा रहीं हैं. हरेक मौकों पर उनका यह संकल्प दोहराया जाता है कि मोदी से एकजुट होकर ही लड़ा जा सकता है. लेकिन जब समय आता है, तो हरेक पार्टी अपनी ही रणनीति पर चलती रहती है. चुनाव आयोग ने राष्ट्रपति चुनाव की घोषणा कर दी है. अब एक बार फिर से विपक्ष की एकता का मुद्दा उठ रहा है. एनडीए के सामने 20 हजार वोटों की कमी है. लेकिन उन्हें इसे हासिल करने में किसी दिक्कतों का सामना करना पड़ेगा, ऐसा लगता नहीं है. इसके बावजूद यह एक सुनहरा मौका है.
प्रजातंत्र में विपक्षी एकता दिखाने का यह बड़ा मौका है. इस वक्त यदि वे सभी मिलकर एक उम्मीदवार पर सहमति बना लेते हैं, तो आने वाले आम चुनाव के लिए यह बड़ा संदेश होगा. वैसे, उन्होंने एकता बना लेने की घोषणा जरूर की है. लेकिन सवाल वही है. क्या विपक्ष व्यर्थ अहंकार और संकीर्ण सोच वाली स्वार्थी राजनीति को त्यागकर लोकतंत्र की इस अग्नि परीक्षा को जीतेगा ? या वे हमेशा की तरह अपने क्षुद्र स्वार्थों के आगे झुक जाएंगे और राष्ट्र कल्याण की उपेक्षा करेंगे?
कांग्रेस समेत 19 दलों ने समन्वित प्रयासों और क्रियान्वयन से लोगों का विश्वास जीतने का भव्य संकल्प लिया तो है. लेकिन आगे क्या होगा, देखना होगा. वैसे भी कहा जाता है कि हारे हुए नेता बहुत अधिक दिखावे का प्रदर्शन करते हैं. इस मामले में कांग्रेस नेताओं का व्यवहार आत्मघाती ही दिखता है. यद्यपि कांग्रेस का पॉपुलर अपील धीरे-धीरे घट रहा है, सोनिया के नजदीकी नेताओं का दुराग्रह वास्तविक अप्रोच को स्वीकार करने में बाधा उत्पन्न करता है. गठबंधन की राजनीति तभी सफल होती है, जब उसके घटक दलों के बीच लचीला रूख हो. गठबंधन मजबूत होगा, यदि साझेदार दलों में भाग लेने वाले, सभी दलों के बीच एकता के साथ आगे बढ़ने की समझदारी और व्यापक दृष्टिकोण को आत्मसात करने की क्षमता होगी. तभी वे लंबे समय तक टिक पाएंगे. लेकिन विगत का अनुभव दिखाता है कि वे ऐसा करने में विफल रहे हैं, सिर्फ अंध मोदी विरोध कोई आधार नहीं हो सकता है. कई राज्यों में देखा गया है कि अंध मोदी विरोधी भावना की वजह से वे एकसाथ आए, लेकिन जल्द ही वे बिखर गए. सिर्फ सत्ताधारी दल की आलोचना ही पर्याप्त नहीं होती है. विपक्ष को लोगों की समस्याओं के समाधान के लिए अपना एजेंडा भी रखना होगा. उन्हें न्यूनतम, संयुक्त रणनीतियों के साथ आने के लिए अपने समर्पण का प्रदर्शन करना चाहिए.
इस तरह का कोई ठोस प्रस्ताव न होने के कारण, किसी भी समय (मेंढकों के समूह की तुलना में) यानी अस्थिर प्रकृति के सदस्यों के साथ असंबद्ध गठबंधनों को जन्म देना, वे आम जनता के लिए बेकार रहते हैं. विपक्षी दलों के लिए एक मंच पर परिपक्व रणनीतियों के साथ एक साथ आना आसान नहीं है. प्रत्येक चरण में उनके सामने चुनौती खड़ी होती है. उन्हें अपना अड़ियलपन छोड़ना ही होगा. जिद्दी रुख कायम रखकर वे आगे नहीं बढ़ सकते हैं. असल सवाल यह है कि क्या वे इस एकता को प्राप्त करने के लिए तैयार होंगे. क्या वे लोगों के कल्याण को अपने उच्च लक्ष्य के रूप में स्वीकार करेंगे. और क्या वे एक मजबूत और सच्चे विकल्प के लिए जमीन तैयार करने के इरादे से ईमानदारी से काम करेंगे ?
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