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India's Foreign Policy: कठिन परिस्थितियों का सामना कर रही भारत की विदेशी नीति

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Published : Feb 14, 2022, 7:21 PM IST

वैश्विक स्तर पर उभरते घटनाक्रमों के बीच वैश्विक भू-राजनीतिक वातावरण की वजह से भारत की विदेश नीति (Indias foreign policy difficult conditions) को कठिन समय का सामना करना पड़ रहा है. जो कि भारत की गुटनिरपेक्षता और रणनीतिक स्वायत्तता (Non alignment and Strategic Autonomy) स्थिति को परखने का काम करेगा. ईटीवी भारत के वरिष्ठ संवाददाता संजीब कुमार बरुआ की रिपोर्ट.

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नई दिल्ली: विदेशी मामलों में गुटनिरपेक्षता और रणनीतिक स्वायत्तता (Non alignment and Strategic Autonomy) की पारंपरिक भारतीय स्थिति को मौजूदा समय में बदलती वैश्विक व्यवस्था में धीरे-धीरे सामंजस्य बैठाना पड़ रहा है. कई प्रमुख मुद्दों पर भारत का रुख अमेरिका और रूस दोनों के दबाव के साथ जल्द ही एक विकल्प तैयार करने की ओर अग्रसर है. साउथ ब्लॉक में भारत की विदेश नीति का प्रबंधन करने वालों पर कई मुद्दों पर निर्णायक स्थिति लेने का जबरदस्त दबाव है. जो नई वैश्विक व्यवस्था की रूपरेखा को परिभाषित करने लगे हैं, जो कि चीन के महाशक्ति के रूप में उभरने और अमेरिका और चीन-रूस के नेतृत्व में नये ब्लॉक बना रहा है.

यूक्रेन-रूस

यूक्रेन संकट जो अब किसी भी बड़ा हो सकता है, पर भारत अपनी नीति पर अडिग है. रूस-यूक्रेन सीमाओं के साथ-साथ तटीय जल में रूस विशाल सैन्य तैनाती कर चुका है. जिससे युद्ध के बादल मंडरा रहे हैं क्योंकि दूसरी तरफ अमेरिका के नेतृत्व वाले नाटो बलों के साथ समानुपाती ताकत खड़ी है. इससे भारत एक विकट स्थिति का सामना कर रहा है. रूस पिछले आठ दशकों से भारत का आजमाया हुआ मित्र रहा है. इस गहरे सहयोग को दिसंबर 2021 में हुए एक समझौते द्वारा 2031 तक बढ़ा दिया गया है. वैसे भी लगभग 60 प्रतिशत भारतीय हथियार और सिस्टम पहले से ही रूसी हैं.

दूसरी ओर यूक्रेन, कई भारतीय सैन्य उपकरणों और प्लेटफार्मों के पुर्जों के लिए प्रमुख आपूर्तिकर्ता है. भारत के साथ सोवियत युग के संबंधों की विरासत को अमेरिका के नेतृत्व वाले नाटो द्वारा बढ़ावा दिया जा रहा है. जिससे भारत के लिए इसे चुनना मुश्किल हो गया है. अब तक भारत ने यूक्रेन पर अमेरिका और रूस के बीच वाक युद्ध पर चुप्पी बनाए रखी है. यूक्रेन पर भारत के गैर-प्रतिबद्ध रुख का नतीजा यह है कि मेलबर्न में अमेरिका, भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया के विदेश मंत्रियों की बैठक के बाद 11 फरवरी 2022 को क्वाड संयुक्त बयान में यूक्रेन का कोई संदर्भ नहीं था.

चतुर्भुज सुरक्षा वार्ता (क्वाड)

ऐसा माना जाता है कि क्वाड के उड़ान नहीं भरने के कारणों में से एक यह भी है कि भारत की ओर से उल्लेखनीय अनिच्छा रही है. अमेरिका के लिए चीन के खिलाफ स्टैंड लेने और रूस के साथ दूरी बनाने में भारत व्यस्त है. इसीलिए अमेरिका समय-समय पर भारत की आलोचना करता रहता है. 11 फरवरी 2022 को अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता के लिए अमेरिकी राजदूत-एट-लार्ज व राशद हुसैन ने भारतीय मुस्लिम महिलाओं द्वारा हिजाब पहनने पर बढ़े विवाद पर कड़े शब्दों में भारत की आलोचना की.

उन्होंने ट्वीट किया कि धार्मिक स्वतंत्रता में किसी की धार्मिक पोशाक को चुनने की क्षमता शामिल है. स्कूलों में हिजाब प्रतिबंध धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन करता है. भारत-अमेरिका संबंधों में नाजुकता का एक और संकेत यह होगा कि अमेरिका ने अभी तक रूस से शक्तिशाली एस-400 वायु रक्षा प्रणाली खरीदने के लिए भारत को छूट नहीं दी है. 2020 में DRDO और रूस के रोसोबोरोन एक्सपोर्ट के बीच रॉकेट और मिसाइलों को पावर देने के लिए उन्नत पायरोटेक्निक इग्निशन सिस्टम विकसित करने के लिए एक प्रौद्योगिकी विकास अनुबंध पर हस्ताक्षर किए गए थे.

दूसरी ओर भारत ने अमेरिका के साथ महत्वपूर्ण मूलभूत समझौते किए हैं, जो इसे सैन्य रूप से अमेरिका के बहुत करीब रखते हैं. ये समझौते 2016 में हस्ताक्षरित लॉजिस्टिक्स एक्सचेंज मेमोरेंडम ऑफ एग्रीमेंट (LEMOA) 2018 के कम्युनिकेशंस कम्पैटिबिलिटी एंड सिक्योरिटी एग्रीमेंट (COMCASA) और 2020 के BECA (बेसिक एक्सचेंज एंड कोऑपरेशन एग्रीमेंट) हैं. जाहिर है कि भारत पर अमेरिका और रूस द्वारा अपना पक्ष चुनने का दबाव बनाया जा रहा है.

म्यांमार की सैन्य जुंटा

भारत की प्रमुख एक्ट ईस्ट पॉलिसी (Act East Policy) के लिए म्यांमार एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है. यह म्यांमार के माध्यम से है कि भारत, चीन और सुदूर पूर्व तक पहुंच चाहता है. इसके अलावा भारत के मैत्रीपूर्ण प्रस्तावों ने नेपविडॉ के साथ काम किया और पूर्वोत्तर भारत के विद्रोहियों से लड़ने में सैन्य शासन द्वारा सक्रिय सहयोग के रूप में लाभांश प्राप्त कर रहे हैं. लेकिन वह 1 फरवरी 2021 के तख्तापलट तक ही था.

तख्तापलट और उसके बाद के घटनाक्रम ने भारतीय प्रतिष्ठान के लिए बड़ी दुविधा पेश की है. क्या उसे टाटमॉड का समर्थन करना चाहिए और इसलिए लोकतंत्र समर्थक ताकतों पर क्रूर कार्रवाई करनी चाहिए या फिर इसे लोगों के जन आंदोलन का समर्थन करना चाहिए? सैन्य शासन का समर्थन करना भारत की लोकतंत्र समर्थक वैचारिक स्थिति का विरोधाभास है. यह चीन को मजबूत करने के साथ ही अमेरिका और पश्चिम को नाराज करेगा. जो कि बंगाल की खाड़ी तक अपने परिवहन बुनियादी ढांचे का विस्तार करने पर आमादा है.

ईरान और पश्चिम एशिया

ऐतिहासिक रूप से साझा सांस्कृतिक विरासत और समानताओं के आधार पर ईरान व पश्चिम एशिया में भारत के सबसे करीबी दोस्तों में से एक रहे हैं. कश्मीर मुद्दे को विशेष रूप से मुस्लिम दुनिया में सदस्य देशों के बीच सुर्खियों में लाने के पाकिस्तान के नेतृत्व वाले प्रयास के लिए भारत के प्रतिरोध का आधार भी रहे हैं. इसके अलावा अफगानिस्तान और पाकिस्तान दोनों में बड़ी संपत्ति वाला ईरान, अफगानिस्तान में भारतीय हितों के फलने-फूलने का वास्तविक आधार है, जो मध्य एशिया का प्रवेश द्वार भी है. जहां भारत हमेशा मजबूत उपस्थिति की तलाश में है. वास्तव में चाबहार परियोजना में भारत की उपस्थिति पाकिस्तान को दरकिनार कर अफगानिस्तान और मध्य एशिया तक पहुंचने में मदद करने के लिए ही थी.

यह भी पढ़ें- पीएम मोदी ने केन्या के पूर्व प्रधानमंत्री से की मुलाकात, संबंधों को मजबूत करने की दी प्रतिबद्धता

आर्थिक रूप से भी ईरान भारतीय मुद्रा में भारत को पेट्रोल बेचने को तैयार है लेकिन अमेरिकी प्रतिबंधों के कारण भारत ने ईरानी तेल खरीदना बंद कर दिया था. इसके बजाय अमेरिकी तेल खरीदना शुरू कर दिया था, जिससे ईरान दूर हो गया. भारत-ईरान की खाई को चौड़ा करने के कारण भी ईरान द्वारा कश्मीर में अनुच्छेद 370 को निरस्त करने पर ईरान द्वारा एक अभूतपूर्व और जोरदार विरोध किया गया. भारतीय विदेश नीति के मैट्रिक्स में ईरान द्वारा छोड़ा गया अंतर अधूरा रहता है, जिसके परिणामस्वरूप पश्चिम एशिया में भारतीय प्रभाव कम हो जाता है.

नई दिल्ली: विदेशी मामलों में गुटनिरपेक्षता और रणनीतिक स्वायत्तता (Non alignment and Strategic Autonomy) की पारंपरिक भारतीय स्थिति को मौजूदा समय में बदलती वैश्विक व्यवस्था में धीरे-धीरे सामंजस्य बैठाना पड़ रहा है. कई प्रमुख मुद्दों पर भारत का रुख अमेरिका और रूस दोनों के दबाव के साथ जल्द ही एक विकल्प तैयार करने की ओर अग्रसर है. साउथ ब्लॉक में भारत की विदेश नीति का प्रबंधन करने वालों पर कई मुद्दों पर निर्णायक स्थिति लेने का जबरदस्त दबाव है. जो नई वैश्विक व्यवस्था की रूपरेखा को परिभाषित करने लगे हैं, जो कि चीन के महाशक्ति के रूप में उभरने और अमेरिका और चीन-रूस के नेतृत्व में नये ब्लॉक बना रहा है.

यूक्रेन-रूस

यूक्रेन संकट जो अब किसी भी बड़ा हो सकता है, पर भारत अपनी नीति पर अडिग है. रूस-यूक्रेन सीमाओं के साथ-साथ तटीय जल में रूस विशाल सैन्य तैनाती कर चुका है. जिससे युद्ध के बादल मंडरा रहे हैं क्योंकि दूसरी तरफ अमेरिका के नेतृत्व वाले नाटो बलों के साथ समानुपाती ताकत खड़ी है. इससे भारत एक विकट स्थिति का सामना कर रहा है. रूस पिछले आठ दशकों से भारत का आजमाया हुआ मित्र रहा है. इस गहरे सहयोग को दिसंबर 2021 में हुए एक समझौते द्वारा 2031 तक बढ़ा दिया गया है. वैसे भी लगभग 60 प्रतिशत भारतीय हथियार और सिस्टम पहले से ही रूसी हैं.

दूसरी ओर यूक्रेन, कई भारतीय सैन्य उपकरणों और प्लेटफार्मों के पुर्जों के लिए प्रमुख आपूर्तिकर्ता है. भारत के साथ सोवियत युग के संबंधों की विरासत को अमेरिका के नेतृत्व वाले नाटो द्वारा बढ़ावा दिया जा रहा है. जिससे भारत के लिए इसे चुनना मुश्किल हो गया है. अब तक भारत ने यूक्रेन पर अमेरिका और रूस के बीच वाक युद्ध पर चुप्पी बनाए रखी है. यूक्रेन पर भारत के गैर-प्रतिबद्ध रुख का नतीजा यह है कि मेलबर्न में अमेरिका, भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया के विदेश मंत्रियों की बैठक के बाद 11 फरवरी 2022 को क्वाड संयुक्त बयान में यूक्रेन का कोई संदर्भ नहीं था.

चतुर्भुज सुरक्षा वार्ता (क्वाड)

ऐसा माना जाता है कि क्वाड के उड़ान नहीं भरने के कारणों में से एक यह भी है कि भारत की ओर से उल्लेखनीय अनिच्छा रही है. अमेरिका के लिए चीन के खिलाफ स्टैंड लेने और रूस के साथ दूरी बनाने में भारत व्यस्त है. इसीलिए अमेरिका समय-समय पर भारत की आलोचना करता रहता है. 11 फरवरी 2022 को अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता के लिए अमेरिकी राजदूत-एट-लार्ज व राशद हुसैन ने भारतीय मुस्लिम महिलाओं द्वारा हिजाब पहनने पर बढ़े विवाद पर कड़े शब्दों में भारत की आलोचना की.

उन्होंने ट्वीट किया कि धार्मिक स्वतंत्रता में किसी की धार्मिक पोशाक को चुनने की क्षमता शामिल है. स्कूलों में हिजाब प्रतिबंध धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन करता है. भारत-अमेरिका संबंधों में नाजुकता का एक और संकेत यह होगा कि अमेरिका ने अभी तक रूस से शक्तिशाली एस-400 वायु रक्षा प्रणाली खरीदने के लिए भारत को छूट नहीं दी है. 2020 में DRDO और रूस के रोसोबोरोन एक्सपोर्ट के बीच रॉकेट और मिसाइलों को पावर देने के लिए उन्नत पायरोटेक्निक इग्निशन सिस्टम विकसित करने के लिए एक प्रौद्योगिकी विकास अनुबंध पर हस्ताक्षर किए गए थे.

दूसरी ओर भारत ने अमेरिका के साथ महत्वपूर्ण मूलभूत समझौते किए हैं, जो इसे सैन्य रूप से अमेरिका के बहुत करीब रखते हैं. ये समझौते 2016 में हस्ताक्षरित लॉजिस्टिक्स एक्सचेंज मेमोरेंडम ऑफ एग्रीमेंट (LEMOA) 2018 के कम्युनिकेशंस कम्पैटिबिलिटी एंड सिक्योरिटी एग्रीमेंट (COMCASA) और 2020 के BECA (बेसिक एक्सचेंज एंड कोऑपरेशन एग्रीमेंट) हैं. जाहिर है कि भारत पर अमेरिका और रूस द्वारा अपना पक्ष चुनने का दबाव बनाया जा रहा है.

म्यांमार की सैन्य जुंटा

भारत की प्रमुख एक्ट ईस्ट पॉलिसी (Act East Policy) के लिए म्यांमार एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है. यह म्यांमार के माध्यम से है कि भारत, चीन और सुदूर पूर्व तक पहुंच चाहता है. इसके अलावा भारत के मैत्रीपूर्ण प्रस्तावों ने नेपविडॉ के साथ काम किया और पूर्वोत्तर भारत के विद्रोहियों से लड़ने में सैन्य शासन द्वारा सक्रिय सहयोग के रूप में लाभांश प्राप्त कर रहे हैं. लेकिन वह 1 फरवरी 2021 के तख्तापलट तक ही था.

तख्तापलट और उसके बाद के घटनाक्रम ने भारतीय प्रतिष्ठान के लिए बड़ी दुविधा पेश की है. क्या उसे टाटमॉड का समर्थन करना चाहिए और इसलिए लोकतंत्र समर्थक ताकतों पर क्रूर कार्रवाई करनी चाहिए या फिर इसे लोगों के जन आंदोलन का समर्थन करना चाहिए? सैन्य शासन का समर्थन करना भारत की लोकतंत्र समर्थक वैचारिक स्थिति का विरोधाभास है. यह चीन को मजबूत करने के साथ ही अमेरिका और पश्चिम को नाराज करेगा. जो कि बंगाल की खाड़ी तक अपने परिवहन बुनियादी ढांचे का विस्तार करने पर आमादा है.

ईरान और पश्चिम एशिया

ऐतिहासिक रूप से साझा सांस्कृतिक विरासत और समानताओं के आधार पर ईरान व पश्चिम एशिया में भारत के सबसे करीबी दोस्तों में से एक रहे हैं. कश्मीर मुद्दे को विशेष रूप से मुस्लिम दुनिया में सदस्य देशों के बीच सुर्खियों में लाने के पाकिस्तान के नेतृत्व वाले प्रयास के लिए भारत के प्रतिरोध का आधार भी रहे हैं. इसके अलावा अफगानिस्तान और पाकिस्तान दोनों में बड़ी संपत्ति वाला ईरान, अफगानिस्तान में भारतीय हितों के फलने-फूलने का वास्तविक आधार है, जो मध्य एशिया का प्रवेश द्वार भी है. जहां भारत हमेशा मजबूत उपस्थिति की तलाश में है. वास्तव में चाबहार परियोजना में भारत की उपस्थिति पाकिस्तान को दरकिनार कर अफगानिस्तान और मध्य एशिया तक पहुंचने में मदद करने के लिए ही थी.

यह भी पढ़ें- पीएम मोदी ने केन्या के पूर्व प्रधानमंत्री से की मुलाकात, संबंधों को मजबूत करने की दी प्रतिबद्धता

आर्थिक रूप से भी ईरान भारतीय मुद्रा में भारत को पेट्रोल बेचने को तैयार है लेकिन अमेरिकी प्रतिबंधों के कारण भारत ने ईरानी तेल खरीदना बंद कर दिया था. इसके बजाय अमेरिकी तेल खरीदना शुरू कर दिया था, जिससे ईरान दूर हो गया. भारत-ईरान की खाई को चौड़ा करने के कारण भी ईरान द्वारा कश्मीर में अनुच्छेद 370 को निरस्त करने पर ईरान द्वारा एक अभूतपूर्व और जोरदार विरोध किया गया. भारतीय विदेश नीति के मैट्रिक्स में ईरान द्वारा छोड़ा गया अंतर अधूरा रहता है, जिसके परिणामस्वरूप पश्चिम एशिया में भारतीय प्रभाव कम हो जाता है.

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