आपने अपनी किताब 'रिपोर्टिंग इंडिया' में किन विषयों की चर्चा की है. इसके बारे में बताएं.
इस किताब में मैंने उन सारे मुद्दों को शामिल किया है, जिसे मैंने अपने करियर में कवर किया है. जब हम छोटे थे, उस समय ब्रिटिश भारत में मौजूद थे. इसके बारे में भी मैंने अपनी किताब में लिखा है. उसके बाद राजनीति, मेरी आधिकारिक मान्यता सबके बारे में चर्चा है. मात्र 31साल की अवस्था में मुझे मान्यता मिल गई थी. उस समय कवर करना आसान था. अप्वाइंटमेंट जल्दी मिल जाते थे. इसलिए नेहरू के जीवन के कई पहलुओं को हमने करीब से देखा है. उनके घर में मैं जाना-पहचाना नाम हो गया था. मुझे यह स्वीकार करने में कोई दिक्कत नहीं है कि नेहरू ने मुझे व्यक्तिगत रूप से सिखाया, कैसे साक्षात्कार किया जाता है, उसका फिल्मांकन कैसे करना है, वगैरह-वगैरह. वह सचमुच बहुत ही अद्भुत दौर था. मैंने नेहरू के कार्यकाल, प्रोजेक्ट निर्माण, चीन से संबंध, 1962 का युद्ध, पंडितजी के निधन, लाल बहादुर शास्त्री का ताशकंद जाना, 1965 का युद्ध...सारे विषय पर रिपोर्टिंग की. युद्ध की कवरेज के दौरान हम सेना की मदद से एक पहाड़ की चोटी के ऊपर तक चले गए थे. हां, मनमोहन सिंह और मोदी के समय में मैंने जो कुछ लिखा है, उसके लिए फील्ड नहीं गया.
आपने अपनी किताब में लिखा है कि नेहरू 1962 के लिए अपने को दोषी मानते थे, इसके बारे में जरा बताएं.
देखिए, ऐसा नहीं है कि नेहरू दोषी थे. या फिर उन्होंने समर्पण कर दिया था. लेकिन उन्हें यह महसूस हुआ कि सेना का आधुनिकीकरण करना चाहिए था. उनके समय में रक्षा मंत्री कृष्णा मेनन थे. दोनों का यह मानना था कि द्वितीय विश्वयुद्ध की विभीषिका के बाद एक और युद्ध दुनिया के लिए अच्छा नहीं होगा. इससे समस्या खत्म नहीं होगी. इसी सोच की वजह से उन्होंने सेना को आधुनिक हथियार नहीं दिए. सेना के पास वही हथियार थे, जो उन्हें द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान मिले थे. नेहरू ने राजनयिक स्तर पर चीन से बातचीत की. वे चाहते थे कि युद्ध की नौबत न आए. लेकिन आपको बता दूं कि चीन पर विश्वास कभी नहीं किया जा सकता है. वे युद्ध के लिए सामने आ गए. वे नॉर्थ ईस्ट फ्रंटियर एरिया में आ गए. यह आज का अरुणाचल प्रदेश है. पंजाब और अन्य क्षेत्रों से हमारे सैनिकों को ले जाया गया. जब तक हमारी सेना पहुंची, वे हमसे ऊपर वाली जगह पर थे. उसके बाद उनके पास विशेष हथियार थे. दुर्भाग्यपूर्ण रहा कि हमारी सेना को हार का सामना करना पड़ा.
कृष्मा मेनन ने बीएम कौल को सेना का जनरल बनाया था. उनमें युद्ध को संभालने का माद्दा नहीं था. वे मुख्य रूप से सप्लायी कॉर्प्स को देखते थे. मेनन ने सेना का राजनीतिकरण कर दिया था. कौल का मुख्य काम सेना को रशद पहुंचाने वाली यूनिट का नियंत्रण करना था. यही वजह थी, जो होना था, वह हुआ.
अगर हम आपसे विदेश नीति के बारे में जानना चाहें, तो आप क्या कहना चाहेंगे.
स्वतंत्रता आंदोलन के समय में हमारा नजरिया स्वंत्र विदेश नीति बनाने का था. दुर्भाग्य से इस सोच को निर्गुट राष्ट्र की नीति में समाहित कर दिया गया. हम सोवियत संघ और अमेरिका के बीच चल रहे शीत युद्ध के बीच पिसते रहे. कभी इधर तो कभी उधर, यही सोच रही. दोनों ही पक्ष चाहते थे कि भारत हमारी ओर रहे. हमारी नीति गलत नहीं थी, लेकिन इस सोच की वजह से हम प्रभावित जरूर हुए. उसके बाद दुनिया में बदलाव आया. नेहरू ने 1962 की हार के बाद 20 महीनों में सेना को नई ताकत देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. मैं उन्हें देर रात तक काम करते देखता था. 1967 का परिणाम आपके सामने है. चीन ने जब नाथुला के पास दोबारा से चढ़ाई करने की कोशिश की, वह असफल हो गया. हमने उनके 400 सैनिकों को ढेर कर दिया. हमने उन्हें तिब्बत के अंदर 30 मील तक खदेड़ दिया. उसके बाद भारतीय जनरल सागत सिंह ने एकतरफा सीजफायर की घोषणा कर दी, ताकि चीनी सैनिक आएं और अपने सैनिकों के बॉडी ले जा सकें. हमारी सेना ने बहादुरी का छाप छोड़ा था.
आपने बांग्लादेश युद्ध के समय करीब से उसका कवरेज किया था, वह कैसा अनुभव था.
जब पाकिस्तान ने बांग्लादेश की मांग नहीं मानी, तो समस्या शुरू हो गई. शेख मुजीबुर रहमान पूर्वी पाकिस्तान के थे. वे नेता चुने गए थे. जुल्फीकार अली भुट्टो और पाकिस्तान की सेना ने मुजीबुर रहमान को मान्यता नहीं दी. भुट्टो स्वंय ही पीएम बन गए. इसके बाद रहमान ने संघर्ष की घोषणा कर दी. उन्होंने मुक्ति संग्राम का ऐलान किया. पाकिस्तान की सेना ने जुल्म ढहाना शुरू कर दिया. 10 लाख से ज्यादा बांग्लादेशी शरण के लिए भारत आ गए. इसमें हिंदू के साथ-साथ मुस्लिम भी थे. इनमें अधिकांश आवामी लीग के समर्थक थे. भारत को एक स्टैंड लेना ही था. भारत ने निर्णय लिया, कि इन सब को वापस जाना होगा. हालांकि, उनकी पूरी मदद की जाएगी. 15 दिनों में भारत ने मुक्ति वाहिनी का साथ देकर पाकिस्तान का खेल खत्म कर दिया.
आपने अपनी किताब में लिखा है कि शिमला समझौते पर हस्ताक्षकर करके इंदिरा गांधी ने गलती की. क्योंकि उन्हें पहले कश्मीर का मुद्दा सुलझाना चाहिए था.
याद रखिए, हमारे कब्जे में 93 हजार पाकिस्तानी सैनिक थे. द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद यह सबसे बड़ी फोर्स थी, जिसे किसी देश ने अपने कब्जे में कर लिया था. पाकिस्तान पर उन्हें वापस लाने का जबरदस्त दबाव था. भुट्टो अपनी बेटी के साथ शिमला आए थे. हम भुट्टो के झांसे में आ गए थे. भुट्टो ने झूठा भरोसा दिया कि वे कश्मीर की सीमा पर वे लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल का पालन करेंगे. अंतिम दिन मुझे लगा कि कश्मीर मुद्दे पर दबाव की वजह से यह बातचीत टूट गई. तभी यह जानकारी दी गई कि शिमला समझौते पर हस्ताक्षर कर लिया गया है. कश्मीर मुद्दा अनसुलझा ही रह गया. यह वो समय था, जहां हमारी स्थिति काफी मजबूत थी. हमें उसका फायदा उठाना चाहिए था.