नई दिल्ली : जहां एक ओर भारत, चीन के साथ सीमा पर बड़े सैन्य संकट से निपट रहा है, वहीं यूरोपीय संघ भी खुद को चीनी निर्भरता से मुक्त करना चाह रहा है, इसलिए भारत और यूरोपीय संघ अपने द्विपक्षीय, सामरिक और व्यापार साझेदारी को मजबूत करने के प्रयास कर रहे हैं.
एक विशेषज्ञ का कहना है कि यूरोपीय संघ भारत के कई मोर्चों पर महत्वपूर्ण भागीदार हो सकता है. ईटीवी भारत से बात करते हुए पूर्व भारतीय राजनयिक भास्वती मुखर्जी ने कहा कि भारत का यूरोपीय संघ के साथ एक बहुआयामी संबंध है. भारत हमेशा यूरोपीय संघ के साथ संबंधों में एक बड़ी भागीदारी चाहता है.
ब्रेक्जिट के बाद भारत-यूरोपीय संघ की साझेदारी
यूरोपीय संघ ब्रेक्जिट से पहले अपने सर्वोत्तम प्रयासों के बावजूद, ब्रिटेन के मजबूत प्रतिरोध के कारण खुद को एक सैन्य गठबंधन में बदलने में असमर्थ था. ब्रिटेन ने यूरोपीय संघ द्वारा किए गए प्रयासों को नाटो (द नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गनाइजेशन) और ब्रिटेन-अमेरिका की ट्रान्साटलांटिक साझेदारी के लिए खतरे के रूप में देखा.
अब जब ब्रेक्जिट पूरा हो गया है, तो यूरोपीय संघ के प्रमुख देश जैसे- फ्रांस और जर्मनी की ओर से यह उम्मीद है कि वे सेना और नौसेना सहित बेहतर सैन्य बल को आगे बढ़ा सकेंगे, जो नाटो के अंदर और नाटो के बाहर होगी और इसका कारण यह है कि तुर्की की सदस्यता के कारण नाटो अब प्रतिरोधी हो गया है.
यही कारण है कि जर्मनी और फ्रांस सहित यूरोपीय संघ के प्रमुख देशों ने अब 'क्वाड' में शामिल होने में रुचि दिखाई है, क्योंकि वे क्वाड को (विशेष रूप से अमेरिका और भारत को) दो देशों के रूप में देखते हैं, जो चीन की सैन्य आक्रामकता का जवाब दे सकते हैं.
एफटीए या द्विपक्षीय व्यापार और निवेश समझौते (बीटीआईए) पर किसी भी प्रगति की उम्मीद की जा सकती है या नहीं और भारत-यूरोपीय संघ द्विपक्षीय व्यापार संबंध कितना महत्वपूर्ण है, के सवाल के जवाब में मुखर्जी ने कहा, इस सिलसिले में वार्ता लंबे समय से अटकी हुई है.
उन्होंने कहा कि वार्ता एक स्तर पर पहुंच गई थी जब भारत और यूरोपीय संघ हस्ताक्षर करने के लिए तैयार थे, लेकिन दुर्भाग्य से अमेरिका में मंदी का दौर आ गया और फिर यूरोजोन संकट में आ गया. ऐसे समय यूरोपीय संघ संरक्षणवादी बन गया. संघ बीटीआईए पर हस्ताक्षर करने के लिए भारत को आवश्यक रियायत देने की स्थिति में नहीं था.
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उन्होंने कहा कि उसके बाद जब यूरोपीय संघ यूरोजोन संकट से बाहर आया, तो चीजें बदल गईं और उस समय हम जिस तरह की रियायत देने के लिए तैयार थे, वह अब संभव नहीं था, इसलिए हमें बीटीआईए को लेकर फिर से बातचीत करनी पड़ी. इस बीच, यूके यूरोपीय संघ द्वारा किए जाने वाले किसी भी रियायत के खिलाफ थे, क्योंकि यूके को डर था कि यह उनकी अर्थव्यवस्था पर द्विपक्षीय रूप से प्रभाव डालेगा.
अब जब ब्रिटेन ने यूरोपीय संघ से खुद को अलग कर लिया है, तो भारत और यूरोपीय संघ दोनों के वार्ताकारों को विश्वास है कि शायद, एक सीमित समझौता संभव होगा. बीटीआईए जितना व्यापक तो नहीं क्योंकि बीटीआईए की समस्या सिर्फ व्यापार नहीं थी, बल्कि निवेश भी थी. इनमें से कुछ मुद्दों को दोनों पक्षों को सुलझाने की जरूरत है.
भास्वती मुखर्जी का कहना है कि ब्रेक्जिट के बाद निश्चित रूप से, यूरोपीय संघ द्वारा दी गई कुछ रियायतों के साथ विशिष्ट क्षेत्रों में एक सीमित व्यापार समझौता हो सकता है क्योंकि पिछले कुछ महीनों में, भारत और यूरोपीय संघ के कुछ सदस्य देशों ने सहयोग बढ़ाने के लिए वर्चुअल बैठकें की हैं.
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भारत यूरोपीय संघ के कुछ सदस्य देशों के साथ मिलकर एक नया रोड मैप बनाने, सुरक्षा, व्यापार और निवेश, डिजिटल अर्थव्यवस्था, बुनियादी ढांचा, कनेक्टिविटी, कोरोना वायरस संकट से निपटने और जलवायु संकट से निपटने के लिए काम कर रहा है. हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने फिनलैंड की प्रधानमंत्री सना मारिन के साथ पहली बार द्विपक्षीय शिखर सम्मेलन आयोजित किया.
शिखर वार्ता के दौरान दोनों नेताओं ने द्विपक्षीय संबंधों के विभिन्न आयामों और आपसी हित के क्षेत्रीय व वैश्विक मुद्दों पर विचारों का आदान प्रदान किया. भारत और फिनलैंड दोनों ही मानवतावादी, लोकतांत्रिक वैश्विक व्यवस्था में विश्वास रखते हैं. तकनीक, नवीनीकरण, साफ ऊर्जा, पर्यावरण, शिक्षा ऐसे क्षेत्रों में हमारे बीच मजबूत सहयोग है. इस दौरान आईसीटी, मोबाइल तकनीक और डिजिटल शिक्षा के क्षेत्र में एक नई साझेदारी घोषित हुई.
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भास्वती मुखर्जी ने कहा कि भारत-यूरोपीय संघ के बीच संबंध व्यापार से कहीं अधिक है. अगर बीटीआईए में कोई प्रगति नहीं हो रही है, तो इसका मतलब यह नहीं है कि बाकी संबंधों को नजरअंदाज कर दिया जाना चाहिए.
उन्होंने कहा कि हमने यूरोपीय संघ के देशों के साथ जलवायु परिवर्तन, सोलर एलायंस, सैन्य अभ्यास पर भारी प्रगति की है. इसलिए, भारत अब यूरोपीय संघ को एक प्रमुख रणनीतिक साझेदार के रूप में देखता है.