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उदयपुर से नए अभ्युदय की तैयारी, क्या 'शिमला' साबित होगा 2022 का चिंतन शिविर - कांग्रेस की राजनीति

कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर पर अपनी जमीन और जनाधार को मजबूत करने के लिए चिंतन करने जा रही है. इसकी पूरी तैयारी को अंतिम रूप दे दिया है कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी ने. जो अपने सिपहसालारों के साथ चेतक पर सवार होकर उदयपुर की तरफ रुखसत कर चुके हैं. जहां से कांग्रेस का अभ्युदय होना है और पूरे देश में एक बार फिर से कांग्रेस अपना परचम लहराना चाह रही है. उदयपुर पहुंचने की मूल वजह अपने उस पुराने वजूद वाले राजनीतिक विरासत से है जो राजीव गांधी ने वहां से देश के लिए सियासत को खड़ा किया था. कांग्रेस एक बार फिर वही से चिंतन शिविर में नई राजनीति का स्वरूप लेकर पूरे भारत को फिर से जीतने की रणभेरी बजाने वाली है, लेकिन कांग्रेस को जिन चुनौतियों से जूझना है वह भी कम नहीं है.

importance of udaipur congress chintan shivir on loksabha election 2024
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Published : May 12, 2022, 8:17 PM IST

Updated : May 12, 2022, 10:42 PM IST

नई दिल्ली: कांग्रेस के चिंतन शिविर में उत्तर भारत की राजनीति को मजबूती से पकड़ना और पूर्वोत्तर समीकरण को साधना दोनों प्राथमिकता में है. सवाल यह है कि जिस स्थिति में कांग्रेस है अगर उसके राज्य के अनुसार बात करें तो बिहार में 1990 से राष्ट्रीय जनता दल के पीछे की सियासत कर रही कांग्रेस एकजुटता की लड़ाई लड़ रही है और हाल के दिनों में विधानसभा चुनाव की बात रही हो या फिर एमएलसी के चुनाव में कांग्रेस को जिस तरीके से राष्ट्रीय जनता दल के तेजस्वी यादव ने किनारे किया है उससे एकजुटता पर बड़ा सवाल उठ रहा है. बात पड़ोसी राज्य झारखंड की करें तो यहां पर झारखंड मुक्ति मोर्चा के साथ कांग्रेस सरकार में है, लेकिन विवाद का चोली दामन जैसा रिश्ता हो गया है. हर 2 महीने पर हेमंत सोरेन से होने वाले विवाद का समझौता करने के लिए सभी कांग्रेस के नेता दिल्ली दरबार में फरियाद करते हैं, एक नीति बनती है लेकिन जमीन तक उतरती नहीं.

उत्तर प्रदेश बात की करें तो 2022 में हुए चुनाव में नरेंद्र मोदी के विकास का मॉडल और योगी के 5 सालों की तपस्या का परिणाम ऐसा हुआ कि प्रियंका गांधी की सियासत ही जमींदोज हो गई. लड़की हूं लड़ सकती हूं का नारा तो जरूर दिया लेकिन पूरे उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस कहीं दिखाई ही नहीं दी. स्थिति यहां तक पहुंची कि प्रियंका गांधी ने अपने बयानों में यह कह दिया था कि उत्तर प्रदेश में बीजेपी के अलावा सरकार बनती है तो बगैर कांग्रेस के नहीं बनेगी और जो सरकार उत्तर प्रदेश में बनी उसने कांग्रेस का पूरा सूपड़ा ही साफ कर दिया. पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस और बीजेपी की लड़ाई में कांग्रेस का कोई आधार ही नहीं दिखा. जमीनी लड़ाई की बात कौन करे जमीन पर खड़ा होना मुश्किल दिखा जो लोग अपने थे वह भी दामन छोड़ के दूसरा रास्ता पकड़ लिए. सियासत में वजूद की लड़ाई ही कांग्रेस पश्चिम बंगाल में लड़ रही है.

पंजाब में पार्टी ने कैप्टन बनाम सिद्धू और सिद्धू बनाम कांग्रेस किसी सियासी झगड़े को खड़ा किया, उसका पूरा फायदा आम आदमी पार्टी उठा ले गई. यह अलग बात है कि बीजेपी उसमें बहुत कुछ नहीं कर पाई. मध्यप्रदेश में कमलनाथ के नेतृत्व में 2018 में सरकार तो जरूर बनी लेकिन ज्योतिरादित्य सिंधिया के रुख बदलने से मध्यप्रदेश में कांग्रेस की गद्दी जाती रही और यहीं से कांग्रेस की एकजुटता की कहानी सवालों में आ गई या एकजुट करने के लिए चिंतन शिविर के लिए मुद्दे भी मजबूती से खड़े हो गए कि आखिर इतने सवालों का उत्तर आएगा कहां से?

कांग्रेस राजस्थान और छत्तीसगढ़ की राजनीति में टिकी हुई है. सरकार भी कांग्रेस की है तो ऐसे में समीकरण भी बन रहा है कि 2023 में होने वाले विधानसभा चुनाव में 2018 में जिस तरीके की बढ़त मिली थी उसे फिर से पा लिया जाए. क्योंकि 2018 में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में हुए चुनाव में तीनों स्थानों पर कांग्रेस जीती थी. यह अलग बात है कि छत्तीसगढ़ और राजस्थान में सरकार तो बच गई लेकिन मध्य प्रदेश में सरकार चली गई. विवाद राजस्थान में भी कम नहीं है क्योंकि अशोक गहलोत बनाम सचिन पायलट का जो झगड़ा चल रहा है, वह कांग्रेस की स्थिरता पर भी एक बड़ा सवाल खड़ा करता है. क्योंकि 2018 के विधानसभा चुनाव परिणामों के बाद दिल्ली दरबार में जिस तरीके से अशोक गहलोत और सचिन पायलट दौड़ लगा रहे थे उसमें पूरी राजनीति ही इस सवालों के साथ आ गई थी कि राजस्थान में चुनाव लड़ना है तो दिल्ली जाओ सरकार बनाना है तो दिल्ली जाओ मंत्री बनाना है तो दिल्ली जाओ विकास लाना है तो दिल्ली जाओ और दोनों राजस्थान के नेता दिल्ली जा रहे थे. हालांकि बदले हुए राजनीतिक हालात में 2022 में दिल्ली अब राजस्थान आ रहा है तो देखने वाली बात यह है कि यहां से उठने वाली आवाज कितनी दमदार होती है और विवादों को किनारे कर के एक बार फिर से कांग्रेस के जमीन और जनाधार को मजबूत करती है. क्योंकि यह भी एक बड़ा सवाल है कि जहां कांग्रेस बची रहे, उसे बचाना कांग्रेस की पहली और अंतिम चुनौती भी है.

बात दक्षिण भारत की करें तो कर्नाटक में डीके शिवकुमार कांग्रेस के पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष हैं लेकिन यहां भी पार्टी विवादों से ऊपर नहीं जा पा रही है. कर्नाटक में पार्टी की एकजुटता इस आधार पर सवालों में है कि वोट बैंक के बढ़ने का कोई आधार दिख नहीं रहा है और जमीन पर कांग्रेस बहुत ज्यादा काम करती भी नहीं दिख रही है. बात तमिलनाडु की करें तो डीएमके के साथ कांग्रेस का गठबंधन तो जरूर है लेकिन जमीन पर कांग्रेस का कोई आधार नहीं है. हां केरल में जरूर कांग्रेस का आधार इस आधार पर मजबूत है कि सदन में विपक्ष की बड़ी पार्टी है लेकिन जमीन पर आज भी अंतर्विरोध की लड़ाई लड़ रही है. तेलंगाना में पार्टी की मजबूती और जनाधार का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 2022 के चिंतन शिविर की बैठक के ठीक पहले राहुल गांधी अगर किसी राज्य के दौरे पर थे वह तेलंगाना था और ओवैसी विश्वविद्यालय में कोई कार्यक्रम भी करना चाहते थे लेकिन यहां की सरकार ने अनुमति ही नहीं दी. पार्टी का इतना भी मजबूत आधार नहीं था कि वह फिर से यहां पर किसी तरह की चीज से उसे खड़ा कर पाए. तेलंगाना प्रदेश कांग्रेस कमेटी के प्रदेश अध्यक्ष रेवंत रेड्डी भले ही उसके लिए एकजुटता की कोशिश कर रहे हैं लेकिन कांग्रेस को एकजुट करना तेलंगाना में भी मुश्किल हो गया है क्योंकि तेलंगाना के जितने बड़े नेता थे उन्हें टीआरएस में इतनी मजबूत हिस्सेदारी जरूर मिली हुई है कि बिखरती कांग्रेस की सबसे बड़ी कहानी वहीं से लिख दी गई. आंध्र प्रदेश की भी स्थिति वही है. आंध्र प्रदेश के कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष सैला जय नाथ इस कोशिश में तो जरूर लगे हैं कि कांग्रेस को मजबूत कर लिया जाए लेकिन यहां भी कांग्रेस की स्थिति मजबूत होती नहीं दिख रही है इसकी सबसे बड़ी वजह कांग्रेस के भीतर मची वह लड़ाई है जिसे रोक पाने के लिए एक केंद्रीय नेतृत्व को और मजबूत केंद्रीय नेतृत्व का होना बहुत जरूरी है जो कांग्रेस में अभी भी खाली दिख रही है.

कांग्रेस अगर विगत 10 सालों में बीजेपी को सबसे बड़ी चुनौती या देश के लिए सबसे बड़ी चुनौती का आधार कहीं से खड़ा कर पाती थी तो जम्मू कश्मीर की वह राजनीति जो पूरे देश के लिए चिंता भी पैदा करती थी और चिंतन भी होता था वहां भी कांग्रेस लगातार कमजोर हो रही है. कांग्रेस पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष गुलाम मीर लगातार पार्टी को मजबूत करने की कोशिश तो कर रहे हैं लेकिन आपस में विवाद और लगातार कांग्रेस के भीतर मचे घमासान से पार्टी कमजोर होती जा रही है. बचाने की कोशिश तो जरूर हो रही है लेकिन पार्टी के नेता लगातार अपने पदों से इस्तीफा दे रहे हैं. जिससे कांग्रेस वहां कमजोर हो रही है और इसका सबसे बड़ा फायदा जिस कश्मीर में बीजेपी के विरोध की बात होती थी अब फायदे के रूप में देखा जा रहा है.

कांग्रेस के चिंतन शिविर का सफरनामा: कांग्रेस ने कांग्रेस को मजबूती देने के लिए अब तक चार चिंतन शिविर किए हैं जिसमें 1998 का पंचमंढ़ी में चिंतन शिविर 2003 में शिमला शिविर 2013 का जयपुर का चिंतन शिविर और अब 2022 में उदयपुर में चिंतन शिविर होने जा रहा है. कांग्रेस के हर चिंतन शिविर के बाद जो उनके खाते में चीजें आई हैं अगर उसे जोड़ कर देखा जाए तो फायदे और घाटे की राजनीति को जो घटा लिया जाता है. 1998 की राजनीति कांग्रेस के लिए उस दौर की राजनीति में था जिसमें कांग्रेस लड़ाई जरूर लड़ रही थी लेकिन राजनीति में मजबूत दखल नहीं रखती थी.

बात 2003 के शिमला शिविर की करें यह कांग्रेस के लिए सबसे बेहतर समय इसलिए भी कहा जा सकता है कि 1989 में आए बिंदेश्वरी प्रसाद के मंडल कमीशन के बाद क्षेत्रीय दलों ने जिस तरीके से राजनीति पर कब्जा किया था उस का सबसे ज्यादा घाटा कांग्रेस का ही हुआ था. 2003 के शिमला शिविर के बाद अटल बिहारी वाजपेई की सरकार को हटाते हुए मनमोहन सिंह ने 2004 में यूपीए वन बनाया था और सरकार ने अपना पूरा कार्यकाल पूरा किया था, यही नहीं 2009 में हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस फिर शानदार प्रदर्शन करते हुए वापस लौटी थी और 2014 तक अपनी सरकार चलाई थी.

2013 की जयपुर में हुए चिंतन शिविर में इस बात की चिंता तो कांग्रेस को हो गई थी कि जमीन और जनाधार कांग्रेस का कितना कमजोर हो चुका है कि बीजेपी जिस मोदी रथ पर सवार हो गई है उस की लहर का असर तो साफ-साफ दिख रहा है. घोटालों की फेहरिस्त, काले धन की बात, बढ़ते तेल की कीमत, कालाबाजारी ऐसे मुद्दे थे जो उस समय भारतीय जनमानस के बीच कुछ इस कदर बैठ गए थे कि कांग्रेस सिर्फ भ्रष्टाचारियों को संरक्षण दे रही है और यही वजह है कि मोदी वाले बयान और मोदी वाले मुद्दे कांग्रेस को 2014 में गद्दी से हटा दिए और यहीं से कांग्रेस के खराब दिन की शुरुआत भी तय हो गई.

2022 के चिंतन शिविर में कांग्रेस अपने जिन मुद्दों को लेकर के जा रही है वह निश्चित तौर पर आने वाले समय में राज्यों में होने वाले चुनाव और 2024 में होने वाले देश के चुनाव के लिए मजबूत नीतियां निर्धारित करेगा. पूर्वोत्तर राज्यों का समीकरण राष्ट्रीय अध्यक्ष का चयन पार्टी को सभी राज्यों में खड़ा करना और उस वजूद को बचाना इस चिंतन शिविर की सबसे बड़ी चुनौती है. क्योंकि 2003 में जिस चिंतन शिविर को शिमला में किया गया था उसने कांग्रेस को बहुत मजबूती दी और 2003 के चिंतन शिविर में आज से 19 साल पहले कांग्रेस के पूरे देश में 15 मुख्यमंत्री हुआ करते थे और यही वजह था कि जिस जमीन और जनाधार को पार्टी बनाना चाहती थी वह बना लेती थी. 2022 के उदयपुर चिंतन शिविर की सबसे बड़ी चुनौती यही है कि 19 साल बाद जिस चिंतन शिविर में कांग्रेस जा रही है उस समय पूरे देश में उसके सिर्फ दो मुख्यमंत्री हैं. ऐसे में पूरे देश के लिए राजनीतिक लड़ाई को खड़ा करना और पूरे देश में एक मजबूत विपक्ष आम आदमी के पक्ष के तौर पर खड़ा होना और उसके लिए लड़ाई लड़ने के लिए समर्पित कार्यकर्ताओं की जरूरत है, जूझने वाले कार्यकर्ताओं की जरूरत है जो कांग्रेस की दूसरी लाइन में फिलहाल खड़ा होता दिख नहीं रहा है. अब उदयपुर से किसने कांग्रेस का अभ्युदय होता है यह निश्चित तौर पर चिंता में भी है और चिंतन में भी.

वोट बैंक वाली राजनीति: पूरे देश में अगर कांग्रेस के वोट बैंक की बात करें तो ऐसा माना जाता था कि ओबीसी वोट बैंक जिसके साथ होगा वह निश्चित तौर पर देश में मजबूती से खड़ा होगा. कांग्रेस कभी इस वोट बैंक पर मजबूत पकड़ रखती थी लेकिन 2019 के लोकनीति सीएसडीएस के राष्ट्रीय चुनाव अध्ययन को माने तो इस वोट बैंक पर बीजेपी ने मजबूत पकड़ बनाई है. अगर राज्य के अनुसार बात करें तो बिहार में बीजेपी का 26 फ़ीसदी ओबीसी वोट बैंक पर कब्जा है जबकि क्षेत्रीय पार्टियों की बात करें तो नीतीश वाली जदयू को 25 फ़ीसदी और जबकि राष्ट्रीय जनता दल को सिर्फ 11 फ़ीसदी वोट मिला है और कांग्रेस महज 4 फ़ीसदी पर सिमट गई है जो कभी लगभग 26 फ़ीसदी से ऊपर हुआ करती थी.

बात उत्तर प्रदेश की करें तो यहां के ओबीसी का 61 फ़ीसदी वोट बैंक बीजेपी के पास है, जबकि सपा के पास 14 परसेंट और बसपा के साथ 15 फ़ीसदी है, कांग्रेस इसमें कहीं टिकती ही नहीं है. बात पश्चिम बंगाल की करें तो वहा भी ओबीसी का 68 फ़ीसदी वोट बैंक बीजेपी के पास है, जबकि तृणमूल कांग्रेस के पास 27 फ़ीसदी वोट बैंक है, कांग्रेस यहां कहीं भी नहीं दिखती, बात तेलंगाना की करें तो भाजपा के पास 23 फ़ीसदी, टीआरएस के पास 42 फ़ीसदी. आंध्र प्रदेश की बात करें तो यहां बीजेपी बहुत कुछ नहीं कर पाई है लेकिन टीडीपी 46 फ़ीसदी और वाईएसआर कांग्रेस 34 फ़ीसदी ओबीसी वोट बैंक पर कब्जा किए हुए हैं.

बात कर्नाटक की करें तो यहां पर बीजेपी को ओबीसी का 50 फ़ीसदी वोट बैंक मिला हुआ है जबकि जेडीएस को 13 फ़ीसदी कांग्रेस दहाई के आंकड़े तक भी नहीं पहुंच पाई है. बात ओडिशा की करें तो यहां भी ओबीसी वोट बैंक पर बीजेपी 40 फ़ीसदी कब्जा किए हुए हैं, जबकि बीजू जनता दल भी 40 फ़ीसदी वोट बैंक पर कब्जा जमाए हुए हैं, कांग्रेस यहां पर भी दहाई अंक पर नहीं पहुंच पाई है. कांग्रेस चिंतन शिविर के लिए कुछ ऐसी चुनौतियां हैं जिनसे पार पाए बगैर देश की राजनीति में कांग्रेस को खड़ा कर पाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन जैसा है, लेकिन निश्चित तौर पर हर नामुमकिन से मुमकिन चीजें खड़ी होती हैं जो उदयपुर के चिंतन शिविर में कांग्रेस तैयार करेगी.

नई दिल्ली: कांग्रेस के चिंतन शिविर में उत्तर भारत की राजनीति को मजबूती से पकड़ना और पूर्वोत्तर समीकरण को साधना दोनों प्राथमिकता में है. सवाल यह है कि जिस स्थिति में कांग्रेस है अगर उसके राज्य के अनुसार बात करें तो बिहार में 1990 से राष्ट्रीय जनता दल के पीछे की सियासत कर रही कांग्रेस एकजुटता की लड़ाई लड़ रही है और हाल के दिनों में विधानसभा चुनाव की बात रही हो या फिर एमएलसी के चुनाव में कांग्रेस को जिस तरीके से राष्ट्रीय जनता दल के तेजस्वी यादव ने किनारे किया है उससे एकजुटता पर बड़ा सवाल उठ रहा है. बात पड़ोसी राज्य झारखंड की करें तो यहां पर झारखंड मुक्ति मोर्चा के साथ कांग्रेस सरकार में है, लेकिन विवाद का चोली दामन जैसा रिश्ता हो गया है. हर 2 महीने पर हेमंत सोरेन से होने वाले विवाद का समझौता करने के लिए सभी कांग्रेस के नेता दिल्ली दरबार में फरियाद करते हैं, एक नीति बनती है लेकिन जमीन तक उतरती नहीं.

उत्तर प्रदेश बात की करें तो 2022 में हुए चुनाव में नरेंद्र मोदी के विकास का मॉडल और योगी के 5 सालों की तपस्या का परिणाम ऐसा हुआ कि प्रियंका गांधी की सियासत ही जमींदोज हो गई. लड़की हूं लड़ सकती हूं का नारा तो जरूर दिया लेकिन पूरे उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस कहीं दिखाई ही नहीं दी. स्थिति यहां तक पहुंची कि प्रियंका गांधी ने अपने बयानों में यह कह दिया था कि उत्तर प्रदेश में बीजेपी के अलावा सरकार बनती है तो बगैर कांग्रेस के नहीं बनेगी और जो सरकार उत्तर प्रदेश में बनी उसने कांग्रेस का पूरा सूपड़ा ही साफ कर दिया. पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस और बीजेपी की लड़ाई में कांग्रेस का कोई आधार ही नहीं दिखा. जमीनी लड़ाई की बात कौन करे जमीन पर खड़ा होना मुश्किल दिखा जो लोग अपने थे वह भी दामन छोड़ के दूसरा रास्ता पकड़ लिए. सियासत में वजूद की लड़ाई ही कांग्रेस पश्चिम बंगाल में लड़ रही है.

पंजाब में पार्टी ने कैप्टन बनाम सिद्धू और सिद्धू बनाम कांग्रेस किसी सियासी झगड़े को खड़ा किया, उसका पूरा फायदा आम आदमी पार्टी उठा ले गई. यह अलग बात है कि बीजेपी उसमें बहुत कुछ नहीं कर पाई. मध्यप्रदेश में कमलनाथ के नेतृत्व में 2018 में सरकार तो जरूर बनी लेकिन ज्योतिरादित्य सिंधिया के रुख बदलने से मध्यप्रदेश में कांग्रेस की गद्दी जाती रही और यहीं से कांग्रेस की एकजुटता की कहानी सवालों में आ गई या एकजुट करने के लिए चिंतन शिविर के लिए मुद्दे भी मजबूती से खड़े हो गए कि आखिर इतने सवालों का उत्तर आएगा कहां से?

कांग्रेस राजस्थान और छत्तीसगढ़ की राजनीति में टिकी हुई है. सरकार भी कांग्रेस की है तो ऐसे में समीकरण भी बन रहा है कि 2023 में होने वाले विधानसभा चुनाव में 2018 में जिस तरीके की बढ़त मिली थी उसे फिर से पा लिया जाए. क्योंकि 2018 में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में हुए चुनाव में तीनों स्थानों पर कांग्रेस जीती थी. यह अलग बात है कि छत्तीसगढ़ और राजस्थान में सरकार तो बच गई लेकिन मध्य प्रदेश में सरकार चली गई. विवाद राजस्थान में भी कम नहीं है क्योंकि अशोक गहलोत बनाम सचिन पायलट का जो झगड़ा चल रहा है, वह कांग्रेस की स्थिरता पर भी एक बड़ा सवाल खड़ा करता है. क्योंकि 2018 के विधानसभा चुनाव परिणामों के बाद दिल्ली दरबार में जिस तरीके से अशोक गहलोत और सचिन पायलट दौड़ लगा रहे थे उसमें पूरी राजनीति ही इस सवालों के साथ आ गई थी कि राजस्थान में चुनाव लड़ना है तो दिल्ली जाओ सरकार बनाना है तो दिल्ली जाओ मंत्री बनाना है तो दिल्ली जाओ विकास लाना है तो दिल्ली जाओ और दोनों राजस्थान के नेता दिल्ली जा रहे थे. हालांकि बदले हुए राजनीतिक हालात में 2022 में दिल्ली अब राजस्थान आ रहा है तो देखने वाली बात यह है कि यहां से उठने वाली आवाज कितनी दमदार होती है और विवादों को किनारे कर के एक बार फिर से कांग्रेस के जमीन और जनाधार को मजबूत करती है. क्योंकि यह भी एक बड़ा सवाल है कि जहां कांग्रेस बची रहे, उसे बचाना कांग्रेस की पहली और अंतिम चुनौती भी है.

बात दक्षिण भारत की करें तो कर्नाटक में डीके शिवकुमार कांग्रेस के पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष हैं लेकिन यहां भी पार्टी विवादों से ऊपर नहीं जा पा रही है. कर्नाटक में पार्टी की एकजुटता इस आधार पर सवालों में है कि वोट बैंक के बढ़ने का कोई आधार दिख नहीं रहा है और जमीन पर कांग्रेस बहुत ज्यादा काम करती भी नहीं दिख रही है. बात तमिलनाडु की करें तो डीएमके के साथ कांग्रेस का गठबंधन तो जरूर है लेकिन जमीन पर कांग्रेस का कोई आधार नहीं है. हां केरल में जरूर कांग्रेस का आधार इस आधार पर मजबूत है कि सदन में विपक्ष की बड़ी पार्टी है लेकिन जमीन पर आज भी अंतर्विरोध की लड़ाई लड़ रही है. तेलंगाना में पार्टी की मजबूती और जनाधार का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 2022 के चिंतन शिविर की बैठक के ठीक पहले राहुल गांधी अगर किसी राज्य के दौरे पर थे वह तेलंगाना था और ओवैसी विश्वविद्यालय में कोई कार्यक्रम भी करना चाहते थे लेकिन यहां की सरकार ने अनुमति ही नहीं दी. पार्टी का इतना भी मजबूत आधार नहीं था कि वह फिर से यहां पर किसी तरह की चीज से उसे खड़ा कर पाए. तेलंगाना प्रदेश कांग्रेस कमेटी के प्रदेश अध्यक्ष रेवंत रेड्डी भले ही उसके लिए एकजुटता की कोशिश कर रहे हैं लेकिन कांग्रेस को एकजुट करना तेलंगाना में भी मुश्किल हो गया है क्योंकि तेलंगाना के जितने बड़े नेता थे उन्हें टीआरएस में इतनी मजबूत हिस्सेदारी जरूर मिली हुई है कि बिखरती कांग्रेस की सबसे बड़ी कहानी वहीं से लिख दी गई. आंध्र प्रदेश की भी स्थिति वही है. आंध्र प्रदेश के कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष सैला जय नाथ इस कोशिश में तो जरूर लगे हैं कि कांग्रेस को मजबूत कर लिया जाए लेकिन यहां भी कांग्रेस की स्थिति मजबूत होती नहीं दिख रही है इसकी सबसे बड़ी वजह कांग्रेस के भीतर मची वह लड़ाई है जिसे रोक पाने के लिए एक केंद्रीय नेतृत्व को और मजबूत केंद्रीय नेतृत्व का होना बहुत जरूरी है जो कांग्रेस में अभी भी खाली दिख रही है.

कांग्रेस अगर विगत 10 सालों में बीजेपी को सबसे बड़ी चुनौती या देश के लिए सबसे बड़ी चुनौती का आधार कहीं से खड़ा कर पाती थी तो जम्मू कश्मीर की वह राजनीति जो पूरे देश के लिए चिंता भी पैदा करती थी और चिंतन भी होता था वहां भी कांग्रेस लगातार कमजोर हो रही है. कांग्रेस पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष गुलाम मीर लगातार पार्टी को मजबूत करने की कोशिश तो कर रहे हैं लेकिन आपस में विवाद और लगातार कांग्रेस के भीतर मचे घमासान से पार्टी कमजोर होती जा रही है. बचाने की कोशिश तो जरूर हो रही है लेकिन पार्टी के नेता लगातार अपने पदों से इस्तीफा दे रहे हैं. जिससे कांग्रेस वहां कमजोर हो रही है और इसका सबसे बड़ा फायदा जिस कश्मीर में बीजेपी के विरोध की बात होती थी अब फायदे के रूप में देखा जा रहा है.

कांग्रेस के चिंतन शिविर का सफरनामा: कांग्रेस ने कांग्रेस को मजबूती देने के लिए अब तक चार चिंतन शिविर किए हैं जिसमें 1998 का पंचमंढ़ी में चिंतन शिविर 2003 में शिमला शिविर 2013 का जयपुर का चिंतन शिविर और अब 2022 में उदयपुर में चिंतन शिविर होने जा रहा है. कांग्रेस के हर चिंतन शिविर के बाद जो उनके खाते में चीजें आई हैं अगर उसे जोड़ कर देखा जाए तो फायदे और घाटे की राजनीति को जो घटा लिया जाता है. 1998 की राजनीति कांग्रेस के लिए उस दौर की राजनीति में था जिसमें कांग्रेस लड़ाई जरूर लड़ रही थी लेकिन राजनीति में मजबूत दखल नहीं रखती थी.

बात 2003 के शिमला शिविर की करें यह कांग्रेस के लिए सबसे बेहतर समय इसलिए भी कहा जा सकता है कि 1989 में आए बिंदेश्वरी प्रसाद के मंडल कमीशन के बाद क्षेत्रीय दलों ने जिस तरीके से राजनीति पर कब्जा किया था उस का सबसे ज्यादा घाटा कांग्रेस का ही हुआ था. 2003 के शिमला शिविर के बाद अटल बिहारी वाजपेई की सरकार को हटाते हुए मनमोहन सिंह ने 2004 में यूपीए वन बनाया था और सरकार ने अपना पूरा कार्यकाल पूरा किया था, यही नहीं 2009 में हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस फिर शानदार प्रदर्शन करते हुए वापस लौटी थी और 2014 तक अपनी सरकार चलाई थी.

2013 की जयपुर में हुए चिंतन शिविर में इस बात की चिंता तो कांग्रेस को हो गई थी कि जमीन और जनाधार कांग्रेस का कितना कमजोर हो चुका है कि बीजेपी जिस मोदी रथ पर सवार हो गई है उस की लहर का असर तो साफ-साफ दिख रहा है. घोटालों की फेहरिस्त, काले धन की बात, बढ़ते तेल की कीमत, कालाबाजारी ऐसे मुद्दे थे जो उस समय भारतीय जनमानस के बीच कुछ इस कदर बैठ गए थे कि कांग्रेस सिर्फ भ्रष्टाचारियों को संरक्षण दे रही है और यही वजह है कि मोदी वाले बयान और मोदी वाले मुद्दे कांग्रेस को 2014 में गद्दी से हटा दिए और यहीं से कांग्रेस के खराब दिन की शुरुआत भी तय हो गई.

2022 के चिंतन शिविर में कांग्रेस अपने जिन मुद्दों को लेकर के जा रही है वह निश्चित तौर पर आने वाले समय में राज्यों में होने वाले चुनाव और 2024 में होने वाले देश के चुनाव के लिए मजबूत नीतियां निर्धारित करेगा. पूर्वोत्तर राज्यों का समीकरण राष्ट्रीय अध्यक्ष का चयन पार्टी को सभी राज्यों में खड़ा करना और उस वजूद को बचाना इस चिंतन शिविर की सबसे बड़ी चुनौती है. क्योंकि 2003 में जिस चिंतन शिविर को शिमला में किया गया था उसने कांग्रेस को बहुत मजबूती दी और 2003 के चिंतन शिविर में आज से 19 साल पहले कांग्रेस के पूरे देश में 15 मुख्यमंत्री हुआ करते थे और यही वजह था कि जिस जमीन और जनाधार को पार्टी बनाना चाहती थी वह बना लेती थी. 2022 के उदयपुर चिंतन शिविर की सबसे बड़ी चुनौती यही है कि 19 साल बाद जिस चिंतन शिविर में कांग्रेस जा रही है उस समय पूरे देश में उसके सिर्फ दो मुख्यमंत्री हैं. ऐसे में पूरे देश के लिए राजनीतिक लड़ाई को खड़ा करना और पूरे देश में एक मजबूत विपक्ष आम आदमी के पक्ष के तौर पर खड़ा होना और उसके लिए लड़ाई लड़ने के लिए समर्पित कार्यकर्ताओं की जरूरत है, जूझने वाले कार्यकर्ताओं की जरूरत है जो कांग्रेस की दूसरी लाइन में फिलहाल खड़ा होता दिख नहीं रहा है. अब उदयपुर से किसने कांग्रेस का अभ्युदय होता है यह निश्चित तौर पर चिंता में भी है और चिंतन में भी.

वोट बैंक वाली राजनीति: पूरे देश में अगर कांग्रेस के वोट बैंक की बात करें तो ऐसा माना जाता था कि ओबीसी वोट बैंक जिसके साथ होगा वह निश्चित तौर पर देश में मजबूती से खड़ा होगा. कांग्रेस कभी इस वोट बैंक पर मजबूत पकड़ रखती थी लेकिन 2019 के लोकनीति सीएसडीएस के राष्ट्रीय चुनाव अध्ययन को माने तो इस वोट बैंक पर बीजेपी ने मजबूत पकड़ बनाई है. अगर राज्य के अनुसार बात करें तो बिहार में बीजेपी का 26 फ़ीसदी ओबीसी वोट बैंक पर कब्जा है जबकि क्षेत्रीय पार्टियों की बात करें तो नीतीश वाली जदयू को 25 फ़ीसदी और जबकि राष्ट्रीय जनता दल को सिर्फ 11 फ़ीसदी वोट मिला है और कांग्रेस महज 4 फ़ीसदी पर सिमट गई है जो कभी लगभग 26 फ़ीसदी से ऊपर हुआ करती थी.

बात उत्तर प्रदेश की करें तो यहां के ओबीसी का 61 फ़ीसदी वोट बैंक बीजेपी के पास है, जबकि सपा के पास 14 परसेंट और बसपा के साथ 15 फ़ीसदी है, कांग्रेस इसमें कहीं टिकती ही नहीं है. बात पश्चिम बंगाल की करें तो वहा भी ओबीसी का 68 फ़ीसदी वोट बैंक बीजेपी के पास है, जबकि तृणमूल कांग्रेस के पास 27 फ़ीसदी वोट बैंक है, कांग्रेस यहां कहीं भी नहीं दिखती, बात तेलंगाना की करें तो भाजपा के पास 23 फ़ीसदी, टीआरएस के पास 42 फ़ीसदी. आंध्र प्रदेश की बात करें तो यहां बीजेपी बहुत कुछ नहीं कर पाई है लेकिन टीडीपी 46 फ़ीसदी और वाईएसआर कांग्रेस 34 फ़ीसदी ओबीसी वोट बैंक पर कब्जा किए हुए हैं.

बात कर्नाटक की करें तो यहां पर बीजेपी को ओबीसी का 50 फ़ीसदी वोट बैंक मिला हुआ है जबकि जेडीएस को 13 फ़ीसदी कांग्रेस दहाई के आंकड़े तक भी नहीं पहुंच पाई है. बात ओडिशा की करें तो यहां भी ओबीसी वोट बैंक पर बीजेपी 40 फ़ीसदी कब्जा किए हुए हैं, जबकि बीजू जनता दल भी 40 फ़ीसदी वोट बैंक पर कब्जा जमाए हुए हैं, कांग्रेस यहां पर भी दहाई अंक पर नहीं पहुंच पाई है. कांग्रेस चिंतन शिविर के लिए कुछ ऐसी चुनौतियां हैं जिनसे पार पाए बगैर देश की राजनीति में कांग्रेस को खड़ा कर पाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन जैसा है, लेकिन निश्चित तौर पर हर नामुमकिन से मुमकिन चीजें खड़ी होती हैं जो उदयपुर के चिंतन शिविर में कांग्रेस तैयार करेगी.

Last Updated : May 12, 2022, 10:42 PM IST
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