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हमारे माननीयों के लिए 'शाब्दिक मर्यादा' की एक पहल

हमारे चुने हुए जनप्रतिनिधियों को सदन के अंदर बोलने की पूरी आजादी होती है. इसका मकसद बिना किसी दबाव में आए उस विषय से संबंधित सभी पक्षों को सामने लाना होता है. लेकिन इस दौरान सदस्यों द्वारा कई बार भाषा की मर्यादा भी लांघ दी जाती है. असंसदीय शब्दों का प्रयोग किया जाता है. सदस्य ऐसे शब्दों का प्रयोग न करें, इसके लिए मध्य प्रदेश विधानसभा ने विशेष पहल की है. क्या है यह पहल और क्या इस पहल को संसद भी अपनी सकती है, पढ़िए इसका एक विश्लेषण ईटीवी भारत के डिप्टी न्यूज एडिटर अजीज अहमद का.

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Published : Aug 9, 2021, 9:52 PM IST

Updated : Aug 9, 2021, 10:50 PM IST

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देश की संसद और राज्यों की विधानसभाएं दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में प्रजातंत्र के मंदिर माने जाते हैं. मंदिर में भगवान और देवी-देवता विराजते हैं, तो ये माना जाना जाना चाहिए कि हमारे सांसद और विधायक प्रजा के लिए देवी-देवताओं से कम नहीं हैं. लेकिन प्रजातंत्र के इन मंदिरों में शिष्टाचार और संस्कृति का जिस तरह से चीरहरण होते इस पीढ़ी ने देखा है, शायद आजादी के ठीक बाद की पीढ़ियों ने कभी नहीं देखा होगा.

कहते हैं कि भाषा इंसान की सभ्यता, शालीनता और उसके संस्कारों की प्रतीक होती है. लेकिन पिछले कुछ दशकों में यह धारणा लगातार तार-तार होती नजर आई है, क्योंकि विधायिका और कार्यपालिका की भाषा असंसदीय, अमर्यादित और अश्लील हो गई है. ये विकृत भाषा किन्हीं मवाली या असामाजिक तत्वों के मुख से नही निकलती, बल्कि भारतीय प्रजा दवारा अपने सर्वोत्तम अधिकार का इस्तेमाल कर भेजे जाने वाले माननीय सांसदों और विधायकों के श्रीमुख से फूटती रही है. ये सभी माननीय जब संसद या विधानसभा में बोल रहे होते हैं, तो देश की तकरीबन 140 करोड़ जनता की जुबान होते हैं. उनके एक-एक बयान की कीमत इतनी होती है कि उनसे संविधान भी बनता है और मजबूत भी होता है.

मध्य प्रदेश विधानसभा की सार्थक पहल

बात इसलिए निकल पडी है कि इस दिशा में मध्यप्रदेश विधानसभा ने एक बहुत ही सार्थक पहल शुरू की है, जिसके लिए मध्यप्रदेश के मुख्य्मंत्री शिवराज सिंह चौहान, पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ और विधानसभा अध्यक्ष गिरीश गौतम बधाई के पात्र हैं. इन्होंने सदन में मर्यादा का पालन करने व गरिमा बनाए रखने के लिए एक 'अमर्यादित शब्द संग्रह' तैयार किया है.

मध्य प्रदेश विधानसभा सचिवालय ने 1954 से लेकर 2021 तक की कार्यवाहियों में से करीब 1500 से ज्यादा ऐसे शब्दों व वाक्यों का संग्रह तैयार किया है, जिन्हें असंसदीय माना गया है. इसमें वे शब्द या वाक्य भी शामिल किए गए हैं, जिन्हें समय-समय पर आसंदी द्वारा सदन की कार्यवाही से विलोपित कर दिया गया था.

करीब 1560 शब्दों को असंसदीय माना गया है. इनमे वेंटिलेटर, पप्पू पास हो गया, दादागिरी, चोर मचाए शोर, मिर्ची लग गई, हत्यारे, शर्म करो, यह झूठ का पुलिंदा है, चमचा, भेदभाव, चापलूस, नौटंकी, पप्पू माई का लाल, शर्मनाक, चड्डी वाला, गोलमाल, मुर्गा और दारू में पैसे खत्म कर देते हैं, सोच में शौच भरा है, फर्जी पत्रकार, नौ सौ चूहे खाकर बिल्ली हज को चली, मां कसम, गुंडे, तानाशाही, अंगूठा छाप, नक्सलवादी, चुड़ैल, जनसंघी जैसे शब्द शामिल हैं.

कुछ वाक्यों को भी इस संग्रह में रखा गया है, जैसे बजट में खोदा पहाड़ निकली चुहिया, भैंस के आगे बीन बजाना, आपको भगवान की कसम है, लगे रहो मुन्ना भाई, घड़ियाली आंसू मत बहाइए जैसे मुहावरों को शामिल किया गया है. अलीबाबा और चालीस चोर, यहां अंगूठाछाप की जमात ज्यादा है, श्रीमान भांग पीकर यहां आते हैं, आप तो भत्ता खाने आए हैं बैठिए, झन्नाटा खींच देंगे, तमाचा दे देंगे आदि.

काबिल-ए-गौर ये है कि इस संग्रह में शामिल सभी शब्द विधानसभा में विधायकों या मंत्रियों द्वारा बाकायदा कभी न कभी इस्तेमाल किये गए थे, जिन्हें कार्यवाही के दौरान या बाद में ध्यान दिलाने पर विलोपित कर दिया गया था.

राजनीतिक मर्यादा का उल्लंघन

किसी भी सदन में असंसदीय और अमर्यादित भाषा या व्यवहार कोई नई बात नहीं है. पक्ष और विपक्ष के सांसद एक-दूसरे के लिए नफरत भरे शब्दों का प्रयोग करते आए हैं. न प्रधानमंत्री या मंत्री का ख्याल किया जाता है और न किसी संवैधानिक पद की गरिमा रखी जाती है. मौजूदा दौर में चाहे पप्पू शब्द हो या फेंकू शब्द. ऐसे सभी शब्द राजनीतिक मर्यादा का तो उल्लंघन करते ही हैं, साथ ही हमारी संस्कृति हमारे संस्कार भी जाहिर करते हैं.

कुछ शब्द तो ऐसे होते हैं कि जिनका नैतिकतावश हम यहां बखान नहीं कर सकते. इस शब्दावली का उपयोग करने वाले नेता या तो सांसद होते हैं या विधायक होते हैं या फिर कई संवैधानिक पदों पर रह चुके होते हैं.

वाजपेयी जैसे नेता रखते थे सबका ख्याल

क्या अटल बिहारी वाजयपेयी, चंद्रशेखर, जॉर्ज फर्नाडीज, सुषमा स्वराज जैसे तमाम नेता जिनके मुख से न आवेश में, न गुस्से में कभी कोई असंसदीय शब्द नहीं निकला होगा, उनके शब्दों का चयन हमेशा मुद्दा आधारित ही हुआ करते थे. वहां पर आप दूसरों की भावनाओं को आहत करने वाले शब्द या वाक्य ढूंढते ही रह जाओगे. एक-दूसरे की मान-मर्यादा का ख्याल रखकर अपनी वाणी को आभूषित किया करते थे.

विपक्ष को कोसना ही कभी उनकी मानसिकता नहीं हुआ करती थी, बल्कि स्वस्थ संवाद ही उनका ध्येय होता था, लेकिन आज चुने हुए प्रतिनिधियों के बयान या विचार सदन में विपक्षियों के लिए बदला या हीन भावना से ओतप्रोत होते हैं.

क्या मछली बाजार जैसी हो गई है स्थिति

आज हमारे जनप्रतिनिधियों का आचरण महज सदन के अंदर ही नहीं बल्कि बाहर भी परिलक्षित होता है. लोकसभा या राज्यसभा के अलावा कई राज्यों में विधानसभा की कार्यवाही जनता तक सीधे ही पहुंचती है. उनके भाषाई आचरण और व्यवहार से उनको वोट देकर अपना प्रतिनिधि चुनने वालों पर क्या असर होता होगा ?

मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का ही बयान काफी सटीक साबित होगा. सीएम ने असंसदीय शब्दों के संग्रह को रिलीज करने के अवसर पर कहा कि एक बार विद्यार्थियों का समूह विधानसभा में मिलने आया था, तो मैंने उनसे कार्यवाही का अनुभव पूछा. वे बोले, सोचा था कि यहां से कुछ सीखकर जाएंगे पर यहां तो ऐसा लगा मानो मछली बाजार हो.

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शिवराज सिंह चौहान

राष्ट्रपति ने भी जताई चिंता

राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने भी एक बार निर्वाचित प्रतिनिधियों के संसद और विधानसभाओं में संवाद पर चिंता जताई थी. महामहिम ने कहा कि उन्हें स्वस्थ संवाद करना चाहिए और सदन में चर्चा के दौरान असंसदीय भाषा के इस्तेमाल से बचना चाहिए. निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा सदन में असंसदीय भाषा के इस्तेमाल और अनुशासनहीनता से उनका चुनाव करने वाले लोगों की भावनाएं आहत होती हैं.

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राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद

लोकसभा सचिवालय की विशेष पहल, असंसदीय अभिव्यक्ति

लोकसभा सचिवालय इस दिशा में एक कदम पहले उठा चुका है. सचिवालय ने 1999 में 'असंसदीय अभिव्यक्ति' नाम से एक किताब निकाली थी. उसके बाद साल 2004 में आए इसके नए एडिशन में 900 पन्ने थे. इस सूची में कई शब्द और एक्सप्रेशन्स शामिल हैं, जिन्हें देश की ज्यादातर भाषाओं और संस्कृतियों में असभ्य या अपमानजनक माना जाता है. इसमें कुछ ऐसे भी शब्द शामिल हैं, जिनके बारे में बहस की जा सकती है कि ये ज्यादा नुकसानदायक नहीं हैं.

संविधान ने दिए हैं बोलने की पूरी आजादी

संविधान के अनुच्छेद 105 (2) में साफ तौर पर लिखा है कि संसद सदस्यों को इस तरह की आजादी नहीं होती कि सदन की कार्यवाही के दौरान या किसी समिति के सामने ऐसा-वैसा नहीं कह सकते. कोई भी सांसद या विधायक सदन के अंदर 'अपमानजनक या असंसदीय या अभद्र या असंवेदनशील' शब्द का इस्तेमाल नहीं कर सकते हैं. सदन के अंदर अनुशासन कायम रखना हर जनप्रतिनिधि का दायित्व होता है. राज्यों की विधानसभाओं और विधान परिषद की कार्यवाही भी इसी नियम के मुताबिक संचालित होतीं हैं.

हमारे जनप्रतिनिधियों पर लगाम इसलिए भी नहीं लग पाई है क्योंकि संविधान के इसी अनुच्छेद 105 (2) के तहत संसद में व्यक्त किये गए किसी भी मत या वक्तव्य के संबंध में उसके विरुद्ध किसी न्यायालय में कोई कार्रवाई नहीं की जा सकती है.

अमान्य शब्दों को कार्यवाही से किया जाता है बाहर

लोकसभा के स्पीकर और राज्यसभा के सभापति का काम सदन की कार्यवाही के रिकॉर्ड से इन शब्दों को दूर रखना होता है. लोकसभा के नियम 380 के तहत स्पीकर या पीठासीन अधिकारी को ये विशेषाधिकार प्राप्त होता है कि वह अमान्य तथ्यों और शब्दों को कार्यवाही के अधिकृत रिकॉर्ड से खारिज कर दे.

इसके अलावा यदि संपन्न हो चुकी कार्यवाही से कोई शब्द या हिस्सा हटाना है, तो लोकसभा के नियम 381 के मुताबिक उसे 'मार्क' किया जाता है और कार्यवाही में एक फुटनोट इस तरह से लिखा जाता है कि 'अध्यक्ष के आदेश के मुताबिक हटाया गया'. ऐसे ही अधिकार राज्यसभा में सभापति और उप सभापति तथा विधानसभा में अध्यक्षों को भी हासिल है.

संसदीय समिति की पहल

सदन की मर्यादा को लेकर समय-समय पर संसदीय समितियां पहल करती हैं. लोकसभा अध्यक्ष, राज्यसभा के सभापति या फिर विधानसभाओं के अध्यक्ष सत्र से पहले या उसके दौरान सदस्यों को इसका पाठ भी पढ़ाते हैं, लेकिन सदन में पहुंचने के बाद सारी शिक्षा-दीक्षा बेकार हो जाती है.

सदन के अंदर सदस्यों के आचरण और व्यवहार को संतुलित करने की मध्यप्रदेश विधानसभा की ये पहल बेहद सराहनीय है. अन्य राज्यों की विधानसभाएं भी अगर इस दिशा में कोई पहल करती हैं, या मध्यप्रदेश विधानसभा के इस कदम से कदम मिलाकर चलती हैं तो ये एक बेहद कारगर साबित हो सकता है. मेरे विचार से राजनीतिक दलों को अपने सांसदों या विधायकों के लिए पार्टी स्तर पर संसदीय आचरण संहिता बनानी चाहिए, जिसमें सदन के अंदर आचरण और व्यवहार पर जोर दिया जाए. यदि सदन में उसका उल्लंघन कोई करता दिखे, तो पार्टी स्तर पर भी कार्रवाई होनी चाहिए, इससे पहले कि सदन की आसंदी कोई कदम उठाए.

देश की संसद और राज्यों की विधानसभाएं दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में प्रजातंत्र के मंदिर माने जाते हैं. मंदिर में भगवान और देवी-देवता विराजते हैं, तो ये माना जाना जाना चाहिए कि हमारे सांसद और विधायक प्रजा के लिए देवी-देवताओं से कम नहीं हैं. लेकिन प्रजातंत्र के इन मंदिरों में शिष्टाचार और संस्कृति का जिस तरह से चीरहरण होते इस पीढ़ी ने देखा है, शायद आजादी के ठीक बाद की पीढ़ियों ने कभी नहीं देखा होगा.

कहते हैं कि भाषा इंसान की सभ्यता, शालीनता और उसके संस्कारों की प्रतीक होती है. लेकिन पिछले कुछ दशकों में यह धारणा लगातार तार-तार होती नजर आई है, क्योंकि विधायिका और कार्यपालिका की भाषा असंसदीय, अमर्यादित और अश्लील हो गई है. ये विकृत भाषा किन्हीं मवाली या असामाजिक तत्वों के मुख से नही निकलती, बल्कि भारतीय प्रजा दवारा अपने सर्वोत्तम अधिकार का इस्तेमाल कर भेजे जाने वाले माननीय सांसदों और विधायकों के श्रीमुख से फूटती रही है. ये सभी माननीय जब संसद या विधानसभा में बोल रहे होते हैं, तो देश की तकरीबन 140 करोड़ जनता की जुबान होते हैं. उनके एक-एक बयान की कीमत इतनी होती है कि उनसे संविधान भी बनता है और मजबूत भी होता है.

मध्य प्रदेश विधानसभा की सार्थक पहल

बात इसलिए निकल पडी है कि इस दिशा में मध्यप्रदेश विधानसभा ने एक बहुत ही सार्थक पहल शुरू की है, जिसके लिए मध्यप्रदेश के मुख्य्मंत्री शिवराज सिंह चौहान, पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ और विधानसभा अध्यक्ष गिरीश गौतम बधाई के पात्र हैं. इन्होंने सदन में मर्यादा का पालन करने व गरिमा बनाए रखने के लिए एक 'अमर्यादित शब्द संग्रह' तैयार किया है.

मध्य प्रदेश विधानसभा सचिवालय ने 1954 से लेकर 2021 तक की कार्यवाहियों में से करीब 1500 से ज्यादा ऐसे शब्दों व वाक्यों का संग्रह तैयार किया है, जिन्हें असंसदीय माना गया है. इसमें वे शब्द या वाक्य भी शामिल किए गए हैं, जिन्हें समय-समय पर आसंदी द्वारा सदन की कार्यवाही से विलोपित कर दिया गया था.

करीब 1560 शब्दों को असंसदीय माना गया है. इनमे वेंटिलेटर, पप्पू पास हो गया, दादागिरी, चोर मचाए शोर, मिर्ची लग गई, हत्यारे, शर्म करो, यह झूठ का पुलिंदा है, चमचा, भेदभाव, चापलूस, नौटंकी, पप्पू माई का लाल, शर्मनाक, चड्डी वाला, गोलमाल, मुर्गा और दारू में पैसे खत्म कर देते हैं, सोच में शौच भरा है, फर्जी पत्रकार, नौ सौ चूहे खाकर बिल्ली हज को चली, मां कसम, गुंडे, तानाशाही, अंगूठा छाप, नक्सलवादी, चुड़ैल, जनसंघी जैसे शब्द शामिल हैं.

कुछ वाक्यों को भी इस संग्रह में रखा गया है, जैसे बजट में खोदा पहाड़ निकली चुहिया, भैंस के आगे बीन बजाना, आपको भगवान की कसम है, लगे रहो मुन्ना भाई, घड़ियाली आंसू मत बहाइए जैसे मुहावरों को शामिल किया गया है. अलीबाबा और चालीस चोर, यहां अंगूठाछाप की जमात ज्यादा है, श्रीमान भांग पीकर यहां आते हैं, आप तो भत्ता खाने आए हैं बैठिए, झन्नाटा खींच देंगे, तमाचा दे देंगे आदि.

काबिल-ए-गौर ये है कि इस संग्रह में शामिल सभी शब्द विधानसभा में विधायकों या मंत्रियों द्वारा बाकायदा कभी न कभी इस्तेमाल किये गए थे, जिन्हें कार्यवाही के दौरान या बाद में ध्यान दिलाने पर विलोपित कर दिया गया था.

राजनीतिक मर्यादा का उल्लंघन

किसी भी सदन में असंसदीय और अमर्यादित भाषा या व्यवहार कोई नई बात नहीं है. पक्ष और विपक्ष के सांसद एक-दूसरे के लिए नफरत भरे शब्दों का प्रयोग करते आए हैं. न प्रधानमंत्री या मंत्री का ख्याल किया जाता है और न किसी संवैधानिक पद की गरिमा रखी जाती है. मौजूदा दौर में चाहे पप्पू शब्द हो या फेंकू शब्द. ऐसे सभी शब्द राजनीतिक मर्यादा का तो उल्लंघन करते ही हैं, साथ ही हमारी संस्कृति हमारे संस्कार भी जाहिर करते हैं.

कुछ शब्द तो ऐसे होते हैं कि जिनका नैतिकतावश हम यहां बखान नहीं कर सकते. इस शब्दावली का उपयोग करने वाले नेता या तो सांसद होते हैं या विधायक होते हैं या फिर कई संवैधानिक पदों पर रह चुके होते हैं.

वाजपेयी जैसे नेता रखते थे सबका ख्याल

क्या अटल बिहारी वाजयपेयी, चंद्रशेखर, जॉर्ज फर्नाडीज, सुषमा स्वराज जैसे तमाम नेता जिनके मुख से न आवेश में, न गुस्से में कभी कोई असंसदीय शब्द नहीं निकला होगा, उनके शब्दों का चयन हमेशा मुद्दा आधारित ही हुआ करते थे. वहां पर आप दूसरों की भावनाओं को आहत करने वाले शब्द या वाक्य ढूंढते ही रह जाओगे. एक-दूसरे की मान-मर्यादा का ख्याल रखकर अपनी वाणी को आभूषित किया करते थे.

विपक्ष को कोसना ही कभी उनकी मानसिकता नहीं हुआ करती थी, बल्कि स्वस्थ संवाद ही उनका ध्येय होता था, लेकिन आज चुने हुए प्रतिनिधियों के बयान या विचार सदन में विपक्षियों के लिए बदला या हीन भावना से ओतप्रोत होते हैं.

क्या मछली बाजार जैसी हो गई है स्थिति

आज हमारे जनप्रतिनिधियों का आचरण महज सदन के अंदर ही नहीं बल्कि बाहर भी परिलक्षित होता है. लोकसभा या राज्यसभा के अलावा कई राज्यों में विधानसभा की कार्यवाही जनता तक सीधे ही पहुंचती है. उनके भाषाई आचरण और व्यवहार से उनको वोट देकर अपना प्रतिनिधि चुनने वालों पर क्या असर होता होगा ?

मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का ही बयान काफी सटीक साबित होगा. सीएम ने असंसदीय शब्दों के संग्रह को रिलीज करने के अवसर पर कहा कि एक बार विद्यार्थियों का समूह विधानसभा में मिलने आया था, तो मैंने उनसे कार्यवाही का अनुभव पूछा. वे बोले, सोचा था कि यहां से कुछ सीखकर जाएंगे पर यहां तो ऐसा लगा मानो मछली बाजार हो.

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शिवराज सिंह चौहान

राष्ट्रपति ने भी जताई चिंता

राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने भी एक बार निर्वाचित प्रतिनिधियों के संसद और विधानसभाओं में संवाद पर चिंता जताई थी. महामहिम ने कहा कि उन्हें स्वस्थ संवाद करना चाहिए और सदन में चर्चा के दौरान असंसदीय भाषा के इस्तेमाल से बचना चाहिए. निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा सदन में असंसदीय भाषा के इस्तेमाल और अनुशासनहीनता से उनका चुनाव करने वाले लोगों की भावनाएं आहत होती हैं.

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राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद

लोकसभा सचिवालय की विशेष पहल, असंसदीय अभिव्यक्ति

लोकसभा सचिवालय इस दिशा में एक कदम पहले उठा चुका है. सचिवालय ने 1999 में 'असंसदीय अभिव्यक्ति' नाम से एक किताब निकाली थी. उसके बाद साल 2004 में आए इसके नए एडिशन में 900 पन्ने थे. इस सूची में कई शब्द और एक्सप्रेशन्स शामिल हैं, जिन्हें देश की ज्यादातर भाषाओं और संस्कृतियों में असभ्य या अपमानजनक माना जाता है. इसमें कुछ ऐसे भी शब्द शामिल हैं, जिनके बारे में बहस की जा सकती है कि ये ज्यादा नुकसानदायक नहीं हैं.

संविधान ने दिए हैं बोलने की पूरी आजादी

संविधान के अनुच्छेद 105 (2) में साफ तौर पर लिखा है कि संसद सदस्यों को इस तरह की आजादी नहीं होती कि सदन की कार्यवाही के दौरान या किसी समिति के सामने ऐसा-वैसा नहीं कह सकते. कोई भी सांसद या विधायक सदन के अंदर 'अपमानजनक या असंसदीय या अभद्र या असंवेदनशील' शब्द का इस्तेमाल नहीं कर सकते हैं. सदन के अंदर अनुशासन कायम रखना हर जनप्रतिनिधि का दायित्व होता है. राज्यों की विधानसभाओं और विधान परिषद की कार्यवाही भी इसी नियम के मुताबिक संचालित होतीं हैं.

हमारे जनप्रतिनिधियों पर लगाम इसलिए भी नहीं लग पाई है क्योंकि संविधान के इसी अनुच्छेद 105 (2) के तहत संसद में व्यक्त किये गए किसी भी मत या वक्तव्य के संबंध में उसके विरुद्ध किसी न्यायालय में कोई कार्रवाई नहीं की जा सकती है.

अमान्य शब्दों को कार्यवाही से किया जाता है बाहर

लोकसभा के स्पीकर और राज्यसभा के सभापति का काम सदन की कार्यवाही के रिकॉर्ड से इन शब्दों को दूर रखना होता है. लोकसभा के नियम 380 के तहत स्पीकर या पीठासीन अधिकारी को ये विशेषाधिकार प्राप्त होता है कि वह अमान्य तथ्यों और शब्दों को कार्यवाही के अधिकृत रिकॉर्ड से खारिज कर दे.

इसके अलावा यदि संपन्न हो चुकी कार्यवाही से कोई शब्द या हिस्सा हटाना है, तो लोकसभा के नियम 381 के मुताबिक उसे 'मार्क' किया जाता है और कार्यवाही में एक फुटनोट इस तरह से लिखा जाता है कि 'अध्यक्ष के आदेश के मुताबिक हटाया गया'. ऐसे ही अधिकार राज्यसभा में सभापति और उप सभापति तथा विधानसभा में अध्यक्षों को भी हासिल है.

संसदीय समिति की पहल

सदन की मर्यादा को लेकर समय-समय पर संसदीय समितियां पहल करती हैं. लोकसभा अध्यक्ष, राज्यसभा के सभापति या फिर विधानसभाओं के अध्यक्ष सत्र से पहले या उसके दौरान सदस्यों को इसका पाठ भी पढ़ाते हैं, लेकिन सदन में पहुंचने के बाद सारी शिक्षा-दीक्षा बेकार हो जाती है.

सदन के अंदर सदस्यों के आचरण और व्यवहार को संतुलित करने की मध्यप्रदेश विधानसभा की ये पहल बेहद सराहनीय है. अन्य राज्यों की विधानसभाएं भी अगर इस दिशा में कोई पहल करती हैं, या मध्यप्रदेश विधानसभा के इस कदम से कदम मिलाकर चलती हैं तो ये एक बेहद कारगर साबित हो सकता है. मेरे विचार से राजनीतिक दलों को अपने सांसदों या विधायकों के लिए पार्टी स्तर पर संसदीय आचरण संहिता बनानी चाहिए, जिसमें सदन के अंदर आचरण और व्यवहार पर जोर दिया जाए. यदि सदन में उसका उल्लंघन कोई करता दिखे, तो पार्टी स्तर पर भी कार्रवाई होनी चाहिए, इससे पहले कि सदन की आसंदी कोई कदम उठाए.

Last Updated : Aug 9, 2021, 10:50 PM IST
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