देहरादून (उत्तराखंड): प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश भर की पौराणिक संस्कृति और चित्रकला की पहाड़ी शैली को लेकर बात कर रहे हैं. वहीं दूसरी तरफ उत्तराखंड में अपना स्वर्णिम और समृद्ध इतिहास रखने वाला गढ़वाल स्कूल ऑफ आर्ट केवल यादों में रह गया है. उत्तराखंड में इस समृद्ध कला को भले ही कुछ लोगों द्वारा संजोया जा रहा है, लेकिन सरकार का इस तरफ कोई ध्यान नहीं है.
औरंगजेब का भतीजा गढ़वाल में लाया पहले चित्रकार: यह दौर 1658 का था, जब पूरे देश में मुगल साम्राज्य था. दिल्ली पर औरंगजेब का शासन था. औरंगजेब ने अपनी सत्ता बरकरार रखने के लिए अपने भाई दारा शिकोह की हत्या करवा दी थी. दारा शिकोह के बेटे सुलेमान शिकोह ने अपने ऊपर खतरा देखते हुए उत्तर में हिमालय की तरफ रुख किया. सुलेमान शिकोह ने यहां श्रीनगर गढ़वाल में मौजूद राजा पृथ्वीपत शाह की रियासत में उन्होंने शरण ली. दारा शिकोह के बेटे सुलेमान शिकोह बेहद सरल स्वभाव के थे, जिससे गढ़वाल में उन्हें शरण मिली. लेकिन औरंगजेब के आतंक और दबदबे के चलते सुलेमान शिकोह को श्रीनगर गढ़वाल से जाना पड़ा.
श्यामदास और हरदास अपनी चित्रकारी से राज दरबार में हुए प्रसिद्ध: सुलेमान शिकोह तो वापस चले गए, लेकिन उनके साथ सहयोगी के रूप में आए चित्रकार श्यामदास और हरदास श्रीनगर गढ़वाल में ही रुक गए. दरअसल श्यामदास और हरदास जहांगीर के समय से लगातार चित्रकारी करते आ रहे थे और वह मुगल दरबार के चित्रकार थे. लिहाजा श्रीनगर गढ़वाल में भी उन्होंने अपने इस हुनर को आजमाया और वह जल्द ही राज दरबार में अपनी चित्रकारी को लेकर लोकप्रिय हो गए. इस तरह से गढ़वाल राजशाही में चित्रकारों और चित्रकला का उद्गम हुआ और लगातार राजशाही परिवारों द्वारा चित्रकला को संरक्षण दिया गया.
मोला राम ने की थी गढ़वाल स्कूल ऑफ आर्ट की शुरुआत: गढ़वाल क्षेत्र की राजशाही में सुलेमान शिकोह के वापस जाने के बाद पीछे छूट चुके श्यामदास और हरिदास दोनों चित्रकारों द्वारा राज दरबार में चित्रकारी की जा रही थी. इनकी चौथी पीढ़ी में जन्म लेने वाले मोला राम ने गढ़वाल क्षेत्र में चित्रकला यानी क्लासिकल फाइन आर्ट को एक व्यापक स्वरूप दिया. मोला राम का जन्म गढ़वाल क्षेत्र में 1745 में हुआ था. उनकी मृत्यु 1833 में हुई थी. इस दौरान उन्होंने गढ़वाल स्कूल ऑफ आर्ट की शुरुआत की. यही दौर उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र की समृद्ध क्लासिकल फाइन आर्ट का माना जाता है. इस समय उत्तराखंड में चित्रकला के क्षेत्र में विश्वव्यापी प्रसिद्धि वाले काम हुए. आज भी दुनिया के कई देशों में गढ़वाल स्कूल ऑफ आर्ट की पेंटिंग रखी हुई हैं. भारत के कई म्यूजियम में गढ़वाल स्कूल ऑफ आर्ट की पेंटिंग देखी जा सकती हैं. मोला राम ने कांगड़ा की चित्रकला संस्कृति से प्रेरित होकर गढ़वाल स्कूल ऑफ आर्ट की शुरुआत की थी.
गढ़वाल स्कूल ऑफ आर्ट का स्वर्णिम इतिहास: तकरीबन 1750 के दशक में शुरू हुए गढ़वाल स्कूल ऑफ आर्ट का इतिहास बेहद स्वर्णिम रहा है. गढ़वाल स्कूल ऑफ आर्ट की शुरुआत करने वाले मोलाराम और उनके पुत्र ज्वाला राम ने गुरु शिष्य परंपरा के तहत गढ़वाल स्कूल ऑफ आर्ट की शुरुआत की. इस दौरान उन्होंने कई विश्व प्रसिद्ध पेंटिंग बनाई. गढ़वाल स्कूल ऑफ आर्ट द्वारा बनाई गई नायिका भेद, बिहारी सतसई, दशावतार, मयूर प्रिया जैसी कुछ ऐसी पेंटिंग हैं जो कि प्रसिद्ध हैं. आज भी कई विश्वविद्यालयों में चित्रकला सब्जेक्ट में गढ़वाल स्कूल ऑफ आर्ट के बारे में पढ़ाया जाता है. जिसमें गढ़वाल स्कूल ऑफ आर्ट के चित्रकारों की कहानी है और इस दौरान हुई तमाम उस चित्रकारी का जिक्र है, जो कि उस दौर में काफी लोकप्रिय हुई थी.
गढ़वाल स्कूल ऑफ आर्ट की चित्रकलाओं की विशेषताएं: मिनिएचर आर्टिस्ट अंशु मोहन ने बताया कि गढ़वाल स्कूल ऑफ आर्ट के दौरान बनाए जाने वाली सभी क्लासिक फाइन आर्ट एक विशेष तरीके की शैली से बनाई जाती थी. जिसे वह आज भी जिंदा रखे हुए हैं. इस चित्रकला में इस्तेमाल होने वाले सभी रंग और इनग्रेडिएंट प्राकृतिक और ऑर्गेनिक हैं. इसमें किसी भी तरह के केमिकल का इस्तेमाल नहीं किया जाता है. हर रंग को प्रकृति में पाए जाने वाले किसी पदार्थ से तैयार करके बनाया जाता है.
चित्रों में सोने और चांदी का होता है उपयोग: इन चित्रों को बनाने के लिए उपयोग होने वाली सीट से लेकर इसके रंग और यहां तक की सोने और चांदी का उपयोग इन चित्रों को बनाने में किया जाता है. यही वजह है कि यह चित्र कलाएं 200 साल तक भी उसी तर से चमकती हैं, जिस तरह से यह बनते समय चमकती थीं. उन्होंने बताया कि इन चित्रों को पहचान दिलाने वाले और इनकी विशेष समझ रखने वाले लोग इस चित्रकारी का महत्व समझते हैं और यही वजह है कि आज विदेशों में इनकी बहुत ज्यादा डिमांड है. आज गढ़वाल स्कूल ऑफ आर्ट की ज्यादातर चित्र कलाएं विदेशों में मौजूद हैं, क्योंकि इन्हें विदेशियों ने खरीदा है.
संरक्षण की कमी और अनदेखी ने मिटाया गढ़वाल स्कूल ऑफ आर्ट का अस्तित्व: 1750 से लेकर के 19वीं सदी के आखिर तक गढ़वाल स्कूल ऑफ आर्ट का खूब बोलबाला रहा. यह दौर गढ़वाल स्कूल ऑफ आर्ट का स्वर्णिम काल था. लेकिन जैसे-जैसे देश में राजशाही का अंत हुआ और चित्रकारों के साथ-साथ सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण करने वाली रियासतों का देश में विलय हुआ, वैसे-वैसे गढ़वाल स्कूल ऑफ आर्ट में भी संरक्षण की कमी के चलते लगातार चित्रकारों और चित्रकला का पतन होता गया. देश की आजादी के बाद जहां एक तरफ संस्कृति के क्षेत्र में राजनीतिक संरक्षण मिला, लेकिन चित्रकला के क्षेत्र में खासतौर से उत्तराखंड में गढ़वाल स्कूल ऑफ आर्ट को कोई संरक्षण नहीं मिल पाया. इसकी वजह से गढ़वाल स्कूल ऑफ आर्ट का अस्तित्व धीरे-धीरे खत्म होने लगा.
ये भी पढ़ें: भारत-तिब्बत बॉर्डर पर इंजीनियरिंग का नायाब नमूना गरतांग गली पुल के निर्माण का सच आया सामने, ये है हकीकत