ETV Bharat / bharat

क्या अमेरिका ने 9/11आतंकी हमले से कोई सबक सीखा है?

अमेरिका में 11 सितंबर 2001 को हुए आतंकवादी हमले को 20 साल पूरे हो गए हैं. इस हमले में हजारों को लोगों की मौत हुई थी और 40 अरब अमेरिकी डॉलर का नुकसान हुआ था. ऐसे में सवाल उठ रहा है कि क्या अमेरिका ने 9/11 आतंकी हमले से सबक सीखा है. क्योंकि प्रत्येक सभ्यता का अपना विकास तर्क होता है, और बाहरी ताकतों को मजबूर करने से केवल बुरे परिणाम होंगे. यदि अमेरिका अपनी अभिमानी मानसिकता को नहीं बदलता है और हमेशा दुश्मन की दृष्टि से अपने से अलग मॉडल को देखता है, तो इसे और अधिक झटके लगेंगे.

9/11आतंकी
9/11आतंकी
author img

By

Published : Sep 11, 2021, 4:34 AM IST

बीजिंग : काबुल हवाई अड्डे से सैनिक वापसी के अराजक दृश्य ने उत्तर कोरिया और वियतनाम में अमेरिका की हार की यादें ताजा कर दी हैं. समान पाइंट यह है कि अमेरिका ने न्याय के बैनर तले एक अन्यायपूर्ण युद्ध शुरू किया, और फिर युद्ध के मैदान से सैनिक वापसी करना पड़ा जब इसे बनाए रखना मुश्किल था.

9/11आतंकवादी हमले के बाद अमेरिका ने आतंकवाद विरोधी के नाम पर अफगानिस्तान में युद्ध शुरू किया और वहां एक अमेरिकी समर्थक शासन खड़ा दिया. लेकिन बीस साल बाद जब अमेरिका को इस अजेय भूमि से हटने के लिए मजबूर होना पड़ा, तो आतंकवाद विरोधी और अफगानिस्तान के लोकतांत्रिक परिवर्तन का कोई भी लक्ष्य हासिल नहीं हुआ. दुनिया में अभी भी हर दिन आतंकवादी हमले हो रहे हैं और अफगानिस्तान भी अपने मूल राज्य में वापस आ गया है.

इतिहास में से हम पा सकते हैं कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिकियों द्वारा किए गए तथाकथित लोकतांत्रिक परिवर्तन, जैसे कि पश्चिमी यूरोप और पश्चिमी प्रशांत, सभी अमेरिकी सैन्य छत्र के तहत किए गए थे. बल के रखरखाव के बिना, इन स्थानों में लोकतांत्रिक व्यवस्था वास्तव में एक दिन के लिए नहीं चलेगी.

अमेरिकी अपने भगवान के चुने हुए लोगों के तथाकथित विशेष मिशन के बारे में अंधविश्वासी हैं और युद्ध के माध्यम से दुनिया पर अपनी इच्छा थोपते हैं. अलग सभ्यता के साथ व्यवहार करते समय अमेरिका हमेशा क्रूर और सख्त रहा है. पर अमेरिका के खिलाफ किये गये पलटवार भी स्वाभाविक रूप से बेहद मजबूत रहे, और 9/11आतंकवादी हमले वास्तव में ऐसे हुए थे. उत्पीड़न के तले सभ्यता को स्वाभाविक रूप से दुश्मन का विरोध करना चाहती है, उसे हर संभव तरीके से जवाबी प्रहार करना होगा, भले ही प्रतिरोध का तरीका सभ्य हो या नहीं.

हम समान भाग्य वाले समुदाय में रहते हैं, और जब विभिन्न विचारों और मॉडलों के साथ व्यवहार करते हैं, तो अलग सभ्य के प्रति बल के के उपयोग के बजाय परामर्श के माध्यम से ही सहमति प्राप्त की जानी चाहिये. जैसा कि मई 2019 में पेइचिंग में आयोजित एशियाई सभ्यता संवाद सम्मेलन में संपन्न आम सहमति में कहा जाता है.

केवल समान संवाद, आदान-प्रदान और आपसी सीखने से विभिन्न सभ्यताओं के बीच पारस्परिक ज्ञान के माध्यम से दुनिया का उज्‍जवल भविष्य हो सकता है. लेकिन अमेरिकी जिस सिद्धांत का अनुसरण करते हैं, वह यह है कि केवल उनकी तथाकथित ईश्वर की इच्छा ही उच्चतम मानक है जिसका सारी दुनिया को पालन करना चाहिए, और केवल उनका लोकतांत्रिक मॉडल ही सार्वभौमिक मूल्य है जिसका सभी देशों को पालन करना चाहिए. इस आधिपत्य के तर्क के अनुसार अमेरिका ने बार-बार सैन्य हमले बोल दिये हैं, और स्वाभाविक रूप से उसे बार-बार सैन्य हार के परीणाम लेना पड़ता है.

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिका विश्व शक्ति के शिखर पर चढ़ गया. अमेरिकी अर्थव्यवस्था एक बार दुनिया के आधे हिस्से के लिए जिम्मेदार थी. शिखर की ताकत ने अमेरिकियों को पागलपन का भ्रम पैदा कर दिया है, जिससे उन्हें लगता है कि उनकी प्रणाली, संस्कृति और जीवन शैली दुनिया के लिए उच्चतम मॉडल हैं, और पूरी दुनिया को इनका स्वीकार करना चाहिए. लेकिन 9/11घटना ने इस भ्रम को बुझा दिया कि अमेरिका दुनिया पर हावी होना चाहता है, और अमेरिकियों ने अफगानिस्तान में एक नए वियतनाम युद्ध में निवेश किया.

लेकिन बीस वर्षों के निर्थक प्रयासों के बाद भी लोगों को यह संदेह है कि क्या अमेरिकियों ने इस बात पर महसूस किया है: यानी बल के माध्यम से अन्य सभ्यताओं को सिर झुकाया नहीं जा सकता है. हालाँकि, जब अमेरिका ने अफगानिस्तान में एक लोकतांत्रिक किले की स्थापना में भारी निवेश किया, तब दुनिया के अन्य हिस्से फलफूल रहे थे. और जब अमेरिकी सैनिकों ने अफगानिस्तान में से सैनिक वापसी शुरू की है, तो उनके सामने की दुनिया भी बदल गयी है, और अमेरिका की शक्ति भी पहले की तुलना में काफी कमजोर हो गई है.

यदि अमेरिकी लोग वास्तव में चिंतनशील हैं, तो उन्हें यह महसूस करना चाहिए कि 9/11आतंकवादी हमलों से लेकर अफगानिस्तान में सैनिक वापसी तक, अमेरिका के अपनी अक्षमता दिखाने का वास्तविक कारण ठीक यही है कि उनका दुनिया के साथ व्यवहार करने का ढ़ंग गलत है.

दूसरे देशों और सभ्यताओं के साथ केवल शांतिपूर्वक सह-अस्तित्व के सिद्धांत ते तले रह सकते हैं. अन्य लोगों को दबाने के लिए बल पर निर्भर रहने से अपरिहार्य विफलता होगी. विभिन्न मॉडलों के साथ व्यवहार करते समय समानता और गैर-हस्तक्षेप के सिद्धांतों को अपनाया जाना चाहिए. यह मानव जाति द्वारा दर्दनाक ऐतिहासिक पाठों के माध्यम से निकाला गया निष्कर्ष है, और यह संयुक्त राष्ट्र चार्टर में स्पष्ट रूप से लिखी गई भावना भी है.

इसी ढांचे के तहत द्वितीय विश्व युद्ध के बाद बड़े देशों के बीच शांति बनाये रखने की नींव है. अगर अमेरिका अभी भी वर्चस्ववादी सोच पर जोर देता है कि केवल उसका अपना मॉडल ही एकमात्र विकल्प है, तो उसका नया नुकसान खाना अपरिहार्य होगा.

इधर के वर्षों में अमेरिका ने चीन के खिलाफ टकराव करने की हरकत शुरू कर दी है. और इसका कहना है कि चीन का सत्तावादी मॉडल पश्चिमी लोकतांत्रिक के लिए खतरा है. ऐसा करने से दुनिया को और अधिक खतरनाक बनाया जा सकता है और पूरे विश्व की समृद्धि का त्याग किया जाएगा.

प्रत्येक सभ्यता का अपना विकास तर्क होता है, और बाहरी ताकतों को मजबूर करने से केवल बुरे परिणाम होंगे. यदि अमेरिका अपनी अभिमानी मानसिकता को नहीं बदलता है और हमेशा दुश्मन की दृष्टि से अपने से अलग मॉडल को देखता है, तो इसे और अधिक झटके लगेंगे.
(आईएएनएस)

बीजिंग : काबुल हवाई अड्डे से सैनिक वापसी के अराजक दृश्य ने उत्तर कोरिया और वियतनाम में अमेरिका की हार की यादें ताजा कर दी हैं. समान पाइंट यह है कि अमेरिका ने न्याय के बैनर तले एक अन्यायपूर्ण युद्ध शुरू किया, और फिर युद्ध के मैदान से सैनिक वापसी करना पड़ा जब इसे बनाए रखना मुश्किल था.

9/11आतंकवादी हमले के बाद अमेरिका ने आतंकवाद विरोधी के नाम पर अफगानिस्तान में युद्ध शुरू किया और वहां एक अमेरिकी समर्थक शासन खड़ा दिया. लेकिन बीस साल बाद जब अमेरिका को इस अजेय भूमि से हटने के लिए मजबूर होना पड़ा, तो आतंकवाद विरोधी और अफगानिस्तान के लोकतांत्रिक परिवर्तन का कोई भी लक्ष्य हासिल नहीं हुआ. दुनिया में अभी भी हर दिन आतंकवादी हमले हो रहे हैं और अफगानिस्तान भी अपने मूल राज्य में वापस आ गया है.

इतिहास में से हम पा सकते हैं कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिकियों द्वारा किए गए तथाकथित लोकतांत्रिक परिवर्तन, जैसे कि पश्चिमी यूरोप और पश्चिमी प्रशांत, सभी अमेरिकी सैन्य छत्र के तहत किए गए थे. बल के रखरखाव के बिना, इन स्थानों में लोकतांत्रिक व्यवस्था वास्तव में एक दिन के लिए नहीं चलेगी.

अमेरिकी अपने भगवान के चुने हुए लोगों के तथाकथित विशेष मिशन के बारे में अंधविश्वासी हैं और युद्ध के माध्यम से दुनिया पर अपनी इच्छा थोपते हैं. अलग सभ्यता के साथ व्यवहार करते समय अमेरिका हमेशा क्रूर और सख्त रहा है. पर अमेरिका के खिलाफ किये गये पलटवार भी स्वाभाविक रूप से बेहद मजबूत रहे, और 9/11आतंकवादी हमले वास्तव में ऐसे हुए थे. उत्पीड़न के तले सभ्यता को स्वाभाविक रूप से दुश्मन का विरोध करना चाहती है, उसे हर संभव तरीके से जवाबी प्रहार करना होगा, भले ही प्रतिरोध का तरीका सभ्य हो या नहीं.

हम समान भाग्य वाले समुदाय में रहते हैं, और जब विभिन्न विचारों और मॉडलों के साथ व्यवहार करते हैं, तो अलग सभ्य के प्रति बल के के उपयोग के बजाय परामर्श के माध्यम से ही सहमति प्राप्त की जानी चाहिये. जैसा कि मई 2019 में पेइचिंग में आयोजित एशियाई सभ्यता संवाद सम्मेलन में संपन्न आम सहमति में कहा जाता है.

केवल समान संवाद, आदान-प्रदान और आपसी सीखने से विभिन्न सभ्यताओं के बीच पारस्परिक ज्ञान के माध्यम से दुनिया का उज्‍जवल भविष्य हो सकता है. लेकिन अमेरिकी जिस सिद्धांत का अनुसरण करते हैं, वह यह है कि केवल उनकी तथाकथित ईश्वर की इच्छा ही उच्चतम मानक है जिसका सारी दुनिया को पालन करना चाहिए, और केवल उनका लोकतांत्रिक मॉडल ही सार्वभौमिक मूल्य है जिसका सभी देशों को पालन करना चाहिए. इस आधिपत्य के तर्क के अनुसार अमेरिका ने बार-बार सैन्य हमले बोल दिये हैं, और स्वाभाविक रूप से उसे बार-बार सैन्य हार के परीणाम लेना पड़ता है.

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिका विश्व शक्ति के शिखर पर चढ़ गया. अमेरिकी अर्थव्यवस्था एक बार दुनिया के आधे हिस्से के लिए जिम्मेदार थी. शिखर की ताकत ने अमेरिकियों को पागलपन का भ्रम पैदा कर दिया है, जिससे उन्हें लगता है कि उनकी प्रणाली, संस्कृति और जीवन शैली दुनिया के लिए उच्चतम मॉडल हैं, और पूरी दुनिया को इनका स्वीकार करना चाहिए. लेकिन 9/11घटना ने इस भ्रम को बुझा दिया कि अमेरिका दुनिया पर हावी होना चाहता है, और अमेरिकियों ने अफगानिस्तान में एक नए वियतनाम युद्ध में निवेश किया.

लेकिन बीस वर्षों के निर्थक प्रयासों के बाद भी लोगों को यह संदेह है कि क्या अमेरिकियों ने इस बात पर महसूस किया है: यानी बल के माध्यम से अन्य सभ्यताओं को सिर झुकाया नहीं जा सकता है. हालाँकि, जब अमेरिका ने अफगानिस्तान में एक लोकतांत्रिक किले की स्थापना में भारी निवेश किया, तब दुनिया के अन्य हिस्से फलफूल रहे थे. और जब अमेरिकी सैनिकों ने अफगानिस्तान में से सैनिक वापसी शुरू की है, तो उनके सामने की दुनिया भी बदल गयी है, और अमेरिका की शक्ति भी पहले की तुलना में काफी कमजोर हो गई है.

यदि अमेरिकी लोग वास्तव में चिंतनशील हैं, तो उन्हें यह महसूस करना चाहिए कि 9/11आतंकवादी हमलों से लेकर अफगानिस्तान में सैनिक वापसी तक, अमेरिका के अपनी अक्षमता दिखाने का वास्तविक कारण ठीक यही है कि उनका दुनिया के साथ व्यवहार करने का ढ़ंग गलत है.

दूसरे देशों और सभ्यताओं के साथ केवल शांतिपूर्वक सह-अस्तित्व के सिद्धांत ते तले रह सकते हैं. अन्य लोगों को दबाने के लिए बल पर निर्भर रहने से अपरिहार्य विफलता होगी. विभिन्न मॉडलों के साथ व्यवहार करते समय समानता और गैर-हस्तक्षेप के सिद्धांतों को अपनाया जाना चाहिए. यह मानव जाति द्वारा दर्दनाक ऐतिहासिक पाठों के माध्यम से निकाला गया निष्कर्ष है, और यह संयुक्त राष्ट्र चार्टर में स्पष्ट रूप से लिखी गई भावना भी है.

इसी ढांचे के तहत द्वितीय विश्व युद्ध के बाद बड़े देशों के बीच शांति बनाये रखने की नींव है. अगर अमेरिका अभी भी वर्चस्ववादी सोच पर जोर देता है कि केवल उसका अपना मॉडल ही एकमात्र विकल्प है, तो उसका नया नुकसान खाना अपरिहार्य होगा.

इधर के वर्षों में अमेरिका ने चीन के खिलाफ टकराव करने की हरकत शुरू कर दी है. और इसका कहना है कि चीन का सत्तावादी मॉडल पश्चिमी लोकतांत्रिक के लिए खतरा है. ऐसा करने से दुनिया को और अधिक खतरनाक बनाया जा सकता है और पूरे विश्व की समृद्धि का त्याग किया जाएगा.

प्रत्येक सभ्यता का अपना विकास तर्क होता है, और बाहरी ताकतों को मजबूर करने से केवल बुरे परिणाम होंगे. यदि अमेरिका अपनी अभिमानी मानसिकता को नहीं बदलता है और हमेशा दुश्मन की दृष्टि से अपने से अलग मॉडल को देखता है, तो इसे और अधिक झटके लगेंगे.
(आईएएनएस)

ETV Bharat Logo

Copyright © 2024 Ushodaya Enterprises Pvt. Ltd., All Rights Reserved.