हैदराबाद : चुनावी घोषणापत्र में मुफ्त सामान बांटने का वादा कोई नई बात नहीं है, खासकर तमिलनाडु में. 10 साल पहले डीएमके के तत्कालीन प्रमुख एम करुणानिधि ने कहा था कि यह नीलामी में बोली लगाने जैसा है. उनके अनुसार यह भरोसा दिया जाता है कि हम सबकुछ देंगे. इसके लिए राजनीतिक पार्टियां अपने वादों में लगातार सुधार करती रहती हैं.
तमिलनाडु में यह पहला चुनाव है, जब द्रविड़ राजनीति के दो दिग्गज सितारे एम करुणानिधि और जे. जयललिता अब नहीं हैं. पर, वादे वही पुराने हैं. मुफ्त में भोजन बांटना सबसे प्रमुख है. 234 सीटों वाले तमिलनाडु में 6 अप्रैल को चुनाव है.
डीएमके प्रमुख एमके स्टालिन ने घोषणापत्र में 500 वादे किए हैं. फ्री डाटा, स्कूलों और कॉलेजों के छात्रों को फ्री टैब, पेट्रोल और डीजल की कीमतें कम करना, राशनकार्ड रखने वाली हर महिला को एक हजार रुपये और हिंदू मंदिरों की तीर्थ यात्रा करने के लिए 25 हजार से लेकर एक लाख तक के आर्थिक मदद की घोषणा की गई है.
एआईएडीएमके भी पीछे नहीं है. वह दो बार से सत्ता में है. तीसरी बार सत्ता में लौटने की उम्मीद से उसने और भी बढ़-चढ़कर वादे किए हैं. इसमें मुफ्त में वॉशिंग मशीन, सोलर स्टोव और राशनकार्ड रखने वाली महिलाओं को 1500 रुपये देने का वादा किया गया है.
चुनाव में आम मतदाताओं को प्रभावित न किया जा सके, इसके लिए सुप्रीम कोर्ट ने 2013 में चुनाव आयोग को दिशानिर्देश बनाने का निर्देश दिया था, ताकि इस तरह की प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाया जा सके. दिशानिर्देश बनाए भी गए. लेकिन राजनीतिक पार्टियां पहले की तरह ही मुफ्त में सामान बांटने के वादे किए जा रहे हैं. यानी यह करीब-करीब निष्प्रभावी हो गया है.
यह बहुत ही आश्चर्य की बात है कि राजनीतिक पार्टियां सत्ता हासिल करने के लिए राज्य के खजानों पर आर्थिक बोझ बढ़ाती जा रही है.
करीब 70 साल पहले न्यायविद एमसी चागला ने कहा था कि भारत में सार्वभौमिक मताधिकार की व्यवस्था है. मतदाता और जनप्रतिनिधि दोनों की ईमानदारी और निष्ठा समान रूप से महत्वपूर्ण है. राजनीतिक पार्टियां मतदाताओं को पैसे के जरिए रिझाने में महारत हासिल कर चुकी हैं. सरकारी खजाना जनता की संपत्ति है. जाहिर है, इस पैसे से वोट खरीदना कुरीति जैसा ही है.
सुप्रीम कोर्ट ने साफ कर दिया है कि जनप्रतिनिधि कानून की धारा 123 के तहत राजनीतिक पार्टियों द्वारा जारी घोषणापत्रों में किए गए वादे भ्रष्टाचार की श्रेणी में नहीं आते हैं. चुनाव आयोग ने भी संविधान के नीति निर्देशक सिद्धान्त के हवाले से इस तरह की कल्याणकारी योजनाओं के वादे पर आपत्ति नहीं जताई है. इसके बावजूद आयोग ने राजनीतिक पार्टियों को इस तरह के वादे से बचने की सलाह दी है ताकि चुनावी प्रक्रिया की पवित्रता बनी रहे.
चुनाव आयोग दूसरे देशों में चुनावी प्रक्रियाओं का बारीकी से अध्ययन करती रहती है. इसके अनुसार मेक्सिको और भूटान में पार्टियों द्वारा जारी घोषणापत्रों में आयोग तब्दीली कर सकता है. ब्रिटेन में भी चुनाव आयोग की शर्तों का कड़ाई से पालन सुनिश्चित किया जाता है. इस तरह के मामलों में भारतीय चुनाव आयोग मूक दर्शक जैसी भूमिका निभाती है, जबकि राजनीतिक पार्टियां खुलेआम प्रजातांत्रिक मूल्यों का उल्लंघन करती हैं. इससे बड़ी त्रासदी और क्या हो सकती है.
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एक आकलन के अनुसार तमिलनाडु में राशनकार्ड रखने वाली हर महिला को कम से कम 1000 रुपये दिए जाएं, तो राज्यकोष पर 21,000 करोड़ का सालाना बोझ पड़ेगा.
पिछले 10 सालों में तमिलनाडु पर कर्ज 15 हजार करोड़ से बढ़कर 57 हजार करोड़ हो गया है. सिर्फ कर्ज का भुगतान करने के लिए तमिलनाडु को हर सला 57 हजार करोड़ खर्च करना होता है. ऐसी स्थिति में 'फ्री-बी' राजनीति तमिलनाडु को कहां ले जाएगा, विचार करने की जरूरत है.