देहरादून: ग्लोबल वार्मिंग का असर पूरी दुनिया में दिखाई दे रहा है, जिसके कारण वातावरण में तेजी से बदलाव आया है. हिमालय भी इससे अछूता नहीं है, जो तेजी से पिघल रहा है. दुनिया आज जलवायु परिवर्तन के चलते बड़े खतरे की तरफ बढ़ रही है, हाल ही में आये एक अध्ययन ने ग्लेशियर्स पर हुए इसके असर की भयावह स्थिति को सामने रखा है. इसमें बताया गया है कि भारत समेत कई देशों में ग्लेशियर पिघलने के कारण बाढ़ का खतरा मंडरा सकता है. वैसे उत्तराखंड को ऐसी प्राकृतिक आपदाएं पहले भी गहरा जख्म दे चुकी हैं, साल 2013 की केदारनाथ आपदा तो भारत ही नहीं दुनिया की बड़ी आपदाओं में शुमार रही है. उधर वैज्ञानिकों की नई आशंकाएं जल प्रलय के खतरों के साथ इसके उपायों के लिए सतर्क रहने की ओर इशारा कर रही है.
तीस लाख लोगों के जीवन पर संकट: ग्लेशियर्स की सेहत बिगड़ने के परिणाम समझने हो तो केदारनाथ आपदा की तस्वीरों को याद कर लीजिए. जल प्रलय का ऐसा मंजर जो पिछले कई दशकों में शायद ही देखा गया हो. केदारनाथ धाम के पीछे की ऊंची पहाड़ियों पर ग्लेशियर पिघलने के बाद बनी चौराबाड़ी झील टूटी और उसमें हजारों लोग काल के गाल में समा गए. इस समय 2013 की उस आपदा का जिक्र इसलिए किया जा रहा है. क्योंकि ब्रिटेन की न्यूकैसल यूनिवर्सिटी के अध्ययन में ग्लेशियर के चलते दुनिया के कई देशों पर बाढ़ का खतरा मंडराने की रिपोर्ट प्रकाशित की गई है. इस अध्ययन के अनुसार दुनिया के 1.5 करोड़ लोग ग्लेशियर गलने के बाद बाढ़ के खतरे की जद में हैं. इसमें भी एक तिहाई लोग अकेले भारत और पाकिस्तान के हैं.
मॉनिटरिंग किया जाना बेहद जरूरी: अध्ययन के अनुसार करीब 30 लाख लोग भारत तो 20 लाख लोग पाकिस्तान में ऐसी बाढ़ से प्रभावित हो सकते हैं. वैसे तमाम वैज्ञानिक भी ग्लेशियर पिघलने और उससे बनने वाली झील के चलते बाढ़ का खतरा होने की बात कहते रहे हैं. फिलहाल मौसम विज्ञान केंद्र जो मौसमी बदलावों के आंकड़े पेश करता रहा है और तापमान में बढ़ोत्तरी के लिए भी सभी को आगाह कर रहा है. उसने भी तापमान बढ़ने का असर ग्लेशियर्स पर पड़ने की बात कही है. उत्तराखंड मौसम विज्ञान केंद्र के निदेशक विक्रम सिंह कहते हैं कि जिस तरह तापमान बढ़ रहे हैं, उससे ग्लेशियर्स के पिघलने का खतरा भी बढ़ा है, हालांकि मॉनसून सीजन में इसके लिए मॉनिटरिंग की जाती है.
अध्ययन ने बढ़ाई टेंशन: लेकिन अब विंटर सीजन में भी तापमान बढ़ने के चलते इनकी मॉनिटरिंग किया जाना बेहद जरूरी हो गया है. ब्रिटेन के इस विश्वविद्यालय के अध्ययन में भारत, पाकिस्तान, चीन और पेरू में इसका सबसे ज्यादा खतरा होने की बात कही गयी है. भारत में हिमालय क्षेत्र में आने वाले राज्य इसमें सबसे ज्यादा रेड जोन में है. ब्रिटेन के विश्वविद्यालय ने हाल ही में हुए अध्ययन के दौरान ग्लेशियर्स से बनने वाली झीलों के चलते बाढ़ आने की स्थिति में ग्लेशियर्स के 50 किलोमीटर क्षेत्र में बेहद ज्यादा नुकसान होने, जबकि इसका असर 120 किलोमीटर तक होने का भी आकलन किया है. हालांकि भारत में ऐसे ग्लेशियर्स पर बनने वाली झीलों को मॉनिटर किया जाता है.
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डस्ट पांच गुना तक बढ़ा सकती है इसका पिघलना: हिमालय क्षेत्र में ग्लेशियर्स पर निगरानी को लेकर भले ही पहले से काम किया जाता रहा हो, लेकिन 2013 से पहले इसको लेकर गंभीरता कम ही दिखाई जाती थी. शायद यही कारण है कि खराब मौसम की चेतावनी के बावजूद पहले से ही चोराबाड़ी झील का अंदाजा नहीं लगाया जा सका. बहरहाल अब भारत सरकार के ऐसे कई अनुसंधान और संस्थान है जो इसकी मॉनिटरिंग करते हैं. वैसे ग्लोबल वार्मिंग का ग्लेशियर्स पर बेहद खराब असर पड़ रहा है और हिमालय क्षेत्र में हो रहे विकास कार्यों ने तो ग्लेशियर्स के लिए परेशानियां और भी ज्यादा बढ़ा दी है.
क्या कहते हैं जानकार: वाडिया के पूर्व वैज्ञानिक डॉक्टर डीपी डोभाल कहते हैं कि जिस तरह हिमालयी क्षेत्र में विभिन्न काम हो रहे हैं उससे ग्लेशियर्स पर डस्ट जमा हो रही है और इसके चलते ग्लेशियर्स की सेहत तेजी से बिगड़ रही है. उन्होंने दावा किया कि यदि 2 से 3 मिलीमीटर तक की डस्ट ग्लेशियर्स पर आ जाती है तो ग्लेशियर के पिघलने का सिलसिला 3 से 5 गुना तक बढ़ सकता है. मौसम विभाग की कह चुका है कि इस बार तापमान बेहद तेजी से बढ़ रहे हैं और सर्दी के मौसम में भी पहाड़ों पर सामान्य से 10 डिग्री तक तापमान बढ़ सकते हैं.
जाहिर है कि सर्दी के मौसम में कम बर्फबारी और बारिश के बाद अचानक तापमान बढ़ने से ग्लेशियर पिघलेंगे और इसमें झील का निर्माण भी होगा. ऐसी स्थिति में यदि ग्लेशियर्स पर बनी झील को पंक्चर नहीं किया जाता तो अचानक झील के फटने से नदी में बाढ़ की स्थिति बनेगी और नदी के आसपास के क्षेत्र इससे सीधे प्रभावित होंगे. ब्रिटेन की विश्वविद्यालय की रिपोर्ट वैसे तो दुनिया भर को लेकर है, लेकिन देखा जाए तो उत्तराखंड समेत भारत के हिमालय क्षेत्र इस मामले में बेहद ज्यादा संवेदनशील हैं.