कोलकाता : अपराध के तहकीकात की दुनिया में शुरुआती दौर से ही संदिग्ध अपराधियों की हथेलियों और अंगुलियों में स्याही लगाकर निशान की फोटोकॉपी लेकर असली अपराधी की पहचान की जाती थी. हालांकि, यह प्रक्रिया काफी लंबी होती थी और इसलिए जासूस को अपराधों को सुलझाने में काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था. फिंगरप्रिंट ब्यूरो के पूर्व निदेशक देबाशीष घोष ने कहा कि तकनीक के साथ अपराध के ट्रेंड में भी बदलाव आया है. डिजिटल अपराध इसका नया रूप है. इसलिए फिंगरप्रिंट ब्यूरो भी नई तकनीक के साथ आधुनिक हो गया है.
कैसे हाेता है काम
उन्होंने कहा कि पहले ब्यूरो 'AFIS' (Automated fingerprint identification) नामक प्रणाली के साथ काम करता था. हालांकि, इस पुरानी प्रणाली को नेशनल फिंगरप्रिंट आईडेंटिफिकेश सिस्टेम (NAFIS) के रूप में जाना जाता है. यह नया सिस्टम पूरी तरह से डिजिटल रूप से काम करता है. इस सॉफ्टवेयर का मुख्य सर्वर नई दिल्ली में राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के कार्यालय में है. वास्तव में, एनसीआरबी इस सॉफ्टवेयर को सभी राज्यों के फिंगरप्रिंट (fingerprint) ब्यूरो को काम करने के लिए मुहैया कराता है.
उन्हाेंने कहा कि पश्चिम बंगाल में आरोपी को अदालत में पेश करने के बाद पुलिस ब्यूरो को आरोपी के फिंगरप्रिंट के नमूने भेजने के लिए अदालत की अनुमति लेती है. ब्यूरो को नमूने मिलने के बाद उसके अधिकारी काम करना शुरू कर देते हैं.
जानें वह पहला केस जाे फिंगरप्रिंट के जरिए सुलझाया गया
उन्होंने यह भी कहा कि यदि आरोपी पश्चिम बंगाल के बाहर का निवासी है, तो फिंगरप्रिंट ब्यूरो को एनसीआरबी से विशेष अनुमति लेनी होगी, जो ब्यूरो को एक विशेष पासवर्ड भेजता है. उस पासवर्ड का उपयोग सिस्टम को खोलने के लिए किया जाता है और एक बार ब्यूरो सिस्टम को अनलॉक करने के बाद उस विशेष राज्य के सभी अपराधियों के सभी विवरणों तक पहुंच सकते हैं. घोष ने कहा इस फॉर्मूले को हेनरी क्लासिफेकेशन के रूप में जाना जाता है. सवाल यह है कि ऐसा नाम क्यों?
18वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में जब भारत ब्रिटिश शासन के अधीन था, देश का पहला फिंगरप्रिंट ब्यूरो (fingerprint bureau) भारत में स्थापित किया गया था और इसकी पहली सफलता तत्कालीन जलपाईगुड़ी (Jalpaiguri) जिले के एक चाय बागान में एक हत्या के मामले को सुलझाने में की गई थी. मामला यह था कि चाय बागान के एक कर्मचारी की मौत हो गई और फिंगरप्रिंट से हत्यारे की पहचान की गई. जांच दल का नेतृत्व करने वाले ब्रिटिश अधिकारी एडवर्ड रिचर्ड हेनरी (British officer Edward Richard Henry) थे. उनकी सहायता करने वाले दो बंगाली अधिकारी हेमचंद्र घोष और अजीज़ुल हक थे. तब से इस प्रणाली को हेनरी क्लासिफिकेशन (Henry Classification) का नाम दिया गया. हत्याकांड में पीड़ित संबंधित चाय बागान का अधिकारी था और आरोपी उसी बगीचे का पूर्व कर्मचारी रंजन सिंह था. जांच दल ने पीड़ित के शरीर के चारों ओर खून के धब्बे पर अंगुलियों के निशान का विश्लेषण करके अपराधी की पहचान की.
मैनपावर की कमी से जूझ रहा फिंगरप्रिंट ब्यूरो
हालांकि, ब्रिटिश शासकों ने अपने शासन के दौरान कभी भी फिंगरप्रिंट क्लासिफिकेशन को कोई आधिकारिक दर्जा नहीं दिया. हालांकि, बाद में भारत सरकार ने इसे आधिकारिक दर्जा दिया. समय के साथ फिंगरप्रिंट ब्यूरो का अधिकार क्षेत्र एनसीआरबी के हाथों में चला गया. हालांकि, बाद में अधिकार क्षेत्र राज्य आपराधिक जांच विभाग (सीआईडी) को सौंप दिया गया. समय के साथ ब्यूरो को मैनपावर की कमी का सामना करना पड़ रहा है. इसलिए लंबित मामलों की संख्या बढ़ती जा रही है.
1997 तक राज्य पुलिस के विशेष रूप से प्रशिक्षित अधिकारी ब्यूरो के कामकाज को देखते थे. हालांकि, अब उनकी जगह विशेष फिंगरप्रिंट विशेषज्ञों ने ले ली है. मुख्य रूप से ब्यूरो में एक निदेशक, 12 सीनियर विशेषज्ञ और 24 जूनियर विशेषज्ञ होते हैं. हालांकि, घोष ने कहा कि ब्यूरो की वर्तमान क्षमता निर्धारित क्षमता से काफी कम है.
इसे भी पढ़ें : बंगाल में चुनाव के बाद हुई हिंसा खतरनाक और परेशान करने वाली: धनखड़
इस मुद्दे पर उप महानिरीक्षक (सीआईडी-ऑपरेशन) मिराज खालिद ने कहा कि यह ब्यूरो सफलतापूर्वक कार्य कर रहा है. उन्होंने कहा कि हमारे पास अपराधियों के अंगुलियों के निशान का एक डेटाबेस है. किसी भी अपराध के मामले में हम उपलब्ध फिंगरप्रिंट को ब्यूरो के डेटाबेस से मिलाते हैं और उसके अनुसार अपराधी या आरोपी की पहचान करते हैं.