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पंजाब में बढ़ता किसानों का आंदोलन बढ़ा सकता है मुसीबत

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Published : Nov 28, 2020, 5:57 PM IST

पंजाब में किसान आंदोलनों से ध्यान और सावधानी से निपटने की जरूरत है. पिछले दिनों हुआ खालिस्तान आंदोलन बड़ी मुसीबत का संकेत है. इसे सरकार को गंभीरता से लेने की जरूरत है. बढ़ते असंतोष का इस्तेमाल भारत के राष्ट्रीय हित के खिलाफ किया जा सकता है. पढ़ें वरिष्ठ पत्रकार संजीब कुमार बरुआ की रिपोर्ट.

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नई दिल्ली : एक राज्य जो 15 साल (1980-1995) आतंक से घिरे होने के कारण लगभग तबाह हो गया था और जहां 'खालिस्तान' को अलग राष्ट्र बनाने की पुरानी मांग को लेकर आंदलन हुए, वहां किसान द्वारा किया जा रहा विरोध बड़ी मुसीबत का संकेत है.

दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर और किसान आंदोलनों और संघर्ष स्थितियों का अध्ययन करने वाले, कुमार संजय सिंह कहते हैं कि जिस राजनीतिक संदर्भ में भावनाएं भड़काई जा रही हैं, उससे यह और भी जरूरी हो जाता है कि नई दिल्ली किसानों के गुस्से को स्वीकार करे. पंजाब में खालिस्तान आंदोलन की वापसी की खबरें हैं. कृषि संकट इसके पुनरुद्धार के लिए आधार साबित होगा.

केवल वे लोग जो ऐतिहासिक वास्तविकताओं से बेखबर हैं, वे 1980 के दशक में कृषि संकट और 'खालिस्तान' आंदोलन के बीच संबंधों की अनदेखी करेंगे.

खालिस्तान आंदोलन के दौरान 21,000 से अधिक लोगों की मौत हो गई थी, हजारों लोग घायल हो गए थे और एक पीढ़ी मनोवैज्ञानिक रूप से आहत हो गई थी, जिसमें कृषि पृष्ठभूमि के साथ ग्रामीण समुदाय का एक बड़ा घटक शामिल था.

इसी तरह की चिंता को साझा करते हुए पंजाब के एक प्रमुख किसान नेता का कहना है कि किसानों का आंदोलन आज नहीं तो कल खत्म हो जाएगा. युवा और लोग निराश होकर वापस चले जाएंगे. बिना नौकरियों और असंतोष की लहर के साथ, स्थिति का लाभ उठाने के लिए अलगाववादी तत्वों को मौका मिल जाएगा.

यह वैसी ही स्थिति है, जब 1982 में एशियाई खेलों के दौरान नई दिल्ली में पंजाब से दिल्ली तक एक मार्च को रोका गया था. इसने बड़े पैमाने पर असर डाला था. यही इस बार भी हो रहा है. टिपिंग प्वाइंट अभी भी नहीं है, लेकिन उस टिपिंग प्वाइंट तक पहुंचने के लिए एक स्थिति बनाई जा रही है.

उन्होंने कहा कि सरकार द्वारा पारित नए कृषि कानूनों का विरोध करते हुए शनिवार को पंजाब और हरियाणा के हजारों किसानों ने दिल्ली चलो मार्च निकाला. किसान पुलिस से झड़प के बाद और बैरिकेडिंग को तोड़कर दिल्ली पहुंचे.

अलगाववादियों के सुर उठ रहे

किसान नेता ने कहा कि पिछले दो-तीन महीनों से 1984 में सिख विरोधी दंगों को अलगाववादियों के सुर उठ रहे हैं. पाकिस्तान इसका इस्तेमाल करेगा. चंडीगढ़ में सीमावर्ती क्षेत्रों से हथियारों, पेम्पलेट्स और अन्य चीजों के साथ आने वाले ड्रोनों को लेकर चर्चाएं हो रही हैं. इस बारे में नई दिल्ली को सूचित किया गया है.

पढ़ें :- किसानों का फैसला, सिंघु बॉर्डर पर ही डटे रहेंगे

आतंकवाद ने अर्थव्यवस्था को प्रभावित किया. पंजाब के आतंकी चरण के परिणामस्वरूप राज्य से बहुत अधिक पूंजी खत्म हुई, विशेषकर हिंदू पंजाबियों की पूंजी. हिंदू पंजाबियों ने हरियाणा, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश और आस-पास के स्थानों में निवेश करना शुरू कर दिया.

किसान नेता ने जोर दिया कि वर्तमान में चल रहे किसानों का विरोध किसान यूनियनों के नेताओं द्वारा प्रेरित है, जिन्होंने बड़े पैमाने पर असंतोष को बढ़ाने का काम किया है, लेकिन ऐसा माना जा रहा है कि संघ के नेता आंदोलन और प्रदर्शनकारी युवाओं पर नियंत्रण खो रहे हैं, जबकि नई दिल्ली मांगों को नहीं मान रही है. वहीं राज्य सरकार लोगों की उम्मीदों पर खरी नहीं उतर पाई है. इसलिए राज्य में एक राजनीतिक शून्य है.

अधिकारियों कि नाकाम कोशिशों के बाद भी भारत में जनमत संग्रह 2020 (रेफरेंडम 2020) शुरू करने का प्रयास किया गया था.

यह अमेरिका स्थित वकील गुरपतवंत सिंह पन्नू द्वारा चलाए जा रहे सिख्स फॉर जस्टिस (एसएफजे) नामक एक गैरकानूनी संगठन ने शुरू किया. रेफरेंडम 2020 एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें पंजाब के वयस्क व्यक्तियों को एक पोर्टल पर ऑनलाइन पंजीकृत करके 'खालिस्तान को स्वतंत्र देश' बनाने का चयन करवाया जाता है. लगभग दो वर्षों से इसे योजनाबद्ध तरीके से चलाया जा रहा था. यह खालिस्तान आंदोलन को फिर से शुरू करने का एक प्रमुख प्रयास था.

पंजाब में किसान आंदोलन

ब्रिटिश औपनिवेशिक काल के दौरान वाणिज्यिक कृषि की शुरुआत के बाद से ही किसान आंदोलन पंजाब की राजनीति में महत्वपूर्ण रहा है.

पंजाब में किसान आंदोलनों का विकास अलग-अलग चरणों में हुआ है.

पंजाब की रियासत में, किसानों ने सुरक्षित भूमि, जो जमींदारों और अधिकारियों द्वारा जब्त की गई थी, को वापस लेने के लिए आंदोलन किया. किराएदारों ने मकान मालिक को किराया देने से इनकार कर दिया था.

पढ़ें :- कृषि कानूनों के खिलाफ चक्का जाम, देशभर में दिखा मिला-जुला असर

ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन में, नहर कर के रूप में सामने आए भू-राजस्व बढ़ाने और कर बढ़ाने के औपनिवेशिक सरकार के प्रयास का विरोध करने के लिए किसानों ने आंदोलन किया. 1924 में, पंजाब के किसानों ने जल दर के खिलाफ एक आंदोलन किया. 1930 में किसानों ने जल दर और भू-राजस्व के मुद्दों को लेकर आंदोलन किया था.

एमएसपी जीवन और मृत्यु का सवाल

प्रोफेसर कुमार संजय सिंह कहते हैं कि नई कृषि प्रौद्योगिकी और हरित क्रांति के तहत शुरू कि गई कृषि गतिविधियों के परिणामस्वरूप विमुद्रीकरण ने कृषि परिवर्तन के दूसरे चरण का संकेत दिया. ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के बीच व्यापार की असमान शर्तें इस चरण की विशेषता के रूप में प्रमुख विरोधाभास बन गईं और किसानों ने आंदोलन कर इस भेदभाव के निवारण की मांग की. न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) इस चरण का परिणाम था.

उन्होंने कहा कि कृषि संघर्ष का नवीनतम चरण न्यूनतम समर्थन मूल्य को सुरक्षित करना है. किसान हितों को देखते हुए पंजाब में किसान एमएसपी नहीं होने के हानिकारक प्रभावों से अवगत हैं.

उन्होंने कहा कि यह रेखांकित करना उचित है कि पंजाब के किसानों के लिए एमएसपी जीवन और मृत्यु का सवाल है. हरित क्रांति ने पंजाब को भारत की रोटी की टोकरी या भारत के अन्न भंडार में बदलने के साथ-साथ पंजाब के कृषि को श्रम गहन (लेबर इंटेंसिव) से पूंजी गहन (कैपिटल इंटेंसिव) प्रक्रिया में भी बदल दिया. पर्याप्त औपचारिक ऋण सुविधा के अभाव में क्रेडिट के लिए कृषि क्षेत्र निजी संस्थानों और व्यक्तियों पर निर्भरता है. परिणामी ऋणग्रस्तता पंजाब में मध्यम और सीमांत किसानों के संकट का सबसे महत्वपूर्ण कारण है.

नई दिल्ली : एक राज्य जो 15 साल (1980-1995) आतंक से घिरे होने के कारण लगभग तबाह हो गया था और जहां 'खालिस्तान' को अलग राष्ट्र बनाने की पुरानी मांग को लेकर आंदलन हुए, वहां किसान द्वारा किया जा रहा विरोध बड़ी मुसीबत का संकेत है.

दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर और किसान आंदोलनों और संघर्ष स्थितियों का अध्ययन करने वाले, कुमार संजय सिंह कहते हैं कि जिस राजनीतिक संदर्भ में भावनाएं भड़काई जा रही हैं, उससे यह और भी जरूरी हो जाता है कि नई दिल्ली किसानों के गुस्से को स्वीकार करे. पंजाब में खालिस्तान आंदोलन की वापसी की खबरें हैं. कृषि संकट इसके पुनरुद्धार के लिए आधार साबित होगा.

केवल वे लोग जो ऐतिहासिक वास्तविकताओं से बेखबर हैं, वे 1980 के दशक में कृषि संकट और 'खालिस्तान' आंदोलन के बीच संबंधों की अनदेखी करेंगे.

खालिस्तान आंदोलन के दौरान 21,000 से अधिक लोगों की मौत हो गई थी, हजारों लोग घायल हो गए थे और एक पीढ़ी मनोवैज्ञानिक रूप से आहत हो गई थी, जिसमें कृषि पृष्ठभूमि के साथ ग्रामीण समुदाय का एक बड़ा घटक शामिल था.

इसी तरह की चिंता को साझा करते हुए पंजाब के एक प्रमुख किसान नेता का कहना है कि किसानों का आंदोलन आज नहीं तो कल खत्म हो जाएगा. युवा और लोग निराश होकर वापस चले जाएंगे. बिना नौकरियों और असंतोष की लहर के साथ, स्थिति का लाभ उठाने के लिए अलगाववादी तत्वों को मौका मिल जाएगा.

यह वैसी ही स्थिति है, जब 1982 में एशियाई खेलों के दौरान नई दिल्ली में पंजाब से दिल्ली तक एक मार्च को रोका गया था. इसने बड़े पैमाने पर असर डाला था. यही इस बार भी हो रहा है. टिपिंग प्वाइंट अभी भी नहीं है, लेकिन उस टिपिंग प्वाइंट तक पहुंचने के लिए एक स्थिति बनाई जा रही है.

उन्होंने कहा कि सरकार द्वारा पारित नए कृषि कानूनों का विरोध करते हुए शनिवार को पंजाब और हरियाणा के हजारों किसानों ने दिल्ली चलो मार्च निकाला. किसान पुलिस से झड़प के बाद और बैरिकेडिंग को तोड़कर दिल्ली पहुंचे.

अलगाववादियों के सुर उठ रहे

किसान नेता ने कहा कि पिछले दो-तीन महीनों से 1984 में सिख विरोधी दंगों को अलगाववादियों के सुर उठ रहे हैं. पाकिस्तान इसका इस्तेमाल करेगा. चंडीगढ़ में सीमावर्ती क्षेत्रों से हथियारों, पेम्पलेट्स और अन्य चीजों के साथ आने वाले ड्रोनों को लेकर चर्चाएं हो रही हैं. इस बारे में नई दिल्ली को सूचित किया गया है.

पढ़ें :- किसानों का फैसला, सिंघु बॉर्डर पर ही डटे रहेंगे

आतंकवाद ने अर्थव्यवस्था को प्रभावित किया. पंजाब के आतंकी चरण के परिणामस्वरूप राज्य से बहुत अधिक पूंजी खत्म हुई, विशेषकर हिंदू पंजाबियों की पूंजी. हिंदू पंजाबियों ने हरियाणा, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश और आस-पास के स्थानों में निवेश करना शुरू कर दिया.

किसान नेता ने जोर दिया कि वर्तमान में चल रहे किसानों का विरोध किसान यूनियनों के नेताओं द्वारा प्रेरित है, जिन्होंने बड़े पैमाने पर असंतोष को बढ़ाने का काम किया है, लेकिन ऐसा माना जा रहा है कि संघ के नेता आंदोलन और प्रदर्शनकारी युवाओं पर नियंत्रण खो रहे हैं, जबकि नई दिल्ली मांगों को नहीं मान रही है. वहीं राज्य सरकार लोगों की उम्मीदों पर खरी नहीं उतर पाई है. इसलिए राज्य में एक राजनीतिक शून्य है.

अधिकारियों कि नाकाम कोशिशों के बाद भी भारत में जनमत संग्रह 2020 (रेफरेंडम 2020) शुरू करने का प्रयास किया गया था.

यह अमेरिका स्थित वकील गुरपतवंत सिंह पन्नू द्वारा चलाए जा रहे सिख्स फॉर जस्टिस (एसएफजे) नामक एक गैरकानूनी संगठन ने शुरू किया. रेफरेंडम 2020 एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें पंजाब के वयस्क व्यक्तियों को एक पोर्टल पर ऑनलाइन पंजीकृत करके 'खालिस्तान को स्वतंत्र देश' बनाने का चयन करवाया जाता है. लगभग दो वर्षों से इसे योजनाबद्ध तरीके से चलाया जा रहा था. यह खालिस्तान आंदोलन को फिर से शुरू करने का एक प्रमुख प्रयास था.

पंजाब में किसान आंदोलन

ब्रिटिश औपनिवेशिक काल के दौरान वाणिज्यिक कृषि की शुरुआत के बाद से ही किसान आंदोलन पंजाब की राजनीति में महत्वपूर्ण रहा है.

पंजाब में किसान आंदोलनों का विकास अलग-अलग चरणों में हुआ है.

पंजाब की रियासत में, किसानों ने सुरक्षित भूमि, जो जमींदारों और अधिकारियों द्वारा जब्त की गई थी, को वापस लेने के लिए आंदोलन किया. किराएदारों ने मकान मालिक को किराया देने से इनकार कर दिया था.

पढ़ें :- कृषि कानूनों के खिलाफ चक्का जाम, देशभर में दिखा मिला-जुला असर

ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन में, नहर कर के रूप में सामने आए भू-राजस्व बढ़ाने और कर बढ़ाने के औपनिवेशिक सरकार के प्रयास का विरोध करने के लिए किसानों ने आंदोलन किया. 1924 में, पंजाब के किसानों ने जल दर के खिलाफ एक आंदोलन किया. 1930 में किसानों ने जल दर और भू-राजस्व के मुद्दों को लेकर आंदोलन किया था.

एमएसपी जीवन और मृत्यु का सवाल

प्रोफेसर कुमार संजय सिंह कहते हैं कि नई कृषि प्रौद्योगिकी और हरित क्रांति के तहत शुरू कि गई कृषि गतिविधियों के परिणामस्वरूप विमुद्रीकरण ने कृषि परिवर्तन के दूसरे चरण का संकेत दिया. ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के बीच व्यापार की असमान शर्तें इस चरण की विशेषता के रूप में प्रमुख विरोधाभास बन गईं और किसानों ने आंदोलन कर इस भेदभाव के निवारण की मांग की. न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) इस चरण का परिणाम था.

उन्होंने कहा कि कृषि संघर्ष का नवीनतम चरण न्यूनतम समर्थन मूल्य को सुरक्षित करना है. किसान हितों को देखते हुए पंजाब में किसान एमएसपी नहीं होने के हानिकारक प्रभावों से अवगत हैं.

उन्होंने कहा कि यह रेखांकित करना उचित है कि पंजाब के किसानों के लिए एमएसपी जीवन और मृत्यु का सवाल है. हरित क्रांति ने पंजाब को भारत की रोटी की टोकरी या भारत के अन्न भंडार में बदलने के साथ-साथ पंजाब के कृषि को श्रम गहन (लेबर इंटेंसिव) से पूंजी गहन (कैपिटल इंटेंसिव) प्रक्रिया में भी बदल दिया. पर्याप्त औपचारिक ऋण सुविधा के अभाव में क्रेडिट के लिए कृषि क्षेत्र निजी संस्थानों और व्यक्तियों पर निर्भरता है. परिणामी ऋणग्रस्तता पंजाब में मध्यम और सीमांत किसानों के संकट का सबसे महत्वपूर्ण कारण है.

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