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विवादों में उलझता चुनाव आयोग

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Published : May 11, 2021, 9:41 PM IST

हाल ही में चुनाव आयोग ने हाईकोर्ट और मीडिया को लेकर जिस तरह की बातें की हैं, उससे आयोग के काम करने के तरीके पर सवाल उठने लगे हैं. अब तो लोग ये भी पूछने लगे हैं कि क्या चुनाव करवाने की जिम्मेदारी नौकरशाहों को देना उचित है या नहीं. हालांकि, आपको ये भी याद रखना होगा कि कोई भी सरकार क्यों न हो, हर सरकार अपने पसंदीदा व्यक्ति को चुनाव आयोग भेजती रही है. प्रसार भारती के पूर्व चेयरमैन ए सूर्यप्रकाश का विश्लेषण.

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चुनाव आयोग

मद्रास हाईकोर्ट द्वारा चुनाव आयोग पर की गई तल्ख टिप्पणी से चुनाव आयुक्त आहत हो गए. लेकिन आयोग का यह कहना कि जजों को मौखिक टिप्पणी करने से रोका जाए और कोर्ट में की गई कार्यवाही को प्रकाशित करने से मीडिया पर रोक लगाई जाए किसी भी तरीके से उचित नहीं है. इसने एक तरीके से आयोग के प्रति उपजी सहानुभूति के उठते ज्वर को शांत कर दिया.

सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग की दोनों दलीलों को खारिज कर दिया. न तो मीडिया पर रोक लगी और न ही हाईकोर्ट की टिप्पणी को कार्यवाही से बाहर किया गया. न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि खुली अदालत संवैधानिक स्वतंत्रता का केंद्र बिंदु है. इंटरनेट ने इसे और भी अधिक क्रांतिकारी बना दिया है. पल-पल की रिपोर्टिंग होने लगी है. यह भी बोलने की आजादी का ही हिस्सा है. इसलिए कोर्ट की कार्यवाही की रिपोर्टिंग पर रोक लगाना प्रतिगामी कदम होगा.

मद्रास हाईकोर्ट ने चुनाव आयोग के अधिकारियों से पूछा था कि बिना कोविड प्रोटोकॉल के आपने चुनाव प्रचार की इजाजत कैसे दे दी. चुनाव आयोग को गैर जिम्मेदार बताते हुए कोर्ट ने इन अधिकारियों पर हत्या का मुकदमा चलाने जैसी बात कह दी थी.

कोर्ट की इस तीखी भाषा पर चुनाव आयोग हतप्रभ रह गया और उसने इस टिप्पणी को हटवाने के लिए सुप्रीम कोर्ट का रूख किया. सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस एमआर शाह ने अपनी शुरुआती टिप्पणी में साफ कर दिया कि वे हाईकोर्ट के जजों का नैतिक मनोबल नहीं तोड़ रहे हैं. बेंच किसी भी तरह की रेस्टरेंट जारी नहीं करेगी. कोर्ट में जिस तरीके से पूरे मामले पर बहस हुई, उससे बार, बेंच और आम लोगों का भरोसा बढ़ा. न्यायपालिका की व्यवस्था को लेकर हम सबका उसके प्रति सम्मान बढ़ा.

निष्कर्ष के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कोविड के दौरान उच्च न्यायालयों की भूमिका की तारीफ की. हालांकि, कोर्ट ने कहा कि मद्रास हाईकोर्ट की टिप्पणी कुछ ज्यादा कठोर थी. इस तरह की टिप्पणी से बचना चाहिए. न्यायिक दायरा को पहचानना होगा. जहां तक मीडिया की बात है, तो उसे न्यायिक कार्यवाही की रिपोर्टिंग करने का पूरा अधिकार है, उसे रोका नहीं जा सकता है.

सुप्रीम कोर्ट में दलील के दौरान आयोग ने कहा कि चुनाव के दौरान गवर्नेंस उनके पास नहीं होता है. वह सिर्फ दिशा-निर्देश जारी करता है. लागू करने की जवाबदेही सरकार की होती है. अगर उल्लंघन होता है, तो उसकी जवाबदेही आयोग की नहीं है. लेकिन आयोग की यह दलील भी सही नहीं मालूम पड़ती है. क्योंकि आयोग अक्सर ही वरिष्ठ अधिकारियों का तबादला कर देता है. नौ मार्च को आयोग ने प. बंगाल के डीजीपी को हटाकर किसी और को जवाबदेही दे दी. लेकिन अभी कह रहा है वह ऐसा नहीं करता है. आयोग के पास चुनाव की तारीख निर्धारित करने का आधिकार है, लेकिन परिस्थिति अगर इजाजत नहीं देती है, तो वह चुनाव टाल भी सकता है. जिस दिन चुनाव की तारीखों का ऐलान होता है, उस दिन से ही आयोग राज्य सरकारों के हरेक फैसले की निगरानी करने लगता है. पर, अब आयोग अपने असहायक होने का परिचय दे रहा है. अब तो ये सवाल भी उठने लगे हैं कि क्या नौकरशाहों के हाथों में स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव कराने की जवाबदेही देना उचित है या नहीं.

आप सोचिए जरा, चुनाव आयोग के व्यवहार, सुप्रीम कोर्ट में उनकी सतही दलीलें और मीडिया पर पाबंदी लगाने की उनकी सलाह के बारे में जब संविधान निर्माताओं को पता चला होगा, तो वे भी क्रब में उठक-बैठक ही करने लगे होंगे. संविधान सभा में होने वाली बहस का जब आप करीब से अध्ययन करेंगे, तो आपको पता चलेगा कि किस तरह से उन्होंने अनुच्छेद 324 की रूपरेखा तैयार की थी. इसके जरिए चुनाव आयोग को स्वतंत्र और स्वायत्त रखा गया. मुख्य चुनाव आयुक्त को 'वज्र कवच' के अधीन रखा गया है. 324(5) के तहत उन्हें सुप्रीम कोर्ट के जज की तरह सुरक्षा दी गई है, ताकि वे गंभीरता और बिना भयभीत हुए नागरिकों के अधिकारों की रक्षा कर सकें. और इस तरह से वे देश की प्रजातांत्रिक प्रक्रियाओं को मजबूत करेंगे.

अनुच्छेद 324 को जब आप ध्यान से पढ़ेंगे, तो उसमें साफ-साफ लिखा है कि आयोग के पास चुनाव के निरीक्षण, निर्देशन और नियंत्रण की जवाबदेही है. ऐसे में आयोग अपने आप को असहाय कैसे बता सकता है.

मोदी सरकार पर इस बात को लेकर हमला किया जाता है कि सरकार ने अपने पसंदीदा अधिकारियों की तैनाती की है. वह उसके जरिए आयोग के काम को प्रभावित करते हैं. हालांकि, मेरे पास इस बात की कोई जानकारी नहीं है कि ये आरोप सही हैं या गलत. लेकिन हमने एसएल शकधर के समय से ही चुनाव आयुक्तों की कार्यशैली को देखा है. शकधर ने मोरारजी देसाई, चरण सिंह और इंदिरा गांधी के समय में चुनाव कराए थे. इसके बाद राजीव गांधी के कार्यकाल में आरवीएस पेरि शास्त्री और चंद्रशेखर के कार्यकाल में टीएन शेषण. कहा जाता है कि शेषण राजीव गांधी की पसंद थे. हर सरकार ने अपनी पसंद के व्यक्ति को चुनाव आयुक्त बनाया है. ये भी सत्य है कि सरकार के सामने विश लिस्ट होती है. खासतौर पर चुनाव की तारीखों और उसे कितने चरणों में करवाया जाए और केंद्रीय बलों की तैनाती को लेकर. औपचारिक और अनौपचारिक दोनों स्तर पर निर्देश दिए जाते हैं. सरकार अपनी बात रख सकती है, लेकिन जवाबदेही आयोग की है. स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव संपन्न करवाना उसकी जवाबदेही है. जब यह संतुलन बिगड़ेगा, तो लोग सरकार से नहीं, आयोग से सवाल पूछेंगे.

वर्तमान परिदृश्य में कहें तो चुनाव आयोग की सबसे अधिक किरकिरी प.बंगाल में आठ चरणों में चुनाव कराने को लेकर हुई है. जबकि तमिलनाडु, केरल और पुडुचेरी में एक चरण में ही चुनाव करवाए गए. उसी दिन असम में भी 40सीटों पर चनाव करवाए गए. यानी चुनाव आयोग ने उस दिन 444 सीटों पर चुनाव करवा दिए. लेकिन प.बंगाल को लेकर ऐसा नहीं कर सका. प.बंगाल में 294 सीटें हैं. इसके पीछे क्या स्पष्टीकरण हो सकता है. आयोग को इसका जवाब जरूर देना चाहिए. इस बीच कोविड के मामले इतनी तेजी से बढ़ने लगे. अप्रैल के पहले सप्ताह में एक लाख से अधिक मामले सामने आ गए. आयोग ने तब कोई पहल नहीं की. मद्रास हाईकोर्ट की टिप्पणी के बाद आयोग जागा. लेकिन आयोग कह रहा है कि कोर्ट को किसी संवैधानिक संस्था पर ऐसी कड़ी टिप्पणी नहीं करनी चाहिए. चुनाव आयोग की इस दलील में दम नहीं है. आयोग हाईकोर्ट से अपनी समानता खोज रहा है. संविधान ने हाईकोर्ट को रिट जारी करने का अधिकार दिया है. चुनाव आयोग के खिलाफ दायर की गई याचिका पर भी हाईकोर्ट सुनवाई कर सकता है. चुनाव आयोग को हाईकोर्ट की संवैधानिक अस्तित्व को स्वीकार करना चाहिए.

देश की संस्थाओं को करीब से देखने वालों के मन में इस तरह के सवाल उठने लाजिमी हैं. इसलिए एक ऐसी संस्था, जिसके पास प्रजातंत्र को संचालित और सुरक्षित रखने की जवाबदेही है, उसकी ओर से ऐसी दलीलें नहीं आनी चाहिए. सुप्रीम कोर्ट ने दो टूक कहा कि लोकतंत्र को जीवित रखने के लिए संस्थानों को मजबूत और जीवंत होना चाहिए.

(लेखक- ए सूर्यप्रकाश, प्रसार भारती के पूर्व चेयरमैन)

मद्रास हाईकोर्ट द्वारा चुनाव आयोग पर की गई तल्ख टिप्पणी से चुनाव आयुक्त आहत हो गए. लेकिन आयोग का यह कहना कि जजों को मौखिक टिप्पणी करने से रोका जाए और कोर्ट में की गई कार्यवाही को प्रकाशित करने से मीडिया पर रोक लगाई जाए किसी भी तरीके से उचित नहीं है. इसने एक तरीके से आयोग के प्रति उपजी सहानुभूति के उठते ज्वर को शांत कर दिया.

सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग की दोनों दलीलों को खारिज कर दिया. न तो मीडिया पर रोक लगी और न ही हाईकोर्ट की टिप्पणी को कार्यवाही से बाहर किया गया. न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि खुली अदालत संवैधानिक स्वतंत्रता का केंद्र बिंदु है. इंटरनेट ने इसे और भी अधिक क्रांतिकारी बना दिया है. पल-पल की रिपोर्टिंग होने लगी है. यह भी बोलने की आजादी का ही हिस्सा है. इसलिए कोर्ट की कार्यवाही की रिपोर्टिंग पर रोक लगाना प्रतिगामी कदम होगा.

मद्रास हाईकोर्ट ने चुनाव आयोग के अधिकारियों से पूछा था कि बिना कोविड प्रोटोकॉल के आपने चुनाव प्रचार की इजाजत कैसे दे दी. चुनाव आयोग को गैर जिम्मेदार बताते हुए कोर्ट ने इन अधिकारियों पर हत्या का मुकदमा चलाने जैसी बात कह दी थी.

कोर्ट की इस तीखी भाषा पर चुनाव आयोग हतप्रभ रह गया और उसने इस टिप्पणी को हटवाने के लिए सुप्रीम कोर्ट का रूख किया. सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस एमआर शाह ने अपनी शुरुआती टिप्पणी में साफ कर दिया कि वे हाईकोर्ट के जजों का नैतिक मनोबल नहीं तोड़ रहे हैं. बेंच किसी भी तरह की रेस्टरेंट जारी नहीं करेगी. कोर्ट में जिस तरीके से पूरे मामले पर बहस हुई, उससे बार, बेंच और आम लोगों का भरोसा बढ़ा. न्यायपालिका की व्यवस्था को लेकर हम सबका उसके प्रति सम्मान बढ़ा.

निष्कर्ष के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कोविड के दौरान उच्च न्यायालयों की भूमिका की तारीफ की. हालांकि, कोर्ट ने कहा कि मद्रास हाईकोर्ट की टिप्पणी कुछ ज्यादा कठोर थी. इस तरह की टिप्पणी से बचना चाहिए. न्यायिक दायरा को पहचानना होगा. जहां तक मीडिया की बात है, तो उसे न्यायिक कार्यवाही की रिपोर्टिंग करने का पूरा अधिकार है, उसे रोका नहीं जा सकता है.

सुप्रीम कोर्ट में दलील के दौरान आयोग ने कहा कि चुनाव के दौरान गवर्नेंस उनके पास नहीं होता है. वह सिर्फ दिशा-निर्देश जारी करता है. लागू करने की जवाबदेही सरकार की होती है. अगर उल्लंघन होता है, तो उसकी जवाबदेही आयोग की नहीं है. लेकिन आयोग की यह दलील भी सही नहीं मालूम पड़ती है. क्योंकि आयोग अक्सर ही वरिष्ठ अधिकारियों का तबादला कर देता है. नौ मार्च को आयोग ने प. बंगाल के डीजीपी को हटाकर किसी और को जवाबदेही दे दी. लेकिन अभी कह रहा है वह ऐसा नहीं करता है. आयोग के पास चुनाव की तारीख निर्धारित करने का आधिकार है, लेकिन परिस्थिति अगर इजाजत नहीं देती है, तो वह चुनाव टाल भी सकता है. जिस दिन चुनाव की तारीखों का ऐलान होता है, उस दिन से ही आयोग राज्य सरकारों के हरेक फैसले की निगरानी करने लगता है. पर, अब आयोग अपने असहायक होने का परिचय दे रहा है. अब तो ये सवाल भी उठने लगे हैं कि क्या नौकरशाहों के हाथों में स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव कराने की जवाबदेही देना उचित है या नहीं.

आप सोचिए जरा, चुनाव आयोग के व्यवहार, सुप्रीम कोर्ट में उनकी सतही दलीलें और मीडिया पर पाबंदी लगाने की उनकी सलाह के बारे में जब संविधान निर्माताओं को पता चला होगा, तो वे भी क्रब में उठक-बैठक ही करने लगे होंगे. संविधान सभा में होने वाली बहस का जब आप करीब से अध्ययन करेंगे, तो आपको पता चलेगा कि किस तरह से उन्होंने अनुच्छेद 324 की रूपरेखा तैयार की थी. इसके जरिए चुनाव आयोग को स्वतंत्र और स्वायत्त रखा गया. मुख्य चुनाव आयुक्त को 'वज्र कवच' के अधीन रखा गया है. 324(5) के तहत उन्हें सुप्रीम कोर्ट के जज की तरह सुरक्षा दी गई है, ताकि वे गंभीरता और बिना भयभीत हुए नागरिकों के अधिकारों की रक्षा कर सकें. और इस तरह से वे देश की प्रजातांत्रिक प्रक्रियाओं को मजबूत करेंगे.

अनुच्छेद 324 को जब आप ध्यान से पढ़ेंगे, तो उसमें साफ-साफ लिखा है कि आयोग के पास चुनाव के निरीक्षण, निर्देशन और नियंत्रण की जवाबदेही है. ऐसे में आयोग अपने आप को असहाय कैसे बता सकता है.

मोदी सरकार पर इस बात को लेकर हमला किया जाता है कि सरकार ने अपने पसंदीदा अधिकारियों की तैनाती की है. वह उसके जरिए आयोग के काम को प्रभावित करते हैं. हालांकि, मेरे पास इस बात की कोई जानकारी नहीं है कि ये आरोप सही हैं या गलत. लेकिन हमने एसएल शकधर के समय से ही चुनाव आयुक्तों की कार्यशैली को देखा है. शकधर ने मोरारजी देसाई, चरण सिंह और इंदिरा गांधी के समय में चुनाव कराए थे. इसके बाद राजीव गांधी के कार्यकाल में आरवीएस पेरि शास्त्री और चंद्रशेखर के कार्यकाल में टीएन शेषण. कहा जाता है कि शेषण राजीव गांधी की पसंद थे. हर सरकार ने अपनी पसंद के व्यक्ति को चुनाव आयुक्त बनाया है. ये भी सत्य है कि सरकार के सामने विश लिस्ट होती है. खासतौर पर चुनाव की तारीखों और उसे कितने चरणों में करवाया जाए और केंद्रीय बलों की तैनाती को लेकर. औपचारिक और अनौपचारिक दोनों स्तर पर निर्देश दिए जाते हैं. सरकार अपनी बात रख सकती है, लेकिन जवाबदेही आयोग की है. स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव संपन्न करवाना उसकी जवाबदेही है. जब यह संतुलन बिगड़ेगा, तो लोग सरकार से नहीं, आयोग से सवाल पूछेंगे.

वर्तमान परिदृश्य में कहें तो चुनाव आयोग की सबसे अधिक किरकिरी प.बंगाल में आठ चरणों में चुनाव कराने को लेकर हुई है. जबकि तमिलनाडु, केरल और पुडुचेरी में एक चरण में ही चुनाव करवाए गए. उसी दिन असम में भी 40सीटों पर चनाव करवाए गए. यानी चुनाव आयोग ने उस दिन 444 सीटों पर चुनाव करवा दिए. लेकिन प.बंगाल को लेकर ऐसा नहीं कर सका. प.बंगाल में 294 सीटें हैं. इसके पीछे क्या स्पष्टीकरण हो सकता है. आयोग को इसका जवाब जरूर देना चाहिए. इस बीच कोविड के मामले इतनी तेजी से बढ़ने लगे. अप्रैल के पहले सप्ताह में एक लाख से अधिक मामले सामने आ गए. आयोग ने तब कोई पहल नहीं की. मद्रास हाईकोर्ट की टिप्पणी के बाद आयोग जागा. लेकिन आयोग कह रहा है कि कोर्ट को किसी संवैधानिक संस्था पर ऐसी कड़ी टिप्पणी नहीं करनी चाहिए. चुनाव आयोग की इस दलील में दम नहीं है. आयोग हाईकोर्ट से अपनी समानता खोज रहा है. संविधान ने हाईकोर्ट को रिट जारी करने का अधिकार दिया है. चुनाव आयोग के खिलाफ दायर की गई याचिका पर भी हाईकोर्ट सुनवाई कर सकता है. चुनाव आयोग को हाईकोर्ट की संवैधानिक अस्तित्व को स्वीकार करना चाहिए.

देश की संस्थाओं को करीब से देखने वालों के मन में इस तरह के सवाल उठने लाजिमी हैं. इसलिए एक ऐसी संस्था, जिसके पास प्रजातंत्र को संचालित और सुरक्षित रखने की जवाबदेही है, उसकी ओर से ऐसी दलीलें नहीं आनी चाहिए. सुप्रीम कोर्ट ने दो टूक कहा कि लोकतंत्र को जीवित रखने के लिए संस्थानों को मजबूत और जीवंत होना चाहिए.

(लेखक- ए सूर्यप्रकाश, प्रसार भारती के पूर्व चेयरमैन)

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