हैदराबाद : अफगानिस्तान में सक्रिय आतंकी संगठनों के खिलाफ ताजिकिस्तान एक बार फिर से धुरी बनता नजर आ रहा है. नब्बे के दशक में ताजिकिस्तान ने तालिबान विरोधी ताकतों को खुफिया बेस दिया था. अमेरिकी सैनिकों के वापस लौटने के बाद अफगानिस्तान में फिर से तालिबान ने सत्ता पर कब्जा कर लिया है. लिहाजा, ताजिकिस्तान ने फिर से उन ताकतों के खिलाफ मंच प्रदान किया है, जिसकी वजह से क्षेत्र की सुरक्षा पर खतरा मंडराने लगा है.
भारत, चीन, ईरान और मध्य एशिया के चार प्रमुख देश तालिबान शासन के अधीन अलग-अलग आतंकी संगठनों के सक्रिय होने से चिंतित हो उठे हैं. इन अंतरराष्ट्रीय आतंकी संगठनों से उत्पन्न खतरों से निपटने के लिए दुशांबे (ताजिकिस्तान की राजधानी) ने एनएसए स्तर (NSA level talks) पर एक डायलॉग का आयोजन किया है. इसमें भारत, चीन, ईरान, रूस, उजबेकिस्तान, किर्गिस्तान, तुर्कमेनिस्तान और कजाकिस्तान के प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया.
भारत के लिहाज से यह बहुत ही महत्वपूर्ण रहा. यूएन द्वारा बनाई गई तालिबान सेंक्शन कमेटी की एक रिपोर्ट में जैश-ए-मोहम्मद (JEM) और लश्कर (LeT) के सक्रिय होने की बात कही गई है. रिपोर्ट यूएन सुरक्षा काउंसिल को सौंपी गई है. रिपोर्ट के अनुसार दोनों ही आतंकी गुटों के प्रशिक्षण केंद्र अफगानिस्तान में खोले गए हैं. दोनों ही संगठन कश्मीर में सक्रिय हैं.
इस सुरक्षा वार्ता में भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने इन चिंताओं का उल्लेख किया. उन्होंने कहा कि अगर सुरक्षा चिंताओं का हल नहीं निकाला गया, तो युद्ध ग्रस्त अफगानिस्तान पूरे क्षेत्र के लिए खतरा बन सकता है. अफगानिस्तान को लेकर इन देशों की चिंताएं एक समान हैं. इसलिए उनके लक्ष्य भी एक जैसे हैं. वे समय रहते ही इसका हल भी चाहते हैं, खासकर पाकिस्तान में सत्ता परिवर्तन के बाद से उपजी स्थितियों के बाद.
यहां इसका उल्लेख जरूरी है कि पिछले साल नवंबर में नई दिल्ली द्वारा आयोजित एनएसए स्तर की वार्ता में चीन और पाकिस्तान दोनों ने शिरकत नहीं की थी. इमरान खान और तालिबान के बीच नजदीकी किसी से छिपी नहीं थी. और पाकिस्तान और चीन की नजदीकी के बारे में भी सबको पता है. इसलिए चीन अब तक निश्चिंत था. चीन शिनजियांग में मुस्लिमों (उइगर) की स्थिति को लेकर आश्वस्त रहता था. चीन को पाकिस्तान की सेना ने आश्वासन दे रखा था कि उनकी ओर से अतिवादी गुट शिनजियांग में हस्तक्षेप नहीं करेंगे.
चीन 'द ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट' (ईटीआईएम) के अफगानिस्तान में सक्रिय होने के बावजूद पाकिस्तान की वजह से आश्वस्त रहता था. लेकिन अब स्थिति बदल गई है. पाकिस्तान में इमरान सरकार नहीं है. ईटीआईएम चीन विरोधी रूख रखने के लिए जाना जाता है. ईटीआईएम का तालिबान के कमांडरों से अच्छे रिश्ते हैं. तालिबानी शासन जो खुद इनका समर्थन करता है, उससे यह उम्मीद करना कि वह चीन के उइगर समर्थकों पर लगाम लगाएगा, मुश्किल है.
पाकिस्तान के संकटग्रस्त पूर्व प्रधान मंत्री इमरान के पास अब शिनजियांग प्रांत के अलग-थलग पड़े मुसलमानों के खिलाफ 'धारणा प्रबंधन' (पर्सेपशन मैनेजमेंट) को प्रभावित करने की क्षमता नहीं है. ऐसी स्थिति में चीन के पास कोई विकल्प नहीं है. इसलिए वह दुशांबे वार्ता में शामिल हुआ. ईरान के बारे में भी ऐसा ही सच है. ईरान और अफगानिस्तान सीमा को साझा करते हैं. अफगानिस्तान के हजारा बहुल क्षेत्र में सुरक्षा को लेकर चिंताएं हैं. ईरान इससे चिंतित रहता है. हाल ही में यहां पर हजारा शिया को आतंकियों द्वारा टारगेट भी किया गया है.
संभावित खतरे से निपटने के लिए ईरान भी दुशांबे वार्ता को समाधान के रूप में देख रहा है. ईरान ने ताजिकिस्तान को अपना पहला विदेशी गंतव्य चुना, जहां पर वह सैन्य ड्रोन को बनाने के लिए निर्माण केंद्र स्थापित करेगा. इस ड्रोन का नाम है अबाबिल-2. अबाबिल एक पक्षी है, जिसका उल्लेख कुरान में वफादारों के रूप में किया गया है. अबाबिल दुश्मन के ठिकानों को निशाना बनाने में सक्षम होगा और उनकी गतिविधियों पर भी नजर रखेगा.
अमेरिका और ईरान के रेवोल्यूशनरी गार्ड्स के प्रति वफादार रहने वाले हजारा मुस्लिम लगातार भय के साये में रह रहे हैं. हाल ही में मजार-ए-शरीफ और कुछ अन्य जगहों पर हमले के कारण जो नुकसान हुए हैं, ईरान के लिए यह जरूरी हो गया है कि क्षेत्र में शक्तियों को संतुलित बनाए रहे. ईरान की तरह ही ताजिकिस्तान की स्थिति है. ताजिकिस्तान ने करीब दो दशक पहले अहमद शाह मसूद और अमरुल्लाह सालेह को लेकर एक स्टैंड लिया था. अफगानिस्तान के पड़ोसी देशों में यह पहला ऐसा देश था, जिसने सालेह और कमांडर मसूद को खुफिया बेस प्रदान किया था. तालिबान ने 2001 में पत्रकार के रूप में मसूद के यहां अपने आदमी भेजकर उनकी हत्या करवा दी थी. सालेह अब मसूद के बेटे के साथ मिलकर पंशीर में तालिबान का मुकाबला कर रहे हैं. सालेह भारत और अमेरिकी समर्थन का इंतजार कर रहे हैं.
ऐसे समय में जबकि तालिबान को पाकिस्तान से समर्थन नहीं मिल रहा है, भारत और उसके सहयोगियों के लिए यह उपयुक्त समय है कि वह अफगानिस्तान में समावेशी नेतृत्व पर जोर दे. पाकिस्तान की नई सरकार भारत से सीधे ही टकराने के मूड में नहीं दिखती है. बल्कि वह भारत के करीब आने की कोशिश कर रहा है. एक दिन पहले इमरान ने अपने भाषण में ऐसे ही आरोप लगाए हैं.
भारत के लिए यह बिल्कुल ही सही समय है कि वह ऐसी ताकतें जो शांति के लिए खतरा हैं, उनके प्रति आक्रामक राजनयिक हमले जारी करे. लेकिन भारत के लिए यह भी जरूरी है कि वह चीन के साथ न्यूट्रल संबंध रखे, ताकि शत्रुता न बढ़े. क्षेत्रीय शांति के लिए बातचीत जरूरी है. अगर इस गठबंधन के सहयोगियों के बीच निरंतर विचार विमर्श और एक्शन जारी रहा, तो निश्चित तौर यह शत्रुता को खत्म करने की ओर बड़ी पहल होगी.