ETV Bharat / bharat

Birthday Special : अपने को 3 मांओं का बेटा मानते थे डॉ. राही मासूम रज़ा, जानिए जिंदगी के दिलचस्प किस्से - डॉक्टर राही मासूम रज़ा

डॉक्टर राही मासूम रज़ा हिंदू-मुस्लिम एकता वाली गंगा जमुनी तहजीब की जीती जागती मिसाल थे और उन्होंने पूरे जीवन इस तहजीब को न सिर्फ जिंदा रखा, बल्कि आने वाली पीढ़ी को एक संदेश भी देकर गए.

Dr Rahi Masoom Raza Birthday Special
डॉक्टर राही मासूम रज़ा
author img

By

Published : Aug 31, 2022, 2:02 PM IST

Updated : Sep 1, 2022, 10:14 AM IST

नई दिल्ली : हिंदुस्तान में साहित्य और फिल्म जगत से जुड़े लोग डॉक्टर राही मासूम रज़ा (Dr Rahi Masoom Raza) को बखूबी जानते हैं. 1 सितंबर को उनका जन्मदिन है. आज इस मौके पर हम आपको उनके बारे में कुछ ऐसी बातें बताने की कोशिश कर रहे हैं, जिन्हें शायद आज की युवा पीढ़ी न जानती हो. डॉक्टर राही मासूम रज़ा हिंदू-मुस्लिम एकता वाली गंगा जमुनी तहजीब की जीती जागती मिसाल थे और उन्होंने पूरे जीवन इस तहजीब को न सिर्फ जिंदा रखा, बल्कि आने वाली पीढ़ी को एक संदेश भी देकर गए. उनके बचपन से लेकर और मुंबई की गलियों तक की कहानी को अगर देखेंगे तो उसमें हिंदू-मुस्लिम एकता के तमाम निशान मिलते नजर आएंगे. इस एकता की खशबू उनकी दोस्ती और सहयोगियों में भी दिखायी देती थी।

कल्लू काका का योगदान
बहुत सारे हिंदू साथियों के साथ थी और वह कभी भी इसको जताने की कोशिश नहीं की आपको बता देंगे डॉक्टर राही मासूम रज़ा का जन्म 1 सितंबर 1927 को गाजीपुर जिले के गंगौली गांव में हुआ था. कहा जाता है कि मात्र 11 साल की उम्र में उन्हें टीबी जैसी एक लाइलाज बीमारी हो गई थी. उस समय उन्होंने अपना समय बिताने के लिए घर की अलमारी में रखी सारी किताबें एक-एक करके पढ़ना शुरू कर दिया था. इतना ही नहीं उनका दिल बहलाने और उनको कहानियां सुनाने के लिए कल्लू काका को उनके साथ लगाया गया, जो उन्हें उनकी पसंद के किस्से और कहानियां सुनाया करते थे. कल्लू काका के असर को उन्होंने अपने जीवन में महसूस किया. डॉक्टर राही मासूम रज़ा ने एक बार खुद अपने साक्षात्कार में कहा था कि अगर उनके जीवन में कल्लू काका नहीं होते तो वह कोई कहानी इतनी आसानी से नहीं लिख पाते.

Dr Rahi Masoom Raza childhood
डॉक्टर राही मासूम रज़ा के बचपन की तस्वीर (सौ. सोशल मीडिया)

उनको जानने वाले लोगों का कहना है कि डॉक्टर राही मासूम रज़ा के पैर में पोलियो का असर था. इसलिए वह हल्का सा लंगड़ा कर चलते थे, लेकिन उनकी जबान में कोई खामी न थी. वह बहुत ही नफ़ीस उर्दू बोला करते थे और बहुत ही अच्छी भोजपुरी भी उनकी ज़बान से निकलती थी. कहा जाता है कि वह कभी भी अपने धर्म के प्रति इतने कट्टर नहीं दिखे, जैसा कि आमतौर पर माना जाता है. बहुत कम लोगों को यह पता होगा कि वह कभी चौकी या चटाई पर नहीं बैठते थे बल्कि खड़े होकर तकरीर के अंदाज में मजलिस पढ़ा करते थे.

Dr Rahi Masoom Raza Birthday Special
डॉक्टर राही मासूम रज़ा

मौलवी साहब से नहीं बनी
डॉक्टर राही मासूम रज़ा को करीब से जानने वाले लोगों ने बताया कि बचपन में अपनी टीबी की बीमारी से जब उनको कुछ राहत मिली तो उनको पढ़ाने के लिए मौलवी मुनव्वर नाम के एक अध्यापक को लगाया गया. लेकिन पढ़ाई के दौरान कभी भी उनकी अपने गुरु से नहीं बनी. डॉक्टर राही मासूम रज़ा और उनके मौलवी का स्वभाव एकदम अलग था.

डॉक्टर राही मासूम रज़ा के करीबी दोस्त कुंवर पाल सिंह ने उनकी जीवनी के बारे में बताया है कि मौलवी साहब राही की हरकतों को कभी पसंद नहीं किया करते थे. क्योंकि उन्हें पढ़ाई से ज्यादा पिटाई करने में मजा आता था, जबकि राही साहब पिटाई से बचने की कोशिश करते थे। कई बार पिटाई से बचने के लिए राही ने अपनी जेब खर्च के पैसे भी गुपचुप तरीके से मौलवी साहब को दे दिया करते थे. उन्होंने आगे बताया कि राही मासूम रजा पैसे और धन दौलत के पीछे कभी नहीं भागे. यह उनकी बचपन की आदत थी. वह जो भी पैसा पाते थे उसे झट से खर्च कर देते थे.

जिद सो पिता को ही हरा दिया चुनाव
डॉक्टर राही मासूम रज़ा के बचपन का एक और किस्सा काफी चर्चित है. जब पढ़ाई कर रहे थे तो उन दिनों वह पढ़ाई के साथ-साथ कम्युनिस्ट पार्टी के लिए भी काम करते थे. गाजीपुर में कम्युनिस्ट पार्टी के नगर पालिका अध्यक्ष पद के चुनाव होने थे तो उन्होंने अपने साथ काम करने वाले एक गरीब कामरेड पब्बर राम को चुनाव लड़ाने की तैयारी शुरू की. पब्बर राम एक भूमिहीन मज़दूर थे. राही और उनके बड़े भाई मूनिस रज़ा ने पब्बर कामरेड का चुनाव प्रचार करना शुरू किया. इस दौरान कांग्रेस पार्टी ने इस चुनाव को जीतने के लिए राही मासूम रज़ा के पिता और जिले के नामी गिरामी वकील बशीर हसन आबिदी को अपना उम्मीदवार घोषित कर दिया है. ऐसी स्थिति में दोनों भाइयों ने अपने पिता को समझाने की कोशिश की और कहा कि वह चुनाव न लड़ें. लेकिन उनके पिता बसीर साहब ने कांग्रेस पार्टी की सदस्यता और पार्टी नेताओं की आज्ञा का हवाला देते हुए कहा कि..'' मैं 1930 से कांग्रेसी हूं और पार्टी की आज्ञा का उल्लंघन नहीं कर पाऊंगा.''

Dr Rahi Masoom Raza daughter and grandson
अपनी बेटी व नाती के साथ (सौ. सोशल मीडिया)

ऐसे में जब उनके पिता चुनाव लड़ने के लिए पूरी तरह से तैयार दिखे तो तब राही मासूम रज़ा ने भी अपने पिता के सामने अपनी बात का खुलेआम ऐलान किया और कहा कि..'' हमारी भी मजबूरी है कि हम आपके खिलाफ पब्बर राम को चुनाव लड़वाएं.'' इसके बाद राही अपना सामान उठाकर पार्टी ऑफिस चले गए और पूरे तन मन से पब्बर राम के चुनाव प्रचार में जुटे. इसके बाद जब चुनाव के नतीजे आए तो पूरे जिले में एक संदेश चला गया कि कैसे एक भूमिहीन मजदूर ने जिले के सबसे बड़े मशहूर वकील को भारी बहुमत से हरा दिया. इस जीत में डॉक्टर राही मासूम रज़ा को अपने वसूलों की जीत दिखायी दी, भले ही उनके पिता चुनाव हार गए थे.

अलीगढ़ यूनिवर्सिटी तीसरी मां
डॉक्टर राही मासूम रज़ा को अलीगढ़ से लगाव क्यों था और क्या कुछ वह इसके बारे में कहते थे. इसकी भी अपनी कहानी है. वह अलीगढ़ यूनिवर्सिटी को अपनी तीसरी मां कहा करते थे. डॉक्टर राही मासूम रज़ा ने अपने उच्च शिक्षा अलीगढ़ मुस्लिम विद्यालय से की और वहीं से उन्होंने अपनी पीएचडी भी पूरी की. डॉक्टर राही मासूम रज़ा अलीगढ़ विश्वविद्यालय के सबसे लोकप्रिय शख्सियतों में से एक थे. इतना ही नहीं वह छात्र-छात्राओं में भी काफी लोकप्रिय थे. अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में उनकी मुलाकात नय्यरा से हुई थी, जिससे उन्होंने शादी की.

Dr Rahi Masoom Raza with wife
अपनी पत्नी के साथ डॉ. राही (सौ. सोशल मीडिया)

डॉक्टर राही मासूम रज़ा साहब के बारे में यह भी कहा जाता है कि वह बहुत सारे मामलों में 'नान कंप्रोमाइजिंग' किस्म के इंसान थे. इसीलिए उर्दू विभाग में नौकरी के दौरान भी उनके कई लोगों से मतभेद बने रहे. इसी वजह से उन्हें अलीगढ़ को छोड़ना पड़ा और मुंबई का रुख करना पड़ा.

दो साहित्यकार दोस्त
कहा जाता है कि 1967 की शुरुआत में वह मुंबई चले गए, जहां पर उन्होंने शुरुआती दौर में कई मुश्किलों का सामना किया. उनके मुश्किल हालात में उनके दो साहित्यकार साथियों ने मदद की. जिससे वह धीरे-धीरे मुंबई में पैर जमाना शुरू कर सके. वह दो साहित्यकार साथी धर्मवीर भारती और कमलेश्वर थे, जिन्होंने उनके संघर्ष के समय में उनकी मदद की थी. धर्मवीर भारती 'धर्म युग' के संपादक थे और कमलेश्वर 'सारिका' के संपादक. इन दोनों ने डॉक्टर राही मासूम रज़ा की उस समय मदद की जब उनके पास आमदनी का कोई और जरिया नहीं था. इन दोनों साहित्यकारों और मित्रों ने उनको कहानी लिखने का एडवांस पेमेंट भी दिया, ताकि उनकी रोजी-रोटी चलती रहे. इतना ही नहीं इसके बाद इन दोनों ने ही उन्हें फिल्म के निर्माता और निर्देशकों के साथ मुलाकात कराई. बीआर चोपड़ा तथा राज खोसला जैसे बड़े नामचीन फिल्मकारों से मुलाकात कराकर उनकी फिल्मी दुनिया में एंट्री करवाई. कुछ समय बाद ही डॉक्टर राही मासूम रज़ा हिंदी फिल्म जगत के चोटी के पटकथा लेखकों में शुमार हो गए.

बहाने बनाकर खाना खाने आते थे नसीरुद्दीन व ओम पुरी
डॉक्टर राही मासूम रज़ा दिल के बहुत अच्छे इंसान थे. उनका घर छोटा भले ही था, लेकिन उनका दरवाजा अक्सर आने वालों के लिए 24 घंटे खुला रहता था. डॉक्टर राही मासूम रज़ा के बेटे, जो कि खुद बड़े सिनेमा फोटोग्राफर हैं, उन्होंने बताया कि ''बचपन में जहां वो रहा करते थे, तब उनके पास केवल ढाई कमरे का फ्लैट था, लेकिन उसकी एक खास बात थी कि उसका दरवाजा 24 घंटे हर किसी के लिए खुला रहता था. दोपहर में अक्सर दस्तरखान बिछाकर हम लोग खाना खाया करते थे. उस समय घर में चाहे 10 लोग आ जाएं या 15 लोग, हमेशा उन्हें खाना खिलाया जाता था. इस दौरान कभी भी खाने की कमी नहीं हुई.'' उनके बेटे ने बताया कि ''पुणे फिल्म इंस्टीट्यूट के कई सारे साथी अक्सर अच्छा खाना खाने के लिए उनके घर आया करते थे. उनकी मां बड़े चाव से सबको खाना खिलाती थीं. उस दौरान नसीरुद्दीन शाह और ओमपुरी जैसे कलाकार उनके घर आते थे. इन दोनों को जब भी अच्छा खाना खाने का मन करता था, कोई ना कोई बहाना बनाकर घर में आ जाते थे.''

एक साथ कई काम करने का हुनर
डॉक्टर राही मासूम रज़ा की एक और खास बात थी कि जब वह काम के प्रति तल्लीन होते थे तो उन्हें किसी भी प्रकार का कोई अवरोध प्रभावित नहीं कर पाता था और वह शोर-शराबे और गीत-संगीत के बीच भी अपनी स्क्रिप्ट लिख दिया करते थे. इतना ही नहीं अपने घर में तकिए पर लेट कर वह एक साथ में 4 से 5 स्क्रिप्ट पर काम किया करते थे. इस दौरान घर में आने जाने वाले लोगों से भी उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता था. ऐसा भी कहा जाता है कि उनके घर में कव्वालियां भी हमेशा मध्यम संगीत के रुप में बजा करती थीं. इन सबसे कभी भी डॉक्टर राही का ध्यान भंग नहीं होता था.

Dr Rahi Masoom Raza family
अपने परिवार के साथ राही मासूम रजा ( (सौ. सोशल मीडिया))

आप सबको महाभारत लिखने की कहानी पता ही होगी कि किस तरह से डॉक्टर राही मासूम रज़ा ने पहले महाभारत को लिखने से पहले मना कर दिया और उसके बाद कैसे इसे स्वीकार किया है. 'मैं समय हूं' और 'गंगा पुत्र भीष्म' का किरदार उन्हीं की कलम की देन है.

इसे भी देखें : डॉ. राही मासूम रजा और महाभारत के डायलॉग लिखने की कहानी

एक स्क्रिप्ट की कीमत
डॉक्टर राही मासूम रज़ा के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने किसी काम के लिए पैसे की कभी भी कोई डिमांड नहीं रखी और कभी भी पैसे को देख कर काम करने से मना नहीं किया. वह सारा काम अपने दिल से किया करते थे. किसी भी काम के लिए उन्होंने पैसा मांगना मुनासिब नहीं समझा. हालांकि उनके परिवार के लोग इस बात से खुश नहीं रहते थे. लेकिन उन्होंने इन सब चीजों की कोई परवाह नहीं की.

उनके बेटे नदीम खान बताते हैं कि ''कोई भी बंदा उनसे स्क्रिप्ट लिखवाने के लिए जाता था, तो उससे पैसे की कोई बात नहीं करते थे. अक्सर कोई उनके घर 1 किलो कलाकंद लेकर आया तो उसके लिए भी वह पूरी फिल्म की कहानी लिख दिया करते थे. इतना ही नहीं पान के शौकीन रज़ा साहब एक बीड़ा पान लाने वालों की भी स्क्रिप्ट लिख दिया करते थे.''

धार्मिक कट्टरता के विरोधी
डॉक्टर राही मासूम रज़ा धर्म को संकीर्ण नजरिए से देखने वालों से हमेशा 36 का आंकड़ा रहते थे और वह कभी भी धर्म को इस तरह से नहीं देखा जाना पसंद नहीं करते थे. उन्होंने खुद एक बार लिखा था कि वह चाहते हैं कि बाबरी मस्जिद और राम जन्मभूमि दोनों को गिरा कर उसके जगह एक राम बाबरी पार्क बना देना चाहिए. उनकी एक गंगा जमुनी तहजीब की मशहूर नज़्म है, जो लोगों को अक्सर पसंद आती है.

'मेरा नाम मुसलमानों जैसा है

क़त्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो

लेकिन मेरी रग-रग में गंगा का पानी दौड़ रहा है

मेरे लहू से चुल्लू भर महादेव के मुंह पर फेंको

और उस योगी से कह दो—महादेव

अब इस गंगा को वापस ले लो

यह ज़लील तुर्कों के बदन में गाढ़ा गरम

लहू बन कर दौड़ रही है।'

डॉक्टर राही मासूम रज़ा कहते थे कि धर्मनिरपेक्षता हमारे देश की पहचान है और गंगा सबकी है. गंगा किसी एक धर्म में कैद नहीं की जानी चाहिए. उन्होंने लिखा था कि ''मैं 3 मांओं का बेटा हूं. नफीसा बेगम. अलीगढ़ यूनिवर्सिटी और गंगा. नफीसा बेगम तो मर चुकी हैं. अब याद नहीं आतीं. बाकी दोनों मां जिंदा हैं और याद भी हैं.

ऐसी ही ज़रूरी और विश्वसनीय ख़बरों के लिए डाउनलोड करें ईटीवी भारत एप

नई दिल्ली : हिंदुस्तान में साहित्य और फिल्म जगत से जुड़े लोग डॉक्टर राही मासूम रज़ा (Dr Rahi Masoom Raza) को बखूबी जानते हैं. 1 सितंबर को उनका जन्मदिन है. आज इस मौके पर हम आपको उनके बारे में कुछ ऐसी बातें बताने की कोशिश कर रहे हैं, जिन्हें शायद आज की युवा पीढ़ी न जानती हो. डॉक्टर राही मासूम रज़ा हिंदू-मुस्लिम एकता वाली गंगा जमुनी तहजीब की जीती जागती मिसाल थे और उन्होंने पूरे जीवन इस तहजीब को न सिर्फ जिंदा रखा, बल्कि आने वाली पीढ़ी को एक संदेश भी देकर गए. उनके बचपन से लेकर और मुंबई की गलियों तक की कहानी को अगर देखेंगे तो उसमें हिंदू-मुस्लिम एकता के तमाम निशान मिलते नजर आएंगे. इस एकता की खशबू उनकी दोस्ती और सहयोगियों में भी दिखायी देती थी।

कल्लू काका का योगदान
बहुत सारे हिंदू साथियों के साथ थी और वह कभी भी इसको जताने की कोशिश नहीं की आपको बता देंगे डॉक्टर राही मासूम रज़ा का जन्म 1 सितंबर 1927 को गाजीपुर जिले के गंगौली गांव में हुआ था. कहा जाता है कि मात्र 11 साल की उम्र में उन्हें टीबी जैसी एक लाइलाज बीमारी हो गई थी. उस समय उन्होंने अपना समय बिताने के लिए घर की अलमारी में रखी सारी किताबें एक-एक करके पढ़ना शुरू कर दिया था. इतना ही नहीं उनका दिल बहलाने और उनको कहानियां सुनाने के लिए कल्लू काका को उनके साथ लगाया गया, जो उन्हें उनकी पसंद के किस्से और कहानियां सुनाया करते थे. कल्लू काका के असर को उन्होंने अपने जीवन में महसूस किया. डॉक्टर राही मासूम रज़ा ने एक बार खुद अपने साक्षात्कार में कहा था कि अगर उनके जीवन में कल्लू काका नहीं होते तो वह कोई कहानी इतनी आसानी से नहीं लिख पाते.

Dr Rahi Masoom Raza childhood
डॉक्टर राही मासूम रज़ा के बचपन की तस्वीर (सौ. सोशल मीडिया)

उनको जानने वाले लोगों का कहना है कि डॉक्टर राही मासूम रज़ा के पैर में पोलियो का असर था. इसलिए वह हल्का सा लंगड़ा कर चलते थे, लेकिन उनकी जबान में कोई खामी न थी. वह बहुत ही नफ़ीस उर्दू बोला करते थे और बहुत ही अच्छी भोजपुरी भी उनकी ज़बान से निकलती थी. कहा जाता है कि वह कभी भी अपने धर्म के प्रति इतने कट्टर नहीं दिखे, जैसा कि आमतौर पर माना जाता है. बहुत कम लोगों को यह पता होगा कि वह कभी चौकी या चटाई पर नहीं बैठते थे बल्कि खड़े होकर तकरीर के अंदाज में मजलिस पढ़ा करते थे.

Dr Rahi Masoom Raza Birthday Special
डॉक्टर राही मासूम रज़ा

मौलवी साहब से नहीं बनी
डॉक्टर राही मासूम रज़ा को करीब से जानने वाले लोगों ने बताया कि बचपन में अपनी टीबी की बीमारी से जब उनको कुछ राहत मिली तो उनको पढ़ाने के लिए मौलवी मुनव्वर नाम के एक अध्यापक को लगाया गया. लेकिन पढ़ाई के दौरान कभी भी उनकी अपने गुरु से नहीं बनी. डॉक्टर राही मासूम रज़ा और उनके मौलवी का स्वभाव एकदम अलग था.

डॉक्टर राही मासूम रज़ा के करीबी दोस्त कुंवर पाल सिंह ने उनकी जीवनी के बारे में बताया है कि मौलवी साहब राही की हरकतों को कभी पसंद नहीं किया करते थे. क्योंकि उन्हें पढ़ाई से ज्यादा पिटाई करने में मजा आता था, जबकि राही साहब पिटाई से बचने की कोशिश करते थे। कई बार पिटाई से बचने के लिए राही ने अपनी जेब खर्च के पैसे भी गुपचुप तरीके से मौलवी साहब को दे दिया करते थे. उन्होंने आगे बताया कि राही मासूम रजा पैसे और धन दौलत के पीछे कभी नहीं भागे. यह उनकी बचपन की आदत थी. वह जो भी पैसा पाते थे उसे झट से खर्च कर देते थे.

जिद सो पिता को ही हरा दिया चुनाव
डॉक्टर राही मासूम रज़ा के बचपन का एक और किस्सा काफी चर्चित है. जब पढ़ाई कर रहे थे तो उन दिनों वह पढ़ाई के साथ-साथ कम्युनिस्ट पार्टी के लिए भी काम करते थे. गाजीपुर में कम्युनिस्ट पार्टी के नगर पालिका अध्यक्ष पद के चुनाव होने थे तो उन्होंने अपने साथ काम करने वाले एक गरीब कामरेड पब्बर राम को चुनाव लड़ाने की तैयारी शुरू की. पब्बर राम एक भूमिहीन मज़दूर थे. राही और उनके बड़े भाई मूनिस रज़ा ने पब्बर कामरेड का चुनाव प्रचार करना शुरू किया. इस दौरान कांग्रेस पार्टी ने इस चुनाव को जीतने के लिए राही मासूम रज़ा के पिता और जिले के नामी गिरामी वकील बशीर हसन आबिदी को अपना उम्मीदवार घोषित कर दिया है. ऐसी स्थिति में दोनों भाइयों ने अपने पिता को समझाने की कोशिश की और कहा कि वह चुनाव न लड़ें. लेकिन उनके पिता बसीर साहब ने कांग्रेस पार्टी की सदस्यता और पार्टी नेताओं की आज्ञा का हवाला देते हुए कहा कि..'' मैं 1930 से कांग्रेसी हूं और पार्टी की आज्ञा का उल्लंघन नहीं कर पाऊंगा.''

Dr Rahi Masoom Raza daughter and grandson
अपनी बेटी व नाती के साथ (सौ. सोशल मीडिया)

ऐसे में जब उनके पिता चुनाव लड़ने के लिए पूरी तरह से तैयार दिखे तो तब राही मासूम रज़ा ने भी अपने पिता के सामने अपनी बात का खुलेआम ऐलान किया और कहा कि..'' हमारी भी मजबूरी है कि हम आपके खिलाफ पब्बर राम को चुनाव लड़वाएं.'' इसके बाद राही अपना सामान उठाकर पार्टी ऑफिस चले गए और पूरे तन मन से पब्बर राम के चुनाव प्रचार में जुटे. इसके बाद जब चुनाव के नतीजे आए तो पूरे जिले में एक संदेश चला गया कि कैसे एक भूमिहीन मजदूर ने जिले के सबसे बड़े मशहूर वकील को भारी बहुमत से हरा दिया. इस जीत में डॉक्टर राही मासूम रज़ा को अपने वसूलों की जीत दिखायी दी, भले ही उनके पिता चुनाव हार गए थे.

अलीगढ़ यूनिवर्सिटी तीसरी मां
डॉक्टर राही मासूम रज़ा को अलीगढ़ से लगाव क्यों था और क्या कुछ वह इसके बारे में कहते थे. इसकी भी अपनी कहानी है. वह अलीगढ़ यूनिवर्सिटी को अपनी तीसरी मां कहा करते थे. डॉक्टर राही मासूम रज़ा ने अपने उच्च शिक्षा अलीगढ़ मुस्लिम विद्यालय से की और वहीं से उन्होंने अपनी पीएचडी भी पूरी की. डॉक्टर राही मासूम रज़ा अलीगढ़ विश्वविद्यालय के सबसे लोकप्रिय शख्सियतों में से एक थे. इतना ही नहीं वह छात्र-छात्राओं में भी काफी लोकप्रिय थे. अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में उनकी मुलाकात नय्यरा से हुई थी, जिससे उन्होंने शादी की.

Dr Rahi Masoom Raza with wife
अपनी पत्नी के साथ डॉ. राही (सौ. सोशल मीडिया)

डॉक्टर राही मासूम रज़ा साहब के बारे में यह भी कहा जाता है कि वह बहुत सारे मामलों में 'नान कंप्रोमाइजिंग' किस्म के इंसान थे. इसीलिए उर्दू विभाग में नौकरी के दौरान भी उनके कई लोगों से मतभेद बने रहे. इसी वजह से उन्हें अलीगढ़ को छोड़ना पड़ा और मुंबई का रुख करना पड़ा.

दो साहित्यकार दोस्त
कहा जाता है कि 1967 की शुरुआत में वह मुंबई चले गए, जहां पर उन्होंने शुरुआती दौर में कई मुश्किलों का सामना किया. उनके मुश्किल हालात में उनके दो साहित्यकार साथियों ने मदद की. जिससे वह धीरे-धीरे मुंबई में पैर जमाना शुरू कर सके. वह दो साहित्यकार साथी धर्मवीर भारती और कमलेश्वर थे, जिन्होंने उनके संघर्ष के समय में उनकी मदद की थी. धर्मवीर भारती 'धर्म युग' के संपादक थे और कमलेश्वर 'सारिका' के संपादक. इन दोनों ने डॉक्टर राही मासूम रज़ा की उस समय मदद की जब उनके पास आमदनी का कोई और जरिया नहीं था. इन दोनों साहित्यकारों और मित्रों ने उनको कहानी लिखने का एडवांस पेमेंट भी दिया, ताकि उनकी रोजी-रोटी चलती रहे. इतना ही नहीं इसके बाद इन दोनों ने ही उन्हें फिल्म के निर्माता और निर्देशकों के साथ मुलाकात कराई. बीआर चोपड़ा तथा राज खोसला जैसे बड़े नामचीन फिल्मकारों से मुलाकात कराकर उनकी फिल्मी दुनिया में एंट्री करवाई. कुछ समय बाद ही डॉक्टर राही मासूम रज़ा हिंदी फिल्म जगत के चोटी के पटकथा लेखकों में शुमार हो गए.

बहाने बनाकर खाना खाने आते थे नसीरुद्दीन व ओम पुरी
डॉक्टर राही मासूम रज़ा दिल के बहुत अच्छे इंसान थे. उनका घर छोटा भले ही था, लेकिन उनका दरवाजा अक्सर आने वालों के लिए 24 घंटे खुला रहता था. डॉक्टर राही मासूम रज़ा के बेटे, जो कि खुद बड़े सिनेमा फोटोग्राफर हैं, उन्होंने बताया कि ''बचपन में जहां वो रहा करते थे, तब उनके पास केवल ढाई कमरे का फ्लैट था, लेकिन उसकी एक खास बात थी कि उसका दरवाजा 24 घंटे हर किसी के लिए खुला रहता था. दोपहर में अक्सर दस्तरखान बिछाकर हम लोग खाना खाया करते थे. उस समय घर में चाहे 10 लोग आ जाएं या 15 लोग, हमेशा उन्हें खाना खिलाया जाता था. इस दौरान कभी भी खाने की कमी नहीं हुई.'' उनके बेटे ने बताया कि ''पुणे फिल्म इंस्टीट्यूट के कई सारे साथी अक्सर अच्छा खाना खाने के लिए उनके घर आया करते थे. उनकी मां बड़े चाव से सबको खाना खिलाती थीं. उस दौरान नसीरुद्दीन शाह और ओमपुरी जैसे कलाकार उनके घर आते थे. इन दोनों को जब भी अच्छा खाना खाने का मन करता था, कोई ना कोई बहाना बनाकर घर में आ जाते थे.''

एक साथ कई काम करने का हुनर
डॉक्टर राही मासूम रज़ा की एक और खास बात थी कि जब वह काम के प्रति तल्लीन होते थे तो उन्हें किसी भी प्रकार का कोई अवरोध प्रभावित नहीं कर पाता था और वह शोर-शराबे और गीत-संगीत के बीच भी अपनी स्क्रिप्ट लिख दिया करते थे. इतना ही नहीं अपने घर में तकिए पर लेट कर वह एक साथ में 4 से 5 स्क्रिप्ट पर काम किया करते थे. इस दौरान घर में आने जाने वाले लोगों से भी उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता था. ऐसा भी कहा जाता है कि उनके घर में कव्वालियां भी हमेशा मध्यम संगीत के रुप में बजा करती थीं. इन सबसे कभी भी डॉक्टर राही का ध्यान भंग नहीं होता था.

Dr Rahi Masoom Raza family
अपने परिवार के साथ राही मासूम रजा ( (सौ. सोशल मीडिया))

आप सबको महाभारत लिखने की कहानी पता ही होगी कि किस तरह से डॉक्टर राही मासूम रज़ा ने पहले महाभारत को लिखने से पहले मना कर दिया और उसके बाद कैसे इसे स्वीकार किया है. 'मैं समय हूं' और 'गंगा पुत्र भीष्म' का किरदार उन्हीं की कलम की देन है.

इसे भी देखें : डॉ. राही मासूम रजा और महाभारत के डायलॉग लिखने की कहानी

एक स्क्रिप्ट की कीमत
डॉक्टर राही मासूम रज़ा के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने किसी काम के लिए पैसे की कभी भी कोई डिमांड नहीं रखी और कभी भी पैसे को देख कर काम करने से मना नहीं किया. वह सारा काम अपने दिल से किया करते थे. किसी भी काम के लिए उन्होंने पैसा मांगना मुनासिब नहीं समझा. हालांकि उनके परिवार के लोग इस बात से खुश नहीं रहते थे. लेकिन उन्होंने इन सब चीजों की कोई परवाह नहीं की.

उनके बेटे नदीम खान बताते हैं कि ''कोई भी बंदा उनसे स्क्रिप्ट लिखवाने के लिए जाता था, तो उससे पैसे की कोई बात नहीं करते थे. अक्सर कोई उनके घर 1 किलो कलाकंद लेकर आया तो उसके लिए भी वह पूरी फिल्म की कहानी लिख दिया करते थे. इतना ही नहीं पान के शौकीन रज़ा साहब एक बीड़ा पान लाने वालों की भी स्क्रिप्ट लिख दिया करते थे.''

धार्मिक कट्टरता के विरोधी
डॉक्टर राही मासूम रज़ा धर्म को संकीर्ण नजरिए से देखने वालों से हमेशा 36 का आंकड़ा रहते थे और वह कभी भी धर्म को इस तरह से नहीं देखा जाना पसंद नहीं करते थे. उन्होंने खुद एक बार लिखा था कि वह चाहते हैं कि बाबरी मस्जिद और राम जन्मभूमि दोनों को गिरा कर उसके जगह एक राम बाबरी पार्क बना देना चाहिए. उनकी एक गंगा जमुनी तहजीब की मशहूर नज़्म है, जो लोगों को अक्सर पसंद आती है.

'मेरा नाम मुसलमानों जैसा है

क़त्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो

लेकिन मेरी रग-रग में गंगा का पानी दौड़ रहा है

मेरे लहू से चुल्लू भर महादेव के मुंह पर फेंको

और उस योगी से कह दो—महादेव

अब इस गंगा को वापस ले लो

यह ज़लील तुर्कों के बदन में गाढ़ा गरम

लहू बन कर दौड़ रही है।'

डॉक्टर राही मासूम रज़ा कहते थे कि धर्मनिरपेक्षता हमारे देश की पहचान है और गंगा सबकी है. गंगा किसी एक धर्म में कैद नहीं की जानी चाहिए. उन्होंने लिखा था कि ''मैं 3 मांओं का बेटा हूं. नफीसा बेगम. अलीगढ़ यूनिवर्सिटी और गंगा. नफीसा बेगम तो मर चुकी हैं. अब याद नहीं आतीं. बाकी दोनों मां जिंदा हैं और याद भी हैं.

ऐसी ही ज़रूरी और विश्वसनीय ख़बरों के लिए डाउनलोड करें ईटीवी भारत एप

Last Updated : Sep 1, 2022, 10:14 AM IST
ETV Bharat Logo

Copyright © 2025 Ushodaya Enterprises Pvt. Ltd., All Rights Reserved.