देहरादूनः उत्तराखंड में लगातार मौसम में बदलाव और साल दर साल तापमान में वृद्धि किसी खतरे का संकेत दे रही है. उत्तराखंड में बीते कई सालों में लगातार कार्बन डाइऑक्साइड गैस तेजी से बढ़ा है. जिसका असर यहां के पारिस्थितिकी तंत्र पर देखने को मिल रहा है. वैज्ञानिक भी मौसम में बदलाव और रिसर्च के नतीजों के बाद बेहद चिंतित हैं. उनका मानना है कि अगर ऐसा ही चलता रहा तो भविष्य में बहुत बुरे परिणाम देखने को मिल सकते हैं.
मौसम की मार सबसे अधिक ग्लेशियर परः जानकारों की मानें तो उत्तराखंड में लगातार ऋतु परिवर्तन के संकेत मिल रहे हैं. यह संकेत एक दो नहीं बल्कि कई तरह से देखे जा सकते हैं. सबसे ज्यादा मौसम परिवर्तन का असर हिमालय क्षेत्र के ग्लेशियरों पर पड़ रहा है. खासकर उत्तराखंड के वो ग्लेशियर जो आधे हिंदुस्तान को ताजा पानी और आबोहवा देते हैं.
उत्तराखंड के उत्तरकाशी हो या फिर चमोली या पिथौरागढ़ हो या फिर अल्मोड़ा ये वो जिले हैं. जिनके अंतिम गांव ग्लेशियरों के नजदीक हैं. गंगोत्री ग्लेशियर इनमें सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण ग्लेशियर माना जाता है. यहीं से गंगा निकलती है. यानी गौमुख ग्लेशियर ही गंगा नदी का उद्गम स्थल है, लेकिन जलवायु परिवर्तन का असर इस ग्लेश्यर पर पड़ा है. पिछले कई दशकों में यह ग्लेशियर पीछे खिसका है.
भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण साल 1870 से गंगोत्री ग्लेशियर के पीछे हटने की वजह जानने की कोशिश कर रहा है. एक आंकड़े के मुताबिक, गंगोत्री ग्लेशियर (Gangotri Glacier Melting) 60 से 70 प्रतिशत तेजी से पीछे हट रही है. वैज्ञानिकों का मानना है कि जलवायु में परिवर्तन और तापमान में वृद्धि की वजह से हिमालय में अधिकांश ग्लेशियर पिघलने की कगार पर है.
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इसी साल केंद्र सरकार में मंत्री भूपेंद्र यादव ने भी राज्यसभा में जो आंकड़े पेश किए थे, वो बेहद चौंकाने वाले थे. केंद्र सरकार ने बताया था कि बीते 15 सालों में लगभग 0.23 वर्ग किलोमीटर ग्लेशियर पीछे हट गए हैं. इतना ही नहीं उसके बाद केंद्र सरकार ने इसरो को गंगोत्री ग्लेशियर समेत तमाम ग्लेशियरों पर अध्ययन करने के लिए कहा था.
बाद में केंद्र सरकार ने इसरो का जो आंकड़ा पेश किया था. वो भी यह बता रहा था कि साल 2001 से लेकर साल 2016 तक यानी इन 15 साल में गंगोत्री ग्लेशियर 0.23 वर्ग किलोमीटर पिघल गया है. जो ठीक संकेत नहीं है. मौजूदा समय में वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान (Wadia Institute of Himalayan Geology Dehradun) हो या फिर अन्य संस्थान के वैज्ञानिक उत्तराखंड में तेजी से पिघल रहे ग्लेशियरों की सबसे वजह ब्लैक कार्बन को मानते हैं.
पर्यावरण वैज्ञानिक प्रोफेसर आरसी शर्मा (Environmental Scientist Professor RC Sharma) बताते हैं कि गंगोत्री ग्लेशियर लगातार 20 से 22 मीटर पीछे खिसक रहा है. यह सिलसिला 5 साल में देखा जा सकता है. इतना ही नहीं कुमाऊं के पिंडर ग्लेशियर भी पिछले 40 साल पहले जिस स्थान पर था, अब उस स्थान से 5 किलोमीटर अंदर यह ग्लेशियर चला गया है. यह न केवल उत्तराखंड बल्कि, भविष्य में देश और दुनिया के लिए भी अच्छे संकेत नहीं है.
उत्तराखंड में ग्लेशियरः उत्तराखंड एक आंकड़े के मुताबिक, 23 ग्लेशियर हैं. जिनमें गंगोत्री, भागीरथी, खतलिंग, चौराबाड़ी, बंदरपूंछ, काली नामिक हीरामणि, पिनौरा, रालम, पोटिंग, सुंदरढुंगी, सुखराम, कफनी, मैकतोली, यमुनोत्री, डोरियानी केदारनाथ, पिंडारी, मिलम, सतोपंथ, दूनागिरी, बदरीनाथ इन ग्लेशियरों से ही गंगा, यमुना, अलकनंदा, पिंडारी समेत अन्य नदियां निकल कर आधी आबादी की प्यास बुझाती है.
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विदेशी पक्षियों में आ रहा है बदलावः ऐसा नहीं है कि उत्तराखंड में ऋतु परिवर्तन की वजह से सिर्फ इसका असर ग्लेशियर के ऊपर ही पड़ रहा है, बल्कि सीधे तौर पर अगर देखा जाए तो उत्तराखंड में पनपने वाले खूबसूरत वनस्पतियों और पक्षियों पर भी इसका असर देखने को मिल रहा है. प्रोफेसर और अंतरराष्ट्रीय पक्षी वैज्ञानिक डॉक्टर दिनेश चंद्र वायुमंडल में लगातार बढ़ते तापमान का असर सालों से वो उत्तराखंड में आने वाले प्रवासी पक्षियों के रूप में भी देखते हैं.
दिनेश चंद्र कहते हैं कि इसमें कोई दो राय नहीं है कि मौसम का सबसे अधिक असर अगर किसी पर पड़ रहा है तो वो यहां के ग्लेशियर हैं, लेकिन प्रकृति को संजो कर रखने में अगर पहाड़ों का योगदान है तो पक्षियों का भी उतना ही योगदान है. पहले उत्तराखंड के तमाम हिस्सों में विदेशी यानी प्रवासी पक्षी हर साल आया करते थे.
इनके आने का समय पिछले 3 साल पहले तक अप्रैल महीने का होता था. यह तमाम खूबसूरत पक्षी अप्रैल महीने के पहले हफ्ते में ही उत्तराखंड के हरिद्वार, देहरादून, पांवटा साहिब कुमाऊं के अलग-अलग क्षेत्रों और उनसे जुड़ी नदियों में देखे जाते थे. इन विदेश मेहमानों को देखने के लिए दूरदराज से लोग भी आया करते थे, लेकिन अब इन परिदों के प्रवास में बदलाव देखा गया है.
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वाइल्डलाइफ डॉक्यूमेंट्री एक्सपर्ट इन पर कई डॉक्यूमेंट्री भी बना चुके हैं, लेकिन अब ऐसा हो गया है कि इन पक्षियों के आने की संख्या में तो कमी आई है. साथ ही अब यह अप्रैल महीने में नहीं बल्कि नवंबर महीने में आते हैं. जो मार्च के अंतिम हफ्ते तक वापस चले जाते हैं. उनका कहना है कि यह समय इनके प्रजनन के लिए सही नहीं रहता, लिहाजा लगातार तेजी से इन पक्षियों की संख्या में भी कमी देखी जा रही है. यह सीधे तौर पर जलवायु परिवर्तन का असर ही है.
भयानक होगा ग्लेशियर पिघलने का असरः आमतौर पर हम ग्लेशियरों के पिघलने की खबरों को नजर अंदाज कर लेते हैं. इसकी वजह ये है कि हमारा सीधे तौर पर इससे सरोकार नहीं है, लेकिन हमे इस गलतफहमी से बाहर आना होगा. ग्लेशियरों का पिघलना कितना खतरनाक है. इसे गंभीरता से लेना होगा.
अगर ग्लेशियर इतनी ही तेजी से पिघलते रहे तो देश के कई हिस्से बाढ़ की चपेट में आ जाएंगे. इतना ही नहीं केदरनाथ की आपदा भी ग्लेशियर पिघलने के कारणों में से एक माना जाता है. इसके अलावा चमोली के रैणी आपदा को भी इसकी वजह माना जाता है. ग्लेशियर पिघलने की रफ्तार में तेजी आई तो सागरों में पानी की मात्रा बढ़ जाएगी. समुद्र किनारे बसे महानगर जलमग्न हो जाएंगे.
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उधर, ग्लेशियरों के पिघलने से जीवदायनी नदियों का पानी आने वाले समय में कम हो जाएगा. जिसका नतीजा ये होगा कि भविष्य में संकट पैदा हो जाएगा. खेती से लेकर बिजली उत्पादन में कमी आएगी. ऐसा नहीं है कि वैश्विक स्तर इस ओर ध्यान नहीं दिया जा रहा है, इस पर प्रयास तो किए जाए रहे हैं, लेकिन वो नाकाफी साबित हो रहा है.
पेरिस में हुए समझौते में जब ग्लेशियरों के पिघलने पर बात हुई तो जानकारी आई की दुनिया के ग्लेशियर साल 2100 तक काफी हद तक पिघल जाएंगे. हालांकि, दुनियाभर के देश इस प्रयास में है की ग्लोबल वार्मिंग को डेढ़ डिग्री तक कम किया जाए और इसके लिए प्रयास लगातार जारी है, लेकिन सभी को जलवायु परिवर्तन को गंभीरता से लेना होगा.
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