चेन्नई : तमिलनाडु चुनाव की एक खासियत है. मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए टीवी और फ्रीज जैसी वस्तुओं को मुफ्त में बांटे जाने की घोषणा की जाती है. इसमें पक्ष और विपक्ष दोनों ही पार्टियां शामिल होती हैं. चुनाव के बाद कई पार्टियां इसे यथासंभव पूरा करने का दावा भी करती हैं. कई बार देखा गया है कि चुनाव से पहले भी ऐसी वस्तुओं का वितरण किया जाता है. इस बार भी एआईएडीएमके और डीएमके, दोनों ही प्रमुख पार्टियों ने घोषणापत्रों में ऐसा वादा किया है.
जाहिर है, ऐसे में एक सवाल बार-बार जेहन में उठता है. वह यह है कि इसका राज्यकोष पर कितना प्रभाव पड़ता है. पैसे कहां से आएंगे. इस मुद्दे पर एक पूरी वित्तीय बहस छिड़ी हुई है.
2006 में तत्कालीन डीएमके प्रमुख एमके करुणानिधि ने घोषणापत्र में रंगीन टीवी का भरोसा दिया था. उसके बाद से हर चुनाव में पार्टियां इस तरह के वादे करती आ रहीं हैं. कोई लैपटॉप देने की बात करता है, तो कोई मिक्सर ग्राइंडर की. इस बार तो मंगलसूत्र बांटने तक की घोषणा कर दी गई है.
ऐसा नहीं है कि इसके लिए किसी एक पार्टी जिम्मेदार ठहराया जाए. हरेक पार्टी ऐसा करती है. कुछ ने नागरिकता संशोधन कानून के रद्द करने का भरोसा जताया है. एक पार्टी ने कहा है कि वह राजीव गांधी के हत्यारे को रिहा करवा देंगी.
आपको बता दें कि तमिलनाडु में डीएमके और एआईएडीएमके मुख्य पार्टियां हैं. एआईएडीएमके सत्ताधारी दल है. यह पहला चुनाव है, जब डीएमके के टॉप लीडर एम करुणानिधि नहीं हैं. एआईएडीएमके की नेता जयललिता भी नहीं हैं. ऐसे में यह चुनाव बहुत ही दिलचस्प हो गया है. एआईएडीएमके दो बार से लगातार सत्ता में है.
अन्नाद्रमुक के घोषणापत्र में मतदाताओं से मुफ्त वाशिंग मशीन, सभी के लिए घर, सौर कुकर, शिक्षा ऋण माफी, घर में बिना किसी सरकारी नौकरी वाले परिवारों को सरकारी नौकरी आदि वादे किए गए हैं. द्रमुक ने कोविड प्रभावित चावल राशनकार्ड धारकों के लिए 4,000 रूपये, स्थानीय लोगों के लिए नौकरियों में 75 फीसद आरक्षण, विभिन्न ऋणों की माफी और विभिन्न सहायताएं आदि का वादा किया है.
आर्थिक मोर्च पर विशेषज्ञ महसूस करते हैं कि नई सरकार को भारी वित्तीय घाटा विरासत में मिलेगा और उस पर विकास कार्यक्रमों एवं चुनावी वादों के वास्ते नया कोष जुटाने के बीच संतुलन कायम करने का बोझ भी होगा.
उनके अनुसार इससे कई चुनौतियों खासकर चुनाव के बाद कोविड की दूसरी लहर से निपटने में असर पड़ेगा. वैसे दोनों ही दल दलील देते हैं कि उनके वादे सरकारी योजनाओं में तब्दील हो जाएंगे.
पूर्व केंद्रीय राजस्व सचिव एमआर शिवरमण ने मीडिया से कहा कि दोनों दलों द्वारा रेवड़ियों की घोषणा एक परिपाटी सी बन गई है. मुझे आश्चर्य होता है कि क्या किसी ने इस पर गौर किया कि सत्ता में आने पर यदि पार्टी को अपने चुनावी वादे लागू करने पड़े, तो उसका वित्तीय बोझ क्या होगा.
मद्रास स्कूल ऑफ इकॉनोमिक्स के निदेशक और प्रोफेसर के आर षणमुगम कहते हैं कि लोकप्रिय योजनाओं के क्रियान्वयन में बार-बार होने वाले खर्च के लिए भारी धनराशि की जरूरत हो सकती है और सरकार के लिए अन्य विकास कार्यों के वास्ते समय एवं संसाधन बमुश्किल ही बचेगा.