हैदराबाद : भाजपा को 2024 में बड़ी जीत हासिल करने के लिए यूपी जीतना बहुत जरूरी है. अगर 2022 में उत्तरप्रदेश में बीजेपी चुनाव हार जाती है तो केंद्र में भी मोदी सरकार की उल्टी गिनती शुरू हो जाएगी. रणनीतिक तौर पर यूपी में हारते ही देश में बीजेपी के खिलाफ माहौल बनना शुरू हो जाएगा. 2019 के बाद से बीजेपी 5 राज्यों से सत्ता से बाहर हो चुकी है.
यूपी में हारे राष्ट्रपति चुनाव में भी होगी मुश्किल : अगर विधानसभा चुनाव में विधायकों की संख्या कम हुई तो राष्ट्रपति के चुनाव में बीजेपी को मुश्किल होगी. अभी भाजपा की देश की 16 राज्यों में खुद या गठबंधन की सरकार है. देश की विधानसभाओं में इसके कुल 1432 विधायक हैं. उत्तरप्रदेश में बीजेपी के 325 विधायक हैं. राष्ट्रपति चुनाव में यूपी के विधायक के एक वोट की वैल्यू देश के दूसरे राज्यों के विधायक के मुकाबले सबसे अधिक है. यूपी के एक विधायक के वोट की वैल्यू 208 है. पिछले चुनाव में बीजेपी के उम्मीदवार रहे रामनाथ कोविंद को यूपी से 83824 वोट मिले थे. तब उन्हें गोवा से 800 और सिक्किम से महज 224 वोट मिले थे. इसके अलावा राज्यसभा में बीजेपी की सीटों पर असर पड़ेगा.
पार्टी से दूर जाएंगे दूसरे दलों से आए नेता : पिछले विधानसभा चुनाव से पहले बीएसपी, समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के दिग्गज नेता बीजेपी में आए. इसके अलावा विधानसभा स्तर पर हजारों लोग बीजेपी से जुड़े थे. मोदी लहर में इन नेताओं को भी बीजेपी के सत्ता में आने की उम्मीद थी. अगर बीजेपी उत्तरप्रदेश में चुनाव हारती है तो पार्टी में भगदड़ भी मच सकती है. इससे पहले भी टिकट वितरण में बीजेपी के नए सेनापतियों को चुनौती का सामना करना पड़ेगा.
चुनौती 1- पार्टी के भीतर खेमेबाजी को रोकना
यूपी में इस समय बीजेपी के भीतर ख़ेमेबाज़ी चल रही है. उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य लगातार यह बयान दे रहे हैं कि चुनाव के बाद केंद्रीय नेतृत्व मुख्यमंत्री तय करेगा. ऐसे हालात में पार्टी के लिए चुनौती है कि वह 2022 में होने वाले विधानसभा चुनाव में योगी आदित्यनाथ को खुले तौर पर सीएम कैंडिडेट घोषित कैसे करेगी. इसके अलावा टिकट के बंटवारे में भी पार्टी को मुश्किल हो सकती है. यूपी के13 जिलों में मौर्या-शाक्य-सैनी और कुशवाहा जाति के करीब सात से 10 फीसदी वोटर हैं. अगर केशव मौर्य जैसे नेता गुटबाजी के कारण सुस्त पड़े तो बीजेपी को इसका खमियाजा भुगतना पड़ सकता है. माना यह जा रहा है कि धर्मेंद्र प्रधान का यूपी में पहले कोई हस्तक्षेप नहीं रहा है. ऐसे में वह निष्पक्ष होकर इन समस्याओं को सुलझा सकते हैं.
चुनौती 2 - बीजेपी से छिटके ओबीसी को साथ लाना आसान नहीं
यूपी में 79 ओबीसी जातियां हैं. अनुमान के मुताबिक यूपी में सबसे बड़ा वोट बैंक पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) का है. कुल मतदाताओं में 52 पर्सेंट ओबीसी वोटर हैं. इनमें 43 पर्सेंट वोट बैंक गैर-यादव बिरादरी का है. 2014 के लोकसभा चुनाव से ओबीसी वर्ग बीजेपी से जुड़ा है. इनमें गैर यादव ओबीसी का बड़ा प्रतिनिधित्व है. पिछले दो साल में राजभर, निषाद और यादव बीजेपी से दूर चले गए हैं. 2017 में बीजेपी को मिले भारी बहुमत के पीछे इन जातियों का योगदान था. समाजवादी पार्टी और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी भी अपने वोट बैंक के लिए जोर आजमाइश कर रही है. इन्हें साधना बीजेपी के लिए आसान नहीं होगा.
चुनौती 3- दलित वोट, जाटव फिर बीएसपी के पक्ष में
2014 के मोदी लहर के बाद बीजेपी के पक्ष में दलित मतदाताओं ने भी वोट किए थे. माना यह गया कि जाटव बिरादरी के एक हिस्से का भी साथ मिला था. यूपी में 22 पर्सेंट दलित वोटर हैं. उनमें से 12 फीसदी जाटव हैं. जाटव वोटर अब पूरी तरह मायावती के साथ हैं. 2019 के लोकसभा चुनाव में जाटव फिर बीएसपी की तरफ लौट आए. बीजेपी को दोबारा यूपी की सत्ता में आने के लिए बाकी बचे 8 फीसदी गैर जाटव दलित बाल्मीकि, खटीक, पासी, धोबी आदि के सौ फीसदी वोट की जरूरत होगी. धर्मेंद्र प्रधान की टीम में दलित वोट के लिए अर्जुन राम मेघवाल को शामिल किया गया है. मगर आज के हालात में यह आसान नहीं है.
चुनौती -4 - ब्राह्मण-ठाकुर-भूमिहार वोट बैंक को एकजुट रखना
यूपी की राजनीति में ब्राह्मण वर्ग का लगभग 10 प्रतिशत वोट होने का दावा किया जाता है. ब्राह्मणों के इस आंकड़े में 1.5 फीसदी भूमिहार और एक फीसदी कायस्थ वोट भी शामिल है. इसी तरह ठाकुर वोटरों की संख्या सात प्रतिशत मानी जाती है. आबादी के हिसाब से ये वोटर दलित और ओबीसी से कम हैं मगर वोटरों के बीच माहौल बनाने के कारण प्रभावी हैं. बीएसपी के ब्राह्मण सम्मेलन और समाजवादी पार्टी के परशुराम सम्मेलनों के कारण सवर्ण वोटर बीजेपी की हार का कारण बन सकते हैं. बीएसपी और समाजवादी पार्टी में सवर्णों के प्रतिनिधि हैं, जो सरकार बनने की स्थिति में मजबूत मंत्री बनते हैं. धर्मेंद्र प्रधान की टीम में शामिल सह प्रभारी सरोज पांडे, अनुराग ठाकुर और विवेक ठाकुर यूपी के सवर्ण वोटरों को एकजुट करने में सफल होंगे तभी विधानसभा चुनाव में जीत होगी.
चुनौती 5- किसान आंदोलन के बाद जाट बिरादरी की बेरुखी
किसान आंदोलन और हाल के पंचायत चुनाव के नतीजों के बाद यह सामने आया कि बीजेपी पश्चिम उत्तरप्रदेश में अपनी जमीन खो रही है. माना जा रहा है कि किसान आंदोलन के पीछे मुख्य रूप से जाट बिरादरी के किसान है. 14 जिलों के 71 विधानसभा सीटों में जाट और मुस्लिम सामान्य तौर से निर्णायक वोटर माने जाते हैं. मुस्लिम वोट बीजेपी को नहीं मिलता है. जाटों की नाराजगी पार्टी को भारी पड़ सकती है. कैप्टन अभिमन्यु जाटों को नेता हैं मगर उत्तर प्रदेश में जाट वोट को बचाए रखना उनके लिए चुनौती होगी.
चुनौती 6- ओवैसी और राजभर का गठबंधन
2022 में असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहाद-उल मुस्लिमीन (AIMIM) इस बार100 सीटों पर चुनाव लड़ेगी. इस बार ओवैसी ने ओमप्रकाश राजभर की सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी से गठबंधन किया है. 2017 के विधानसभा चुनाव में भी एआईएमआईएम ने 38 सीटों पर चुनाव लड़ा था. उन्हें एक भी सीट नहीं मिली थी. पूरे प्रदेश में AIMIM को 0.2 फीसदी यानी कुल 205,232 वोट मिले थे. इसका औसत 5,400 वोट प्रति सीट था. 2022 भागीदारी संकल्प मोर्चा भले ही दहाई अंक में सीट नहीं जीते, मगर पिछले चुनाव के औसत से वोट काट लेता है तो बीजेपी के 100 से अधिक कैंडिडेट धूल फांकते नजर आएंगे. भागीदारी मोर्चा में शामिल राजभर पिछले चुनाव में बीजेपी के साथ थे और एआईएआईएम ने सपा का वोट काटा था. मगर ऐसा इस बार नहीं होगा. जो वोट भागीदारी संकल्प मोर्चा को मिलेंगे, वह बीजेपी के होंगे.
चुनौती 7- टिकट कटने के बाद दावेदारों की बगावत
सूत्रों के अनुसार, बीजेपी अगले विधानसभा चुनाव में 30 फीसद सीटिंग एमएलए का टिकट काट सकती है. पार्टी नेतृत्व इन विधायकों की परफॉर्मेंस की पड़ताल कर चुका है. इसलिए पिछले दिनों कुछ विधायक योगी आदित्यनाथ से भी मिले और अपने टिकट के बारे में बात की. सीएम योगी ने उन्हें दोबारा टिकट दिलाने का आश्वासन दिया. इसके अलावा पार्टी के अन्य गुटों में भी टिकट को लेकर लामबंदी हो रही है. यह तो तय है कि टिकट काटे जाएंगे. धर्मेंद्र प्रधान के सामने इसके बाद के बगावत को होने वाले बगावत को संभालने की चुनौती भी होगी.
अगर नए सेनापति इन चुनौतियों की बाधा पार कर लेते हैं तो फिर यूपी भी बीजेपी की होगी और 2024 में दिल्ली में भी राज होगा.