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Breast Tax : ऐसी थी कुप्रथा, स्तन ढंकने के लिए भी चुकाने होते थे टैक्स - ब्रेस्ट टैक्स केरल तमिलनाडु

इतिहास में ऐसी कई प्रथाएं दर्ज हैं, जिसके बारे में जानकर सहसा किसी को भी यकीन नहीं होता है, लेकिन इन प्रथाओं की सच्चाई से आप मुंह नहीं मोड़ सकते हैं. ऐसी है एक प्रथा थी- मुलक्करम, यानी जो महिलाएं अपने स्तन को ढंकना चाहती हैं, उन्हें टैक्स चुकाना होगा, अन्यथा उन्हें अपना स्तन खुला ही रखना होगा. कैसी थी यह प्रथा, जानने के लिए पढ़ें पूरी खबर.

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स्तन टैक्स
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Published : Mar 6, 2023, 6:23 PM IST

Updated : Mar 6, 2023, 6:44 PM IST

तिरुवनंतपुरम : तमिलनाडु और केरल जैसे राज्य आज मुलक्करम के खत्म होने की 200वीं वर्षगांठ मना रहे हैं. यह एक ऐसा कर था, जिसके बारे में सुनकर ही हर कोई हैरान हो जाता है, लेकिन एक समय में यह हकीकत थी. इसे ब्रेस्ट टैक्स के नाम से भी जाना जाता था. वैसी महिलाएं जो अपने स्तन को ढंकना चाहती थीं, उन्हें टैक्स चुकाना पड़ता था, और जो इस टैक्स को नहीं चुका सकती थीं, उन्हें अपना स्तन खुला रखना होता था. इस प्रथा का केरल और तमिलनाडु के कुछ इलाकों में कड़ाई से पालन किया जाता था.

त्रावणकोर के शासक अपनी जनता खासकर निचली जातियों पर जुल्म ढहाने के लिए जाने जाते थे. उन्होंने निचली जातियों (दलितों) की महिलाओं के कपड़े पहनने पर भी पाबंदी लगा दी थी. महिलाओं को अपने स्तन ढंकने की आजादी नहीं थी. और अगर किसी ने स्तन ढंकने की कोशिश की, तो उसे टैक्स चुकाना होता था. सुनने में शायद यह अटपटा लगे, लेकिन यह हकीकत है. ये सारी बातें इतिहास में दर्ज हैं.

वैसे, त्रावणकोर के राजा अजीबो-गरीब टैक्स लगाने के लिए जाने जाते थे. कभी मूंछ रखने पर टैक्स वसूला जाता था, तो कभी गहना पहनने पर टैक्स चुकाने की बाध्यता होती थी. आज से करीब 200 साल पहले तक वहां पर इस तरह के टैक्स आम थे.

मलयालम में इस टैक्स को मुलक्करम कहा जाता था. मुलक्करम का अर्थ होता है स्तन ढंकने के लिए टैक्स देना. इस टैक्स को मुस्तैदी से वसूला जाता था. जो कोई भी इसे नहीं चुकाता था, उसे प्रताड़ना का शिकार होना पड़ता था. राजा का आदमी दलितों के घरों में जाता था, और उससे मुलक्करम वसूलता था. मुख्य रूप से दलितों के घरों से इसे वसूला जाता था. हालांकि, इसको लेकर कुछ कहानियां भी हैं. इनमें कितनी सच्चाई है, इसका पता नहीं. कहा जाता है कि स्तनों के आकार के आधार पर टैक्स वसूला जाता था.

बाद में जैसे-जैसे जागरूकता का प्रसार हुआ, इसका विरोध शुरू हो गया. 1822 के बाद इस टैक्स को लेकर दलित महिलाओं ने आवाज उठानी शुरू कर दी थी. उन्होंने अलग-अलग जगहों पर इसका विरोध किया था. इतिहास में यह दर्ज है कि 1822-23, 1827-29 और 1858-59 तक अलग-अलग इलाकों में विरोध चलता रहा. इन विरोधों में सबसे ज्यादा नांगेली का विरोध प्रसिद्ध था. नांगेली एक दलित महिला थी. कहा जाता है कि जब राजा के अधिकारी स्तन टैक्स को वसूलने आए, तो नांगेली ने अपना स्तन काटकर उसके सामने पेश कर दिया था. यह देखकर वूसली करने वाला अधिकारी घबरा गया. इस आंदोलन का नाम थोड सिलाई पोराट्टम दिया गया था. अंग्रेजी में इसे अपर क्लोथ रिवोल्ट भी कहा जाता है. कुछ लोग इसे चन्नार क्रांति भी कहते हैं.

यहां पर आपको यह भी बता दें कि केरल में वेल्लार, नायर और नंबूदरी को अपर कास्ट माना जाता है. पुलस्य, एडवा और नाडार को निचली जाति में गिना जाता था. वैसे कुछ लोग यह भी कहते हैं कि केरल समुद्र तटीय इलाका है. भौगोलिक रूप से इसे ट्रॉपिकल एरिया कहा जाता है. यहां पर भीषण गर्मी पड़ती है और उमस रहती है. इसलिए अधिकांश लोग शरीर के ऊपरी हिस्से पर कपड़े नहीं पहनते थे. पुरुष हो या महिलाएं, वे शरीर के ऊपरी हिस्से को खुला ही रखते थे.

कुछ इतिहासकारों का मानना है कि राज घरानों में भी महिलाएं कमर से ऊपर कपड़े नहीं पहनती थीं. इंडिया टुडे ने इतिहासकार मनुएस पिल्लई का एक बयान प्रकाशित किया है. इसके अनुसार कोचिन की रानी भी अपना स्तन खुला ही रखती थीं. उन्होंने जो तस्वीरें ट्वीट की हैं, इसमें देखा जा सकता है कि स्त्रियां बिना कपड़ों की ही नजर आ रहीं हैं. पिल्लई ने कहा है कि ये स्त्रियां ब्राह्मण परिवार की हैं. बाद में यह प्रथा धीरे-धीरे खत्म हो गई.

अंग्रेजों के आने के बाद भी यह प्रथा जारी रही. समाज में यह धारणा फैलाई गई कि दलितों द्वारा स्तनों को खुला रखना ऊपरी जाति के लोगों के प्रति सम्मान है. केरल के इतिहास में यह एक फैक्ट की तरह है. नायर जाति की महिलाएं नंबूदरी ब्राह्मणों के सामने स्तन नहीं ढकती थी. इतिहास में यह भी दर्ज है कि खुद नंबूदरी ब्राह्मण जाति की पत्नियां पूजा के समय अपना स्तन खुला रखती थीं. इतिहास में यह भी दर्ज है कि ऊंची जाति की महिलाएं शॉल ओढ़कर अपने स्तन को ढक लेती थी, लेकिन नायर महिलाओं (दलित) को यह आजादी नहीं थी. जिस समय केरल के इन इलाकों में यह प्रथा प्रचलित थी, उस समय उस समाज में बहुपति व्यवस्था थी और इस प्रथा को सम्मान के नजरिए से देखा जाता था. यानी महिलाओं को यह स्वतंत्रता थी कि वह किसी भी पति को चुन सकती है. यह जनजातीय समाज का एक गुण था. इसे मातृसत्तात्मक समाज कहा जाता था.

कहा जाता है कि अंग्रेजों ने इस प्रथा का अपने तरीके से फायदा उठाया. उन्होंने उन लोगों को स्तन ढकने की आजादी थी, जिन्होंने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया था, लेकिन जिन लोगों ने ईसाई धर्म को स्वीकार करने से मना कर दिया, अंग्रेजों ने उन्हें जाहिल और पिछड़ा कहा. इतिहास में कहा जाता है कि इन इलाकों में अंग्रेजों ने मातृसत्तात्मक समाज की जगह पर पितृसत्तात्मक सोच को थोपा.

बाद में नाडार और एडवा जाति की महिलाओं ने भी इस प्रथा का विरोध किया. उन्होंने अपने स्तनों को ढकना शुरू कर दिया. वे कंधे पर शॉल रखने लगीं. जब ऊंची जाति के लोगों ने इसका विरोध किया, तो त्रावणकोर के राजा ने आदेश दिया कि ऐसी महिलाएं शॉल नहीं ओढ़ सकती हैं. राजा के अनुसार हालांकि, वे चाहें तो ब्लाउज पहन सकती हैं.

1859 की एक घटना ने पूरे इलाके को हिलाकर रख दिया था. तब कई जगहों पर दंगे भड़क गए थे. नाडार महिलाओं ने इसका नेतृत्व किया था. नांगेली ने जो कुछ भी किया, उससे त्रावणकोर की बुनियाद हिल गई थी. इंडिया टुडे में 'हर स्टोरीज इंडियन वूमन डाउन द एज' किताब के हवाले से बताया गया है कि नांगेली खुद सामने आई, और केले के पत्ते पर उसने अपने स्तन काटकर रख दिए. इससे त्रावणकोर का कलेक्टर हिल गया था. नांगेली इतनी बुरी तरह से जख्मी हो गई थी कि उसकी मृत्यु हो गई थी. लेकिन इस घटना की गूंज पूरे इलाके में सुनाई देती रही. राजा ने औपचारिक रूप से इस टैक्स की समाप्ति की घोषणा कर दी.

वैसे, जैसा कि पहले भी हमने बताया कि बहुत बड़ा तबका है कि वह इस तरह की कहानी को सच नहीं मानता है. उनका मानना है कि भौगोलिक स्थिति के कारण पुरुष और महिलाएं दोनों ही कमर से ऊपर कपड़ों को आमतौर पर नहीं पहनते थे. इतिहास में भी कुछ पेटिंग्स दर्ज हैं, जो इस अवधारणा को ही बल देते हैं. डच यात्री जोहान नीउहोफ ने एक पेंटिंग बनाया है. यह उस समय की पेंटिंग है. इसमें उन्होंने क्विलोन की रानी को खुले स्तन में दिखाया है. 17वीं और 18वीं शताब्दी के यात्रा वृत्तांत (पिएत्रो डेला वैले और जॉन हैरी ग्रोस) में बताया गया है कि केरल में पुरुष और महिला दोनों कमर के ऊपरी हिस्से में कपड़े नहीं पहनती थी.

ये भी पढे़ं : आदिवासी समाज के विकास में बाधक है डायन कुप्रथा, बेड़ियां तोड़ने के लिए किए जा रहे हैं कई उपाय

तिरुवनंतपुरम : तमिलनाडु और केरल जैसे राज्य आज मुलक्करम के खत्म होने की 200वीं वर्षगांठ मना रहे हैं. यह एक ऐसा कर था, जिसके बारे में सुनकर ही हर कोई हैरान हो जाता है, लेकिन एक समय में यह हकीकत थी. इसे ब्रेस्ट टैक्स के नाम से भी जाना जाता था. वैसी महिलाएं जो अपने स्तन को ढंकना चाहती थीं, उन्हें टैक्स चुकाना पड़ता था, और जो इस टैक्स को नहीं चुका सकती थीं, उन्हें अपना स्तन खुला रखना होता था. इस प्रथा का केरल और तमिलनाडु के कुछ इलाकों में कड़ाई से पालन किया जाता था.

त्रावणकोर के शासक अपनी जनता खासकर निचली जातियों पर जुल्म ढहाने के लिए जाने जाते थे. उन्होंने निचली जातियों (दलितों) की महिलाओं के कपड़े पहनने पर भी पाबंदी लगा दी थी. महिलाओं को अपने स्तन ढंकने की आजादी नहीं थी. और अगर किसी ने स्तन ढंकने की कोशिश की, तो उसे टैक्स चुकाना होता था. सुनने में शायद यह अटपटा लगे, लेकिन यह हकीकत है. ये सारी बातें इतिहास में दर्ज हैं.

वैसे, त्रावणकोर के राजा अजीबो-गरीब टैक्स लगाने के लिए जाने जाते थे. कभी मूंछ रखने पर टैक्स वसूला जाता था, तो कभी गहना पहनने पर टैक्स चुकाने की बाध्यता होती थी. आज से करीब 200 साल पहले तक वहां पर इस तरह के टैक्स आम थे.

मलयालम में इस टैक्स को मुलक्करम कहा जाता था. मुलक्करम का अर्थ होता है स्तन ढंकने के लिए टैक्स देना. इस टैक्स को मुस्तैदी से वसूला जाता था. जो कोई भी इसे नहीं चुकाता था, उसे प्रताड़ना का शिकार होना पड़ता था. राजा का आदमी दलितों के घरों में जाता था, और उससे मुलक्करम वसूलता था. मुख्य रूप से दलितों के घरों से इसे वसूला जाता था. हालांकि, इसको लेकर कुछ कहानियां भी हैं. इनमें कितनी सच्चाई है, इसका पता नहीं. कहा जाता है कि स्तनों के आकार के आधार पर टैक्स वसूला जाता था.

बाद में जैसे-जैसे जागरूकता का प्रसार हुआ, इसका विरोध शुरू हो गया. 1822 के बाद इस टैक्स को लेकर दलित महिलाओं ने आवाज उठानी शुरू कर दी थी. उन्होंने अलग-अलग जगहों पर इसका विरोध किया था. इतिहास में यह दर्ज है कि 1822-23, 1827-29 और 1858-59 तक अलग-अलग इलाकों में विरोध चलता रहा. इन विरोधों में सबसे ज्यादा नांगेली का विरोध प्रसिद्ध था. नांगेली एक दलित महिला थी. कहा जाता है कि जब राजा के अधिकारी स्तन टैक्स को वसूलने आए, तो नांगेली ने अपना स्तन काटकर उसके सामने पेश कर दिया था. यह देखकर वूसली करने वाला अधिकारी घबरा गया. इस आंदोलन का नाम थोड सिलाई पोराट्टम दिया गया था. अंग्रेजी में इसे अपर क्लोथ रिवोल्ट भी कहा जाता है. कुछ लोग इसे चन्नार क्रांति भी कहते हैं.

यहां पर आपको यह भी बता दें कि केरल में वेल्लार, नायर और नंबूदरी को अपर कास्ट माना जाता है. पुलस्य, एडवा और नाडार को निचली जाति में गिना जाता था. वैसे कुछ लोग यह भी कहते हैं कि केरल समुद्र तटीय इलाका है. भौगोलिक रूप से इसे ट्रॉपिकल एरिया कहा जाता है. यहां पर भीषण गर्मी पड़ती है और उमस रहती है. इसलिए अधिकांश लोग शरीर के ऊपरी हिस्से पर कपड़े नहीं पहनते थे. पुरुष हो या महिलाएं, वे शरीर के ऊपरी हिस्से को खुला ही रखते थे.

कुछ इतिहासकारों का मानना है कि राज घरानों में भी महिलाएं कमर से ऊपर कपड़े नहीं पहनती थीं. इंडिया टुडे ने इतिहासकार मनुएस पिल्लई का एक बयान प्रकाशित किया है. इसके अनुसार कोचिन की रानी भी अपना स्तन खुला ही रखती थीं. उन्होंने जो तस्वीरें ट्वीट की हैं, इसमें देखा जा सकता है कि स्त्रियां बिना कपड़ों की ही नजर आ रहीं हैं. पिल्लई ने कहा है कि ये स्त्रियां ब्राह्मण परिवार की हैं. बाद में यह प्रथा धीरे-धीरे खत्म हो गई.

अंग्रेजों के आने के बाद भी यह प्रथा जारी रही. समाज में यह धारणा फैलाई गई कि दलितों द्वारा स्तनों को खुला रखना ऊपरी जाति के लोगों के प्रति सम्मान है. केरल के इतिहास में यह एक फैक्ट की तरह है. नायर जाति की महिलाएं नंबूदरी ब्राह्मणों के सामने स्तन नहीं ढकती थी. इतिहास में यह भी दर्ज है कि खुद नंबूदरी ब्राह्मण जाति की पत्नियां पूजा के समय अपना स्तन खुला रखती थीं. इतिहास में यह भी दर्ज है कि ऊंची जाति की महिलाएं शॉल ओढ़कर अपने स्तन को ढक लेती थी, लेकिन नायर महिलाओं (दलित) को यह आजादी नहीं थी. जिस समय केरल के इन इलाकों में यह प्रथा प्रचलित थी, उस समय उस समाज में बहुपति व्यवस्था थी और इस प्रथा को सम्मान के नजरिए से देखा जाता था. यानी महिलाओं को यह स्वतंत्रता थी कि वह किसी भी पति को चुन सकती है. यह जनजातीय समाज का एक गुण था. इसे मातृसत्तात्मक समाज कहा जाता था.

कहा जाता है कि अंग्रेजों ने इस प्रथा का अपने तरीके से फायदा उठाया. उन्होंने उन लोगों को स्तन ढकने की आजादी थी, जिन्होंने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया था, लेकिन जिन लोगों ने ईसाई धर्म को स्वीकार करने से मना कर दिया, अंग्रेजों ने उन्हें जाहिल और पिछड़ा कहा. इतिहास में कहा जाता है कि इन इलाकों में अंग्रेजों ने मातृसत्तात्मक समाज की जगह पर पितृसत्तात्मक सोच को थोपा.

बाद में नाडार और एडवा जाति की महिलाओं ने भी इस प्रथा का विरोध किया. उन्होंने अपने स्तनों को ढकना शुरू कर दिया. वे कंधे पर शॉल रखने लगीं. जब ऊंची जाति के लोगों ने इसका विरोध किया, तो त्रावणकोर के राजा ने आदेश दिया कि ऐसी महिलाएं शॉल नहीं ओढ़ सकती हैं. राजा के अनुसार हालांकि, वे चाहें तो ब्लाउज पहन सकती हैं.

1859 की एक घटना ने पूरे इलाके को हिलाकर रख दिया था. तब कई जगहों पर दंगे भड़क गए थे. नाडार महिलाओं ने इसका नेतृत्व किया था. नांगेली ने जो कुछ भी किया, उससे त्रावणकोर की बुनियाद हिल गई थी. इंडिया टुडे में 'हर स्टोरीज इंडियन वूमन डाउन द एज' किताब के हवाले से बताया गया है कि नांगेली खुद सामने आई, और केले के पत्ते पर उसने अपने स्तन काटकर रख दिए. इससे त्रावणकोर का कलेक्टर हिल गया था. नांगेली इतनी बुरी तरह से जख्मी हो गई थी कि उसकी मृत्यु हो गई थी. लेकिन इस घटना की गूंज पूरे इलाके में सुनाई देती रही. राजा ने औपचारिक रूप से इस टैक्स की समाप्ति की घोषणा कर दी.

वैसे, जैसा कि पहले भी हमने बताया कि बहुत बड़ा तबका है कि वह इस तरह की कहानी को सच नहीं मानता है. उनका मानना है कि भौगोलिक स्थिति के कारण पुरुष और महिलाएं दोनों ही कमर से ऊपर कपड़ों को आमतौर पर नहीं पहनते थे. इतिहास में भी कुछ पेटिंग्स दर्ज हैं, जो इस अवधारणा को ही बल देते हैं. डच यात्री जोहान नीउहोफ ने एक पेंटिंग बनाया है. यह उस समय की पेंटिंग है. इसमें उन्होंने क्विलोन की रानी को खुले स्तन में दिखाया है. 17वीं और 18वीं शताब्दी के यात्रा वृत्तांत (पिएत्रो डेला वैले और जॉन हैरी ग्रोस) में बताया गया है कि केरल में पुरुष और महिला दोनों कमर के ऊपरी हिस्से में कपड़े नहीं पहनती थी.

ये भी पढे़ं : आदिवासी समाज के विकास में बाधक है डायन कुप्रथा, बेड़ियां तोड़ने के लिए किए जा रहे हैं कई उपाय

Last Updated : Mar 6, 2023, 6:44 PM IST
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